अमृत-कण

May 1949

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गोपाल प्रसाद बंशी बेतिया)

आनन्द का वास्तविक स्वामी तो कर्त्तव्य पालन और त्याग ही है। यदि हम परमार्थ के लिए कुछ करते हैं अथवा किसी के लिए स्वयं हंसते-हंसते कष्ट झेलते हैं अथवा किसी दीन भिखारी को कुछ दे डालते हैं, तो हमारी आत्मा में कैसा मधुर, सुखकर, शान्त नाद सा होता है कितना आनन्द आता है तब। उस सुख के सम्मुख साँसारिक सुख किस खेत की मूली हो सकते हैं? इसे आत्मिक आनन्द कहते हैं। यही चिरस्थायी कल्याणकारी तथा सदैव सुखकर है।

ईश्वर प्रार्थना का अर्थ है-जगन्नियंता से अपने विकास की याचना। अपनी कमियों की पूर्ति की याचना। हम अनुभव करते हैं कि हमारे अन्दर कई दुर्बलताएँ हैं-कमियाँ हैं। हम अनुभव करते हैं कि उनकी पूर्ति सर्वथा हमारे बस की बात नहीं है। कहीं न कहीं से उनकी पूर्ति होती हुई हम देखते हैं। उसी अवश्य शक्ति का नाम ईश्वर है।

मानव-चरित्र कितना रहस्यमय है। हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं हिचकते किन्तु जब दूसरों के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है तो हमारा खून खौलने लगता है।

मानव-जीवन अपनी समस्त कला, अपने समस्त वैभव और ऐश्वर्य के साथ अन्त में मृत्यु का आश्रित हो जाता है। मृत्यु जीवन की सबसे अज्ञात पहेली, सबसे अंतिम विजय है।

उद्यम, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम ये छः गुण जिस मनुष्य में हैं, वह सब कुछ पाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: