आपको यज्ञोपवीत धारण करना ही चाहिए।

May 1949

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है। इसे द्विजत्व का प्रतीक माना गया है। द्विजत्व का अर्थ है-मनुष्यता के उत्तरदायित्व को स्वीकार करना। जो लोग मनुष्यता की जिम्मेदारियों को उठाने के लिए तैयार नहीं पाशविक वृत्तियों में इतने जकड़े हुए हैं कि उनको अनुपवीत शब्द से शास्त्रकारों ने तिरस्कृत किया है। और उनके लिए आदेश किया है कि वे आत्मोन्नति करने वाली मण्डली से अपने को पृथक, बहिष्कृत एवं निकृष्ट समझें। ऐसे लोगों को वेद-पाठ, यज्ञ, तप आदि सत्साधनाओं का भी अनधिकारी ठहराया गया है, क्योंकि जिसका आधार ही मजबूत नहीं वह स्वयं खड़ा नहीं रह सकता, जब स्वयं खड़ा नहीं रह सकता तो इन धार्मिक कृत्यों का भार-वहन किस प्रकार कर सकेगा?

भारतीय धर्म शास्त्रों की दृष्टि में मनुष्य का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह अनेक योनियों में भ्रमण करने के कारण संचित हुए पाशविक संस्कारों का परिमार्जन करके मनुष्योचित संस्कारों को धारण करे। इस धारण को ही उन्होंने द्विजत्व के नाम से घोषित किया है। कोई भी व्यक्ति जन्म से द्विज नहीं होता, माता के गर्भ से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं। शुभ संस्कारों को धारण करने से वे द्विज बनते हैं। महर्षि अत्रि का वचन है- जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चते। जन्मजात पाशविक संस्कारों को ही यदि कोई मनुष्य धारण किये रहे तो उसे आहार, निद्रा, भय, मैथुन की वृत्तियों में ही उलझा रहना पड़ेगा। कंचन-कामिनी से अधिक ऊँची कोई महत्वाकांक्षा उसके मन में न उठ सकेगी। इस स्थिति से ऊंचा उठना प्रत्येक मनुष्यताभिमानी के लिए आवश्यक है। इस आवश्यकता को ही हमारे प्रातः स्मरणीय ऋषियों ने अपने शब्दों में “उपवीत धारण करने की आवश्यकता” बताया है।

किसी भी दृष्टि से विचार कीजिए, मनुष्य जीवन की महत्ता सब प्रकार असाधारण है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद नर देह मिलती है, यदि इसे व्यर्थ गंवा दिया जाये तो पुनः कीट पतंगों की चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए जाना पड़ता है। कहते हैं कि गर्भस्थ बालक जब रौख नरक की यातना से दुखी होकर भगवान से छुटकारे की याचना करता है तो इस शर्त पर छुटकारा मिलता है कि संसार में जाकर जीवन का सदुपयोग किया जायगा। कहते हैं कि मनुष्य की रचना परमात्मा ने इसी उद्देश्य से की कि वह मेरा सर्वश्रेष्ठ उत्तराधिकारी राजकुमार सिद्ध हो और ऐसे कार्य करे जो मेरी महिमा प्रकट करते हों। कहते हैं कि आत्मा का सर्वश्रेष्ठ विकास मानव प्राणी में होता है, इसलिए उसका आचरण ऐसा होना चाहिए जिससे ईश्वर अंश-जीव-की महानता प्रकट हो। कहते हैं कि एक बार जन्म लेने के पश्चात् कयामत की प्रतीक्षा तक इंसान की रूह को न्याय के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है, फिर कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए दोजख-जन्नत में जाना पड़ता है, इसके पश्चात् तब कहीं पुनर्जन्म होता है। इसलिए इतने दुर्लभ जीवन का ऐसा उपयोग होना चाहिए जिसे सर्वोत्तम कहा जा सके। कहते हैं कि शरीर मर जाता है पर यश अमर रहता है, इसलिए जो व्यक्ति संसार में चिरकाल तक जीना चाहता है या अमर रहना चाहता है उसे चाहिए कि अपने यश को अमर कर जाय। वैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर का एक-एक पुर्जा इतना बहुमूल्य है कि उसकी तुलना का कृत्रिम यंत्र करोड़ों रुपये खर्च करने पर भी नहीं बन सकता। और भी न जाने लोग क्या-क्या कहते हैं। दार्शनिकों के, धर्माचार्यों के, मनुष्य जीवन के बारे में अनेक दृष्टिकोण हैं पर उन सभी दृष्टिकोणों का एक ही फलितार्थ निकलता है कि मनुष्य जीवन ऐसी चीज नहीं कि इसे यों ही ज्यों-त्यों करके काट डाला जाय। इसका ऐसा अच्छा उपयोग होना चाहिए जिससे अपने लिए और दूसरों के लिए सुख शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो।

हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को अपनी दूर दृष्टि से, अपने योग बल से, पहले ही भली प्रकार समझ लिया था। उनने चिरकालीन विचार का गम्भीर परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला था कि-जन्म से मनुष्य भी अन्य पशु पक्षियों के समान शिश्नोदरपरायण होता है, पेट भरने और क्रीडा करने की ही इच्छाएं उसे प्रधान रूप से सताती हैं, यदि कोई विशेष प्रयत्न करके उसे ऊंचा न उठाया जाय तो वह चाहे कितना ही चतुर क्यों न कहलाये, पाशविक वृत्तियों के आधार पर ही जीवन व्यतीत करेगा। चूँकि इस प्रकार की जीवनचर्या अत्यंत ही तुच्छ और अदूरदर्शितापूर्ण है इसलिए यही कल्याणकर है कि मनुष्यों को इस निम्न धरातल से ऊंचा उठकर उस भूमिका में अपना स्थान बनाना चाहिए जो उच्च है, आदर्शपूर्ण है, धर्ममयी है और अनेक सत्परिणामों को उत्पन्न करने वाली है। चूँकि यह स्थिति जन्मजात पशुवृत्तियों की क्रियाशैली से बहुत भिन्न है, दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है, इसलिए इस एक स्थिति से दूसरी स्थिति में पदार्पण करने की परिवर्तन पद्धति को उपनयन कहा गया है।

देखने में यज्ञोपवीत कुछ लड़ों का एक सूत्र मात्र है जो दाहिने कंधे पर पड़ा रहता है। इसमें स्थूल रूप से कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। बाजार में दो-दो, चार-चार पैसे के जनेऊ बिकते हैं। स्थूल दृष्टि से यही उसकी कीमत है। तथा मोटे तौर से वह इस बात की पहचान है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों में से किसी वर्ण में इस जनेऊ पहनने वाले का जन्म हुआ है। पर वस्तुतः केवल मात्र इतना ही प्रयोजन उसका नहीं है। उसके पीछे एक जीवित जाग्रत दर्शन-शास्त्र छिपा पड़ा है। जो मानव-जीवन का उत्तम रीति से गठन, निर्माण और विकास कराता हुआ उस स्थान तक ले पहुँचता है जो जीवधारी का चरम लक्ष्य है।

