मितव्ययिता से काम लीजिए।

May 1949

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(श्री दौलतराम कटरहा बी. ए.)

मेरे एक मित्र व्यापारी हैं। एक दिन वे शिकायत करने लगे कि क्या करूं इतनी आमदनी पर भी मुश्किल से गुजर होती है। हर महीने करीब पच्चीस तीस रुपए का तो कपड़ा ही खरीदना पड़ता है। दीगर खर्च और भी ज्यादा है। पान-सिगरेट में ही बीस से पच्चीस रुपये माहवार तक का खर्च है। मैंने कहा कि मेरी आय यद्यपि आप से कम है तथापि मुझे पैसे का वैसा कष्ट नहीं होता। उन्हें ताज्जुब हुआ। मैंने कहा बात बिल्कुल सही है। आप एक वस्त्र को महीने दो महीने तक चलाते हैं, मैं उसे सावधानी से रख साल भर चलाता हूँ। आपकी घड़ी साल-साल में बिगड़ती है, मुझे वर्षों उसके पीछे कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता। आपके यहाँ चीनी और काँच के अनेकों जोड़ी बर्तन फूटते रहते हैं, वे मेरे पास वर्षों चलते रहते हैं, इस तरह मेरी व्यवहार की वस्तुएं प्रायः आप से कम हैं।

हम लोग समृद्धिशाली जीवन बिताने के लिए सदा लालायित रहते हैं और सोचते हैं कि उस इच्छा की पूर्ति का एकमात्र उपाय है आमदनी की वृद्धि। किन्तु हम इस प्रश्न के दूसरे पहलू पर कभी विचार ही नहीं करते। आमदनी तो आखिर खर्च ही की जाती है तब फिर क्यों न हम अपने खर्च पर नियंत्रण लगावें। खर्च में कमी करना दूसरे रूप में अपनी आमदनी को बढ़ाना ही तो है।

सावधानी-पूर्वक और व्यवस्था-पूर्वक रहना परोक्ष रूप से आमदनी बढ़ाने का सुन्दर तरीका है। व्यवस्थापूर्ण आचरण करने से हमारा जीवन संयमित होता है और संयमित जीवन स्वयं ही एक सुन्दर सम्पत्ति है। व्यवस्थित जीवन बिताना जीवन-कला में दक्षता प्राप्त करना है, अतएव जो लोग इस तरह की डींग हाँकते हैं कि हमारे यहाँ पाँच सौ रुपए महीने का खर्च है वे भले ही ऐसा कह कर अपनी योग्यताओं का प्रमाण देना चाहते हैं कि वे जीवन-कला से निताँत अनभिज्ञ हैं तथा उनका यह बढ़ा हुआ खर्च केवल अन्याय-पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के बल पर ही हो रहा है। वे ऐसे परिग्रह से जिसकी वे आवश्यकता सिद्ध नहीं कर सकते। गाँधी जी के शब्दों में “पड़ोसी को चोरी करने के लालच में फँसाते हैं।” अतः जगत में विषमता फैलती है और लोग उससे होने वाले दुःख भोगते हैं। सामाजिक उथल-पुथल और क्राँतियाँ सब इस विषमता के ही अवश्यम्भावी परिणाम हैं। गाँधी जी के मतानुसार धनी के घर उसके लिए अनावश्यक चीजें भरी रहती हैं, मारी-मारी फिरती हैं, खराब होती रहती हैं, दूसरी ओर उनके अभाव में करोड़ों मनुष्य भटकते हैं, भूखों मरते हैं, जाड़े से ठिठुरते हैं। यदि सब लोग अपनी आवश्यकता भर को ही संग्रह करें तो किसी को तंगी न हो और सबको संतोष रहे। आज तो दोनों ही तंगी अनुभव करते हैं। करोड़पति, अरबपति होने को छटपटाता है। अतः भले ही कोई अपने बढ़े हुए खर्च की चर्चा कर सम्मान पाने और अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने का इच्छुक हो किन्तु मनीषियों की दृष्टि में वह इस तरह सम्मान्य नहीं हो सकता। मनुष्य अपनी सेवा कर सम्मान्य नहीं बनता। वह सम्मान्य बनता है दूसरों की सेवा करके तथा अपने गुणों से दूसरों को लाभ पहुँचा कर।

पाश्चात्य देशों के लोग भोगवादी हैं। जो जितना ही अधिक भोग भोग सकता है उसे वे उतना ही अधिक योग्य समझते हैं। किन्तु योग्यता की हमारी कसौटी कुछ और ही है। भगवान बुद्ध समझते थे कि मेरी चतुराई इसी में है कि मुझे कम से कम वस्तुओं की आवश्यकता पड़े। जिस महापुरुष ने वासना को ही संसार-मूल मानकर इच्छा के त्याग द्वारा ही निर्वाण प्राप्त करने का मूल-मंत्र संसार को बताया उसके लिए जीवन-कला की यह परिभाषा देना बिल्कुल स्वाभाविक है। भोग-वाद के इस युग में महात्मा गाँधी ने भी हमें यही शिक्षा दी है। वे कहते हैं अनावश्यक कोई भी वस्तु न लेनी चाहिए। एक चीज की जरूरत न होते हुए जिस के अधिकार में वह है उससे, चाहे उसकी आज्ञा लेकर ही लें तो वह भी चोरी होगी।....मुझे अमुक फल की जरूरत नहीं है, फिर भी मैं उसे खाता हूँ, या जरूरत से ज्यादा खाता हूँ, तो यह चोरी है। अतएव “अस्तेय-व्रत पालन करने वाला उत्तरोत्तर अपनी आवश्यकताएं कम करता जायगा।” और मन से भी किसी की चीज को पाने की इच्छा न करेगा क्योंकि किसी की अच्छी चीज को देखकर ललचाना भी मानसिक चोरी है। उस पर जूठी नजर डालना भी चोरी है।

अधिक खर्च करने से जीवन गौरवशाली नहीं होता। अधिक पैदा कर लेना भी योग्यताओं का कोई सच्चा प्रमाण नहीं है प्रत्युत सम्भव है कि आने वाला युग अधिक सम्पत्ति जुटाने वाले व्यक्ति को परिग्रही और चोर समझे। अधिक कमाने वाले को तो लोग आज भी चोरबाजारी कहने के लिए ही उतारू रहते हैं। अतएव अपने व्यवहार की वस्तुओं का अत्यन्त सावधानी से उपयोग करना तथा आवश्यकताओं को उत्तरोत्तर कम करते जाना ही सर्वोत्तम जीवन कला है। कार्य-क्षमता में शिथिलता एवं न्यूनता लाए बिना आवश्यकताओं को कम कर सकने में सचमुच ही बड़ी बुद्धिमानी है। भगवान बुद्ध के पट्ट शिष्य ‘उपस्थाक आनन्द’ ने इस कला को कहाँ तक अपने जीवन में उतार लिया था वह एक छोटे से वृत्तान्त से प्रतीत होगा। आनन्द बिना आवश्यकता के किसी भी वस्तु का प्रतिग्रहण न करते थे और जब भक्तगण उन्हें कुछ देना चाहते तो उनका सदा यही कहना रहता था कि “मेरे पात्र और भिक्षु-वस्त्र पूरे हैं। मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं”। किन्तु जब एक बार उदयन की रानियों ने उन्हें 500 चादरें भेंट कीं तो उदयन को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने पूछा-

आनन्द? आप इतने अधिक चीवरों का क्या करेंगे?

‘महाराज? जो फटे चीवर वाले भिक्षु हैं उन्हें बाँटेंगे।’

‘और जो पुराने चीवर हैं उनका क्या करेंगे?’

‘महाराज! उन्हें बिछौने की चादर बनाएंगे।’

‘भन्ते आनन्द! वह जो पुराने बिछौने की चादर है, उनका क्या करेंगे?’

‘उनसे गद्दे का गिलाफ बनाएंगे।’

‘जो वह पुराने गद्दे के गिलाफ हैं, उनका क्या करेंगे?’

‘उनका फर्श बनाएंगे।’

‘जो वह पुराने फर्श हैं, उनका क्या करेंगे?’

‘उनका पायन्दाज बनाएंगे।’

‘जो वह पुराने पायन्दाज हैं, उनका क्या करेंगे?’

‘उनका झाड़न बनाएंगे।’,

‘जो वह पुराने झाड़न हैं, उनका क्या करेंगे?’

‘उनको कूटकर, कीचड़ के साथ मर्दन कर, पलस्तर करेंगे।’

आनन्द की यह मितव्ययिता हमारे लिए अच्छी मार्ग-प्रदर्शिका हो सकती है। यदि हम इस तरह वस्तुओं का सदुपयोग करना सीखेंगे तो हमारी आवश्यकताओं की भी पूर्ति होगी और धन कमाने के लिए हमें व्यर्थ की ‘हाय हाय’ भी न करनी पड़ेगी। हम संसार में अहिंसक रहकर अपनी आजीविका प्राप्त कर सकेंगे और साथ-साथ जीवन की कला भी सीख जाएंगे। हम इस जीवन के मूल्य को अपनी आमदनी बढ़ाकर उतना नहीं बढ़ा सकते जितना कि आवश्यकताओं और इच्छाओं को कम करके।


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