पानी पीकर स्वस्थ होइए।

May 1949

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(साहित्य-रत्न श्री लक्ष्मी नारायण टंडन ‘प्रेमी’ एम. ए., संपादक ‘खत्री-हितैषी’)

शीर्षक पढ़कर अनेक पाठक चौंकेंगे ही, प्रथम तो वह सोचेंगे कि यदि पानी पीकर ही स्वस्थ रहा जा सके तो कोई अस्वस्थ ही क्यों हो। फिर यह सोचेंगे कि भला पानी कौन ऐसा जीव होगा जो न पीता हो, तो फिर हम अस्वस्थ क्यों रहते हैं। यह भी क्रोधपूर्वक सोचा जा सकता है कि क्या हम खाना-पीना सम्बन्धी साधारण बातें भी नहीं जानते जो हमें बच्चा समझ कर उपदेश दिया जा रहा है। किन्तु बात है कुछ ऐसी ही। हमारे ज्ञान का क्षेत्र कितना अधिक संकुचित है, यह बताने की आवश्यकता नहीं। और हँसी की बात तो यह कि जिस भोजन और जल के बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते, उसी के विषय में हम कितना कम जानते हैं, या हमारा ज्ञान कितना भ्रामक है। काम तो हमारा चलता ही जाता है, किन्तु ‘नकटा जिया बुरे हवाल’ कहावत हम पर लागू होती है। सचमुच हम यदि भोजन और जल के उपयोग को वैज्ञानिक ढंग से जान जाएँ तो सचमुच ही हम अस्वस्थ और रोगी न हों। आप आश्चर्य मत करें-’भोजन’ तथा ‘जल’ सम्बन्धी ज्ञान भी ‘विज्ञान’ ही है।

आइये, पहले हम दो बातें समझें -अर्थात् पानी कब पीना चाहिए और कब नहीं पीना चाहिए। पहले हम देखेंगे कि हमें पानी कब पीना चाहिए?

(1) साधारणतया, जब भी प्यास लगे, तभी पानी पीना चाहिए-रात हो या दिन। 2॥ सेर से कम पानी पीने वाले (24 घंटे में) अवश्य कब्ज, बदहजमी तथा खुश्की आदि रोगों से पीड़ित होंगे। पानी कम पीने से शरीर के अन्दर के अनेक विष पानी में घुल कर पेशाब या पसीने के रूप बाहर नहीं निकल पाते। पानी अधिक पीने से त्वचा साफ रहती है, रोम-कूप खुलते हैं, मूत्र तथा पसीने द्वारा शरीर की सफाई होती है, चेहरे की दमक बैठ जाती है, मल ढीला होता है, कब्ज दूर होता है, पाचन-क्रिया ठीक होती है तथा अनेक छोटी-मोटी बीमारियाँ दूर होती हैं। चित्त हल्का होता है, खून पतला रहता है, भोजन हजम होता है।

(2) मनुष्य को ऊषापान अवश्य करना चाहिए। सोकर उठते ही कुल्ला आदि करके 5 मिनट रुक कर रात का ओस में (ताँबे के बर्तन में) रखा आध-सेर से सेर भर तक पानी पियें (यदि एक नींबू का रस मिला लें तो और भी अच्छा) 3-4 मिनट बाँयी करवट तथा 3-4 मिनट दाँयी करवट और फिर 3-4 मिनट बाँयी करवट लेटकर तुरन्त शौच लगे या न लगे। कुछ लोग 3-4 मिनट टहल कर फिर शौच जाना उचित समझते हैं। इससे पाचन और मल-निष्कासन में सुविधा और आराम होता है। बवासीर जैसे कठिन रोग दूर होते हैं।

(3) भोजन के आध घंटे पूर्व आध सेर जल का पीना भी गुणकारी है। जल को दूध की भाँति घूँट-2 कर पिएं ताकि लार मिल जाय, गट-गट करके न पी जाएं। जल पीते समय यह भावना करें कि प्राण-तत्व जल के द्वारा मेरे अंदर प्रवेश करके मुझे स्वास्थ्य, शक्ति और स्फूर्ति दे रहे हैं, मेरा रक्त लाल, पतला तथा शुद्ध हो रहा है।

(4) भोजन के साथ जल न पियें अन्यथा पेट में कीचड़ हो जाने से भोजन के पाचन में गड़बड़ी होती है। भोजन के 1-2 घंटे बाद जल पिएं। तब प्यास भी खूब लगती है और पाचन-अंगों में भोजन पचने में सहायता मिलती है क्योंकि पाचन-रस आमाशय आदि में भोजन में ठीक से मिल चुकते हैं।

(5) सोने के पूर्व एक गिलास जल पियें। इससे स्वप्न-दोष का भय नहीं रहता, नींद अच्छी आती है, भोजन ठीक से पचता है।