स्थूल दृष्टि से देखने में कई वस्तुएं बहुत ही साधारण प्रतीत होती हैं, पर उनका सूक्ष्म महत्व अत्यन्त ही महत्वपूर्ण होता है, पुस्तकें स्थूल दृष्टि में देखने में छपे हुए कागजों का एक बंडल मात्र हैं जो रद्दी में बेचने पर दो-चार पैसे की ठहरती हैं पर उस पुस्तक में जो ज्ञान भरा हुआ है वह इतना मूल्यवान है कि उसके आधार पर मनुष्य कुछ से कुछ बन जाता है। “विक्टोरिया क्रॉस” जो अंग्रेजी सरकार की ओर से बहादुरी का प्रतिष्ठित पदक दिया जाता था वह लोहे का बना होता था और उसकी बाजारू कीमत मुश्किल से एकाध रुपया होगी पर जो उसे प्राप्त कर लेता था वह अपने आपको धन्य समझता था। परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर जो प्रमाण पत्र मिलते हैं उनके कागज का मूल्य एक दो पैसा ही होगा पर वह कागज कितना मूल्यवान है इसको वह परीक्षोत्तीर्ण छात्र ही जानता है। सरकारी कर्मचारियों के पद की पहचान के लिए धातु के बने अक्षर मिलते हैं जो कंधे या सीने पर कपड़ों में लगा लिए जाते हैं। यह धातु के अक्षर बाजारू कीमत से दो-चार आने के ही हो सकते हैं पर वे कर्मचारी जानते हैं कि उन्हें लगा लेने और उतार देने पर उनको जनता कितने अन्तर से पहचानती है। यज्ञोपवीत भी एक ऐसा ही प्रतीक है जो बाजारू कीमत से भले ही दो-चार पैसे का हो पर उसके पीछे एक महान तत्वज्ञान जुड़ा हुआ है। इसलिए ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि जनेऊ पहनना कंधे पर एक डोरा लटका लेना है, वरन् इस प्रकार सोचना चाहिए कि मनुष्य की दैवी जिम्मेदारियों का एक प्रतीक हमारे कंधे पर अवस्थित है।

पत्थर की प्रतिमा को मध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी, अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं। उस मूर्ति को देखकर हमारी अन्तः चेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है। यद्यपि इस प्रकार की प्रभु पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उद्रेक और संचार विशेष रूप से हमारे अंतःकरण में करती है। यों कोई चाहे तो चाहे जब, चाहे जहाँ, भगवान को स्मरण कर सकता है, इसमें कोई रोकटोक नहीं। पर मन्दिर से जाकर प्रभु प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है वह बिना मंदिर में जाये, चाहे जब कठिनता से ही प्राप्त होगा। गंगा तट पर बैठकर जो पवित्र भावनाएं उत्पन्न होती हैं वे हर स्थान पर मुश्किल से ही हो सकती हैं। इसी प्रकार यद्यपि बिना यज्ञोपवीत धारण किये हुए भी दैवी भावनाएं कोई मनुष्य बेरोक टोक अपने मन में उत्पन्न कर सकता है, पर इस परम पवित्र दिव्य भावना संपन्न सूत्र को माध्यम बनाकर, हर समय कंधे पर धारण किए रह कर, जितना अपने उत्तरदायित्व को स्मरण रखना सुगम है, उतना उसे बिना धारण किए सुगम नहीं। इसी दृष्टि से हमारे आचार्यों ने प्रत्येक भारतीय धर्मावलम्बी को यह आदेश किया था कि वह द्विजत्व की जिम्मेदारी का बोझ अपने कंधे पर अनुभव करे और जिस प्रकार किसी बात को याद रखने के लिए कपड़े में गाँठ लगा कर स्मरण रखने का माध्यम नियुक्त कर लेते हैं, उसी प्रकार कंधे पर यज्ञोपवीत धारण करके सदा इस बात का स्मरण रखें कि हमने शपथपूर्वक दिव्यत्व की, द्विजत्व की, जिम्मेदारी को कंधे पर धारण किया हुआ है।

यह पूछा जाता है-”कि मन में कोई बात हो तो उसी से सब कुछ हो सकता है, इसके लिए बाह्य चिह्न धारण करने की क्या आवश्यकता? जब मन में द्विजत्व ग्रहण करने के भाव मौजूद हों तो उनका होना ही पर्याप्त है फिर यज्ञोपवीत क्यों पहनें? और यदि मन में उस प्रकार की भावना नहीं है तो जनेऊ पहनने से भी कुछ लाभ नहीं?”

मोटे तौर से यह तर्क ठीक प्रतीत होता है, परन्तु जिन्होंने मनुष्य की प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन किया है वे जानते हैं कि इस तर्क में कितना कम तथ्य है। बुराई की ओर, अधर्म की ओर, पाशविक माँगों के भोगने की ओर, मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है। इस ओर मन अपने आप चलता है, पर उसे त्याग के, संयम के, धर्म के ,मार्ग पर ले चलने के लिए बड़े-बड़े कष्टसाध्य प्रयत्न करने पड़ते हैं। पानी को बहाया जाय तो वह जिधर नीची भूमि होगी बिना किसी प्रयत्न के अपने आप अपना रास्ता बनाता हुआ बहेगा। निचाई जितनी अधिक होगी उतना ही पानी का बहाव तेज होता जायगा। परन्तु यदि पानी को ऊपर चढ़ाना है तो यह कार्य अपने आप नहीं हो सकता, इसके लिए तरह-तरह के साधन जुटाने पड़ेंगे। नल, पम्प, टंकी आदि का कोई माध्यम लगा कर उसके पीछे ऐसी शक्ति का सहयोग करना पड़ता है जिसके दबाव से पानी ऊपर चढ़े। दबाव देने वाली शक्ति तथा पानी को ऊपर ले जाने वाले साधन यदि अच्छे हुए तो वह तेजी से और अधिक मात्रा में ऊपर चढ़ता है, यदि यह साधन निर्बल हुए तो पानी के चढ़ने की गति भी मंद हो जायगी। यही बात जीवन को उच्च मार्ग में लगाने के संबंध में है। यदि धर्म-मार्ग में, सिद्धान्तमय उच्च पथ में प्रगति करनी है तो उसके लिए ऐसे ही प्रयत्न करने पड़ते हैं जैसे कि पानी को ऊपर चढ़ाने के लिए करने होते हैं। सोलह संस्कार, नाना प्रकार के धार्मिक कर्म-काण्ड, व्रत, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान, तीर्थ-यात्रा, दान, पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही प्रयोजन हैं जिनके द्वारा मन को प्रभावित, अभ्यस्त और संस्कृत बनाकर दिव्यत्व की ओर-द्विजत्व की ओर-बढ़ाया जाता है। इन सब का उद्देश्य केवल मात्र इतना ही है कि मन, पाशविक वृत्तियों से मुड़कर दिव्यत्व की ओर अग्रसर हो। यदि ऐसा करना अपने आप ही, सरलतापूर्वक हुआ होता तो यज्ञोपवीत को व्यर्थ बताने वाले तर्क को स्वीकार करने में किसी को कुछ आपत्ति न होती। उस दशा में यह पृथ्वी ब्रह्म लोक होती ओर वैसा समय सतयुग कहा जाता। पर आज तो वैसा नहीं है। हमारे मनों की कुटिलता इतनी बढ़ी हुई है कि आध्यात्मिक साधन करने वाले भी बार-बार पथ भ्रष्ट हो जाते हैं तब ऐसी आशा रखना कहाँ तक उचित है कि अपने आप ही सब कुछ ठीक हो जायेगा।

यज्ञोपवीत धारण करना इसलिए आवश्यक है कि उससे एक प्रेरणा नियमित रूप से मिलती है। जिनके जिम्मे संसार के बड़े-बड़े कार्य हैं, जिनका जीवन व्यवस्थित है वे सबेरे ही अपना कार्यक्रम बनाकर मेज के सामने लटका लेते हैं और उस तख्ती पर बार-बार निगाह डाल कर अपने कार्यक्रम को यथोचित बनाते रहते हैं। यदि वह याद दिलाने वाली तख्ती न हो तो उनके कार्यक्रम में गड़बड़ पड़ सकती है यद्यपि उस तख्ती का स्वतः कोई बड़ा मूल्य नहीं है पर उसके आधार पर काम करने वाले का अमूल्य समय व्यवस्थित रहता है इसलिए उसका लाभ असाधारण महत्वपूर्ण है और उस महान लाभ का श्रेय उस तख्ती को कम नहीं है। जनेऊ ऐसी ही तख्ती है जो हमारे जीवनोद्देश्य और जीवन क्रम को व्यवस्थित रखने की याद हर घड़ी दिलाती रहती है।

