भगवान प्रेम स्वरूप हैं।

May 1949

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(पं.चुन्नीलाल शर्मा ओकास, जबलपुर)

कुछ लोगों की धारणा है कि भगवान ही दंड दिया करते हैं परन्तु वास्तव में भगवान किसी को दंड नहीं देते। मनुष्य स्वयं ही कर्मवश अपने आपको दंड देता है। जब कभी यह कोई बुरा कार्य अपनी इन्द्रियों के वशीभूत होकर बिना विचारे किया करता है तब उसे उसका फल मिला करता है। यदि कार्य बुरा होता है तो फल भी दंड रूप में मिलता है और यदि कर्म अच्छा होता है तो फल यश रूप में प्राप्त होता है।

भगवान प्रेम स्वरूप है। सारा संसार उन प्रभु की रचित माया ही है। जब भगवान प्रेम स्वरूप हैं तब दंड कैसे दे सकते हैं? भगवान कदापि दंड नहीं देते। विश्व-कल्याण के लिए विश्व का शासन कुछ सनातन नियमों द्वारा होता है जिन्हें हम धर्म का रूप देते हैं तथा धर्म के नाम से पुकारते हैं। धर्म किसे कहते हैं?-”जो धारण करे” यानी जिसके धारण करने से किसी वस्तु का अस्तित्व बना रहे वही धर्म है।

अग्नि का धर्म प्रकाश व उष्णता देना है। परन्तु यदि वह प्रकाश व उष्णता नहीं दे तो वह तो राख अथवा कोयले का ढेर मात्र ही रह सकता है क्योंकि वह अपने को छोड़ चुकी है। ठीक यही दशा मानव की है। वह भी धर्म रजु द्वारा बंधा रहता है। जब कभी वह अपना धर्म त्यागता है उसे अवश्य ही हानि उठानी पड़ती है और वह दंड विधान बन कर उसे आगाह करती है। मनुष्य मार्ग की मानवता का आधार धर्म ही है। जब जानबूझकर अथवा असावधानी वश सनातन नियमों का उल्लंघन किया जाता है। तब अवश्य ही दंड का भागी बनना पड़ता है। भगवान को व्यर्थ ही दोषी ठहराना अनुचित है।

भगवान कल्याणमय हैं तथा उनके नियम भी कल्याणमय हैं। जब उन नियमों का उचित प्रकार पालन नहीं किया जाता तब ही दंड चेतावनी के रूप में मिला करते हैं परन्तु मूर्खता व अज्ञानवश मनुष्य इतने पर भी नहीं संभलता और एक के बाद दूसरा नियम भी खंडित करता जाता है।

मनुष्य अपने आपको नहीं पहचान पाता है वास्तव में जो कुछ वह किया करता है उसी से कार्यानुसार दंड व यश का भागी बनता है। अब सब कुछ मनुष्य मात्र पर ही रह जाता है। यदि मनुष्य स्वतः को सुधार लेता है तो वह सबको सुधार सकता है परन्तु जब वह स्वतः नहीं सुधरेगा तो दूसरों को कैसे सुधार सकता है। नियमों का विधान पालन करने के लिए ही बनाया जाता है। जब उन विचारों का उल्लंघन किया जाता है तब मनुष्य अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाता है तब उसे उस अवस्था में दंड प्राप्त होता है।

यहाँ प्रधानता मनुष्य के कर्मों की ही है वह कर्मानुसार ही फल को प्राप्त होता है। भगवान सबसे प्रेम करते हैं। भगवान की मान्यता ही मानवता का आधार है। चाहे कितनी ही बाधाएं सामने क्यों न खड़ी हों, यदि मनुष्य प्रेमपूर्वक उनका अभिनन्दन कर, प्रेम स्वरूप प्रभु का मंगल विधान समझ अपने पथ पर दृढ़ होकर डटा रहता है तो उसका विकास सदैव सही मार्ग से ही होता है। मनुष्य के लिए कर्त्तव्य की जो सीमा निर्धारित की गई है उसके पालन के लिए न तो कोई विशेष प्रयत्न ही आवश्यक है और न कोई साधना की, सीधा पथ है-उस प्रभु का आधार।

सब कठिनाइयों का प्रेमपूर्वक स्वागत करें तो आप उन्हें अवश्य जीत सकेंगे। भारी से भारी विपत्ति क्यों न हो हमें उसका प्रेमपूर्वक अभिनन्दन करना चाहिए। भगवान के प्रत्येक विधान में हमारा मंगल भरा है। आज जो विपत्ति व बाधाएं हमारे सामने हैं उनसे मुँह मोड़ने व भागने की आवश्यकता नहीं है। उनका आविर्भाव तो हमारे कल्याण के लिए ही हुआ है। हो सकता है हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के कारण उपलक्ष के ही वे हमें प्राप्त हो रही हों। हमें कब और किस समय कौन सी वस्तु की आवश्यकता होती है यह वे अंतर्यामी परम प्रभु स्वतः जानते हैं।

परम पिता हमें कितना अपार स्नेह देते हैं यदि वह रहस्य हम समझ जाए तो सुख और दुख, शाँति अशाँति दोनों ही हमारे लिए समान हो जाएंगे। तथा यश व दंड का भेद ही न रह जायगा। अपने परम शुभ चिंतक मंगलमय भगवान के प्रत्येक विधान में हमें सदा प्रसन्न रहना चाहिए तथा सबसे प्रेम का व्यवहार कर प्रेम स्वरूप प्रभु को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रेम ही परमात्मा है और परमात्मा ही प्रेम है।


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