(6) उपवास काल में जल का प्रयोग अधिक करना चाहिए-प्यास लगे या न लगे। उपवासकाल में पाचन-अंगों को भोज्य-पदार्थों को पचाने के काम से छुट्टी मिल जाती है तो वह शरीर के संचित विष तथा विकारों को पचाने लगते हैं तथा निकालना आरम्भ कर देते हैं। जल पीने से, शरीर भर के रुधिर से विष एकत्रित होकर जल में घुल कर पेशाब के रूप निकल जाते हैं। उपवास-काल में जल में यदि नींबू का रस डालकर पिएं तो विष आदि तेजी से दूर होते हैं पर साथ ही साथ उनकी तेज प्रतिक्रिया नहीं होने पाती।

हमारे लिए यह जानना भी आवश्यक है कि जल कब नहीं पीना चाहिए। (1) भोजन के तुरंत पहले या तुरंत बाद न पीना चाहिये। इससे पेट में कीचड़ हो जाती है और पाचन-रस ठीक से भोजन में नहीं मिल पाते।

(2) पानी पीकर तुरन्त पेशाब नहीं करना। वैसे ही पेशाब करके तुरन्त पानी नहीं पीना चाहिए। इससे पाचन तंत्र तथा गुर्दे कमजोर पड़ जाते हैं। अतः 10-5 मिनट आगे पीछे जल पिएं। मान लो सोकर उठते ही पेशाब करके 4-5 मिनट कुल्ला आदि करने में लगा दें और तब जल पियें।

(3) एनिमा लेने के 15 मिनट पहले या 15 मिनट बाद जल न पियें।

(4) चिकनी चीजें दूध, मलाई, मक्खन, घी तथा मेवा, भुने चने, फल, मिठाई आदि के बाद जल न पिएं। चिकनी चीजों के ऊपर जल से खाँसी होने का डर रहता है। खीरा-ककड़ी-खरबूजा आदि के ऊपर जल पीने से हैजे का डर हो सकता है। फल आदि के ऊपर जल पीने से सर्दी, नजला, जुकाम आदि हो सकता है। भुने चने के ऊपर जल पीने से पाचन-क्रिया को कमजोरी हो सकती है।

(5) सो कर उठने पर, चाहे दिन हो या रात, तुरंत पानी पीने से जुकाम, सर दर्द तथा तबियत भारी हो जाने का भय होता है।

(6) गर्म चीजों- चाय, दूध आदि के ऊपर पानी न पिये तुरंत। वैसी ही तुरन्त पानी पीकर यह चीजें न पिये।

(7) जुलाब आने पर जल न पियें क्योंकि तब आंतें कमजोर होती हैं और मल फेंकने का काम करती होती हैं। जल पीने पर उनका ध्यान बँटेगा।

(8) स्त्री-संग के बाद तुरन्त जल न पिएं। क्योंकि बदन यकायक गर्म और सनसनाहट के बाद स्तब्ध सा हो चुकता है, अतः तुरन्त ठंडक पहुँचना ठीक नहीं।

(9) व्यायाम का कठिन परिश्रम या कड़ी धूप और लू से आने के बाद या नमी के बाद तुरन्त जल न पिएं। गर्मी सर्दी एक साथ पहुँचना ठीक नहीं।

कोमल जल (soft water) ही पीना चाहिए। बर्फ का ठंडा पानी भले ही तुरन्त प्यास बुझा दे तथा असर अस्थायी होता है। स्वास्थ्य के लिए बर्फ का प्रयोग वर्जित है। सब से अच्छा ताजा भरा ढके कुओं का मीठा जल पीना उत्तम है। नल के जल से छुटकारा नहीं, अतः भले ही वह कुछ हानिकारक हो, पीना ही चाहिये। बढ़ती नदी की बीच-धारा का जल शुद्ध होता है। बालू-कोयला-चूना द्वारा साफ किया या उबाल कर ठंडा किया हुआ जल, वर्षा का शुद्ध वातावरण का एक किया हुआ जल आदि पीना चाहिए। ट्यूब-वेल्स (ट्यूब के कुएँ) न हों तो ऐसे कुओं का जल तो कभी न पियें जिनमें गर्द-गुबार, पत्तियाँ पड़ती हों, जिसकी जगत ऊंची न हो और नहाने, धोने आदि का पानी भीतर चला जाता हो, जिनमें अपवित्र और गंदे डोल या गगरे आदि पानी भरने प्रयोग के में लाये जाएं, जिस कुएँ के जल में पेट्रोल या पोटैशियम परमैगनेट आदि दवायें डाल कर उसके कीड़े न मार दिए गए हों। जल को थिराकर, छान कर, गर्म करके पीना ही अच्छा होता है। पहाड़ी झरनों के पानी में मिले पत्थर के सूक्ष्म कण थिराने से नीचे बैठ जाते हैं या नदियों की बालू भी।

जल पीने जैसे साधारण कार्य को हम नियमित तथा सुचारु रूप देकर अपने स्वास्थ्य का कारण बना सकते हैं तथा अनेक छोटे-मोटे रोग भगा सकते हैं।


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