जिन उच्च भावनाओं के साथ, वेदमंत्र के माध्यम से, अग्नि और देवताओं की साक्षी में यज्ञोपवीत धारण किया जाता है उससे मनुष्य के सुप्त मानस पर एक विशेष छाप पड़ती है। “यह सूत्र यज्ञमय एवं अत्यन्त पवित्र है। इसके धारण करने से मेरा शरीर पवित्र है, इसलिए इसे सब प्रकार की अपवित्रताओं से बचाना चाहिए। शारीरिक और मानसिक गंदगियों से इस दैवी पवित्रता की रक्षा की जानी चाहिए” यह भावना उस व्यक्ति के मन में उठनी ही चाहिए जो जनेऊ धारण करता है। जहाँ इस प्रकार की सात्विक आकाँक्षा होगी वहाँ दैवी शक्तियाँ उसके संकल्प को दूर करने में सहायक होंगी, उसे प्रेरणा और साहस देंगी जहाँ वह फिसलेगा उसे रोकेंगी और यदि गिरेगा भी तो उसे फिर उठावेंगी। इस प्रकार यज्ञ की प्रतिमा-यज्ञोपवीत, धारण करने वाला जब यह समझता रहेगा कि मैंने अपने कंधे और छाती पर यज्ञ भगवान को सुसज्जित कर रखा है तो निश्चित रूप से वह यज्ञमय जीवन व्यतीत करने की आकाँक्षा करेगा। इस प्रकार की आकाँक्षा चाहे कितनी ही मंद क्यों न हो, प्रभु के प्रेरक आशीर्वाद के समय मनुष्य के लिए सदा कल्याणकारी ही होती है और इससे दिन व दिन सन्मार्ग में-कल्याण पथ-में ही प्रगति होती है। यह प्रगति चूँकि ईश्वरीय प्रगति है इसलिए इसके द्वारा प्राणी सब प्रकार की सुख शान्ति का अधिकारी बनता जाता है।

श्रेष्ठता का आचरण पहन लेना, अपने आपको ऐसे पवित्र बंधनों में बाँध लेना है जिनके कारण पतन के गर्त में गिरते-गिरते मनुष्य अनेक बार बच जाता है। बाह्य वेष को देखकर लोग किसी व्यक्ति के बारे में अपना मत बनाते हैं, लोक मत की दृष्टि में कोई व्यक्ति यदि अच्छा बन गया है तो उसे अपनी प्रतिष्ठा का खयाल रहता है। मन विचलित होकर जब कुमार्गगामी होने को तैयार हो जाता है तब लोक लाज एक ऐसा बन्धन, सिद्ध होती है जो उसे गिरते-गिरते बचा लेती है। जिस व्यक्ति ने ब्राह्मण या साधु का वेष बना रखा है, तिलक, जनेऊ माला, कमंडल आदि धारण कर रखे हैं वह सबके सामने निर्भीकतापूर्वक मद्य माँस का सेवन, जुआ, चोरी, व्यभिचार आदि कुकर्म करने में समर्थ न हो सकेगा। करेगा तो बहुत डरता-डरता, छिप कर, अल्प मात्रा में। पर जिन्होंने अपने को प्रत्यक्ष रूप से मद्य-माँस विक्रेता तथा पाप व्यवसायी घोषित कर रखा है उनको इन सब बातों में तनिक भी झिझक नहीं होती, वह इन कर्मों को अधिक मात्रा में करना अपनी अधिक बहादुरी समझते हैं। रामायण में पतिव्रता होने का एक कारण लोक-लाज को भी बताया है। असंख्यों स्त्री-पुरुष मानसिक व्यभिचार में लीन रहते हैं पर लोकलाज वश वे कुमार्ग गामी होने से बच जाते हैं। यज्ञोपवीत श्रेष्ठता का, द्विजत्व का, आदर्शवादी होने का प्रतीक है। यह एक साइनबोर्ड है जो घोषित करता है कि इस जनेऊ पहनने वाले ने कर्त्तव्यमय, धर्ममय जीवन बिताने की प्रतिज्ञा ली हुई है। जो इस प्रकार का साइनबोर्ड कंधे पर धारण किये हुए है उसे अपने मार्ग से विचलित होते हुए झिझक लगेगी, सोचेगा-दुनिया मुझको क्या कहेगी इस प्रकार की लोकलाज बहुत हद तक उसे कुमार्गगामी होने से रोकेगी। वह भूल या पाप करेगा भी तो झिझकते हुए कम मात्रा में करेगा। उतना नहीं कर सकेगा जितना सर्वतन्त्र स्वतंत्र होने पर निर्भय और निर्लज्ज मनुष्य निरंकुशतापूर्वक कुकर्म किया करते हैं।

कई व्यक्ति कहते सुने जाते हैं कि हम आदर्श जीवन, द्विजत्व ग्रहण तो करना चाहते हैं पर इस समय तक हम द्विज बन नहीं सके हैं, इसलिए हम द्विजत्व के प्रतीक यज्ञोपवीत को धारण क्यों करें? यह आशंका भी उचित नहीं, क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ द्विजत्व में प्रवेश करना, आदर्श जीवन व्यतीत करने का व्रत लेन, दिव्यता में प्रवेश करना है। इसका अर्थ यह नहीं कि जिस दिन व्रत लिया जाय उसी दिन वह साधना पूर्ण भी हो जानी चाहिए। इस संसार में सभी प्राणी अपूर्ण और दोष-युक्त हैं। उन दोषों और अपूर्णताओं के कारण ही तो उन्हें शरीर धारण करना पड़ रहा है। जिस दिन वह अपूर्णता दूर हो जायगी, उस दिन शरीर धारण करने की आवश्यकता ही न रहेगी। कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो किसी न किसी अंश में अपूर्ण एवं दोषयुक्त है। फिर क्या हम यह कहें कि-जब सारा संसार ही पापी है तो हमारे अकेले धर्मात्मा बनने से क्या लाभ?

हमें इस प्रकार विचार करना चाहिए कि श्रेष्ठता की पाठशाला में प्रवेश करना, द्विजत्व का व्रत लेना ही यज्ञोपवीत धारण करना है। पाठशाला में प्रवेश करने के दिन “पट्टी पूजा” होती है, इसका अर्थ है कि अब उस बालक की नियमित शिक्षा आरम्भ हो गई। विद्या प्राप्त करने का उसने व्रत ले लिया है। यदि कोई विद्यार्थी कहे कि- सरस्वती पूजा का अधिकार तो उसे है जो सरस्वतीवान् हो, पूर्ण विद्वान हो, हम तो अभी दो-चार अक्षर ही जानते हैं फिर सरस्वती पूजा क्यों करें? तो उसका यह प्रश्न असंगत है क्योंकि वह सरस्वती पूजा का अर्थ यह समझा है कि जो पूर्ण सरस्वतीवान् हो जाय उसे ही पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार तो संसार के किसी भी काम को कोई भी व्यक्ति करने का अधिकारी नहीं है। क्योंकि चाहे वह कितना ही अधिक क्यों न जानता हो तो भी किसी न किसी अंश में वह अनजान अवश्य होगा। ऐसा तो कोई भी वकील, डॉक्टर, पंडित, शिल्पकार, गायक तथा अध्यापक न मिलेगा। तो क्या उनके द्वारा किये जाने वाले सब काम रुके ही पड़े रहेंगे?

व्रत लेने का अर्थ ही यह है कि- “अभी यह नहीं किया जा सका था-आगे यह करेंगे।” कोई व्रत लेता है कि मैं नियमित रूप से व्यायाम किया करूंगा, इसका अर्थ है कि वह अब तक ऐसा नहीं करता रहा है, आगे करेगा। जो व्यक्ति सदा से ही नियमित व्यायाम करता है, उसके लिए तो वह एक साधारण, स्वाभाविक दैनिक क्रिया है उसका व्रत लेने की उसे क्या आवश्यकता? इसी प्रकार जो व्यक्ति द्विजत्व में पारंगत नहीं हो सके हैं उन्हें ही यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है। जब उनका द्विजत्व पुष्ट, परिपक्व और पूर्ण हो जायगा तब फिर उन्हें इसकी कुछ भी आवश्यकता न रहेगी। संन्यास आश्रम में जनेऊ का त्याग कर दिया जाता है, क्योंकि उस स्थिति में पहुँचे हुए व्यक्ति के लिए वह निष्प्रयोजन है। जिस कार्य के लिए उसे धारण किया गया था वह पूरा हो चुका तो व्यर्थ का बोझ क्यों लादा जाय? जो लोग शंका करते हैं कि हम द्विजत्व नहीं हैं, इसलिए हम जनेऊ पहनने का साहस क्यों करें? उन्हें समझना चाहिए कि-”उन्हें इसी कारण यज्ञोपवीत अवश्य पहनना चाहिए क्योंकि उनमें द्विजत्व का अभी पूर्ण विकास नहीं हो पाया है। इस विकास के लिए ही तो यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है।” क्या कोई पहलवानी का विद्यार्थी ऐसी शंका करता है कि मैं पूर्ण पहलवान नहीं हूँ, इसलिए अखाड़े में क्यों उतरूं? मुद्गर क्यों उठाऊँ? उसे अखाड़े में उतरने और मुद्गर उठाने की इसीलिए आवश्यकता है कि चूँकि वह अभी पूर्ण पहलवान नहीं हो पाया। जब तक पूर्ण पहलवान हो जाएगा तो उसे इन अभ्यासों से छुटकारा भी मिल सकता है। यही बात उपवीत धारण के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

यज्ञोपवीत धारण करना इस बात का प्रतीक नहीं है कि इस व्यक्ति का पूर्ण आध्यात्मिक विकास हो गया। वरन् इस बात का प्रतीक है कि-इस व्यक्ति ने आदर्श जीवन, धर्ममय जीवन व्यतीत करने का संकल्प किया है और यह अपनी परिस्थिति के अनुसार यथासाध्य अधिक से अधिक प्रयत्न करता हुआ लक्ष्य तक पहुँचने की ईमानदारी के साथ चेष्टा करेगा। ऐसी दशा में यह झिझक करना व्यर्थ है कि हम इस योग्य नहीं कि उपवीत धारण करें। इस अयोग्यता का निवारण उसके धारण करने से ही होगा। जो यह कहता है कि मैं तैर नहीं सकता इसलिए पानी में न घुसूँगा। उसे जानना चाहिए कि पानी में घुसे बिना तैरना नहीं आ सकता। जो कहता है कि-मैं घोड़े पर चढ़ना नहीं जानता इसलिए नहीं चढूँगा, उसे जानना चाहिए कि घोड़े की पीठ पर बैठे बिना वह घुड़सवार नहीं बन सकता। यह ठीक है कि आरम्भ में काफी गलतियाँ भी होती हैं, पर उनका संशोधन तो धीरे-धीरे अभ्यास करने से उस कार्य में लगने से ही तो होगा। ऐसा कोई कायदा इस संसार में नहीं है कि आप किसी कार्य में पूर्ण पारंगत हो जावें तब उस कार्य को आरंभ करें। कार्य को आरंभ करने से ही उसमें कुशलता प्राप्त होती है। जनेऊ धारण करके, जब और द्विजत्व प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ेंगे तभी तो आप धीरे-धीरे इस मंजिल को पार करते हुए एक दिन सच्चे अर्थों में द्विज कहलाने योग्य बनेंगे, तभी तो आपको पूर्ण द्विजत्व की प्राप्ति होगी।

भारतीय धर्म के आचार्यों की आन्तरिक भावना रही है कि भारतमाता के सुपुत्र पाशविक जीवन से, आहार, निद्रा, भय, मैथुन से ऊँचे उठकर ऐसा सैद्धान्तिक जीवन जियें जो उनके गौरव के उपयुक्त हो, जो व्यक्ति और समष्टि में सुख शान्ति का आविर्भाव करता हो, जो आत्मा को परमात्मा तक पहुँचा कर जीवन लक्ष्य की पूर्ति करता हो। इस पशुत्व से देवत्व में परिणित होने की प्रक्रिया को उन्होंने प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी के लिए आवश्यक बताया है और आदेश किया है कि-जन्म से शूद्र उत्पन्न होने वाले, ‘हे मनुष्यों! तुम संस्कार से द्विज बनो।’ पशु योनि से मनुष्य योनि में आना एक बहुत बड़ा सौभाग्य है, पर इससे भी बड़ा सौभाग्य यह है कि अपनी पशु मनोभूमि को देव मनोभूमि में बदल दिया जाय, तभी सच्चे अर्थों में मनुष्य योनि का मिलना कहा जायगा। इस प्रकार का जन्म धर्म द्वारा होता है, संस्कार द्वारा होता है, आदर्श जीवन का व्रत धारण करने से होता है। यही व्रत धारण ‘द्विज’ बनना है यहाँ यज्ञोपवीत धारण करना है। जो इस मार्ग को नहीं अपनाता, जिसकी इस ओर रुचि नहीं है, वह पशु-तुल्य है, ऐसे इन्द्रियपरायण, लोभ-मोह में ग्रस्त, अज्ञानान्धकार में भटकने वाले प्राणियों को हेय दृष्टि से देखा गया है। जिनको आदर्शों से प्रेम नहीं, उनके लिए वे सभी धर्माधिकार, सामाजिक अधिकार, नागरिक अधिकार हिन्दू धर्म ने छीन लिए हैं और उन्हें अस्पर्श्य अन्त्यज कहकर तिरस्कृत किया है। यह अस्पर्श्य अन्त्यज किसी वंश विशेष में उत्पन्न होने के कारण नहीं वरन् कुबुद्धि के कारण होते हैं। जन्म का ब्राह्मण भी यदि कुबुद्धिग्रस्त है, पशुताप्रिय है तो वह भी इसी बहिष्कृत श्रेणी में आवेगा। इसके विपरीत यदि किसी छोटी जाति में उत्पन्न हुआ व्यक्ति उस आदर्शों से प्रभावित है, उस मार्ग पर चलने का व्रत लेता है तो वह द्विज के अतिरिक्त और कौन होगा?

मनुष्यों! अपने साधारण जन्म से सन्तुष्ट न रहो, हमारा धर्म हमें आदेश करता है कि श्रेष्ठ जीवन जियो, देवत्व को प्राप्त करो, नर देह को सफल बनाओ। प्रतिज्ञा करो कि हम उस मार्ग का अवलम्बन करेंगे जो कल्याणकारी है। संकल्प करो कि हम पशुता की गंदगी का परित्याग करके मनुष्यता की सुरभित सुगंध का आस्वादन करेंगे। निश्चय करो कि हमारा लक्ष्य सत्य, शिव और सुन्दर होगा। इन भावों को, अपने द्विजत्व को, पुष्ट और विकसित करने के लिए आपको यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।

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