एक और अनेक

May 1949

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(श्री बलदेव सहाय, दिल्ली)

संसार में सर्वत्र भिन्नता दिखाई देती है। कोई भी दो वस्तुएं बिल्कुल एक सी नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, एक ही वस्तु जैसी कल थी वैसी आज नहीं है और जिस रूप में आज है उसमें कल नहीं रहेगी। फिर भी यह सारा दृश्य नानात्व एक अदृश्य एकत्व में पिरोया हुआ है। भिन्नता में एकता है और उस ऐक्यभाव में आनन्द हो। मनुष्य नाना उपायों से, नाना युक्तियों से, नाना चतुराइयों से नानात्व में एकत्व को पकड़ कर आनन्द का उपभोग करना चाहता है। उसकी सारी क्रियाओं में परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष, सूक्ष्म अथवा स्थूल रूप से यही प्रिय चेष्टा ओत-प्रोत है।

संगीत को लीजिये। विभिन्न खाद्य यन्त्रों की अनेकानेक ध्वनियों में आकाश पाताल का अन्तर होता है। कंसर्ट (सम्मिलित वाद्य) में सब अपना पृथक-पृथक अस्तित्व खो देते हैं, वहाँ यसराज की उमड़ती भीड़, सितार की भीनी झंकार, सरोद की तरल-तरंग और तबले की सौम्य समताल-सब घुल मिलकर एक जान, एक रस हो एक स्वर में गूँज उठते हैं। कितनी विचित्र ध्वनियाँ हैं और कैसे उन में होती है विलक्षण एकता। यह एकता ही कलाकार का आदर्श है और उसी एकता में आनन्द हिलोरें ले रहा है। सुनने वाले उसी में अपने-अपने व्यष्टि स्वरूप को डुबोकर मन्त्र-मुग्ध एवं चित्र लिखित से अपूर्व आनन्द का पान करते हैं।

साहित्य में मनुष्य का प्रयत्न और भी गहन होता है। साहित्य की सामग्री है मानव-हृदय और मानव चरित्र-दोनों ही अत्यन्त विचित्र एवं विभिन्न। कोई भी दो हृदय अथवा कोई भी दो चरित्र एक से नहीं होते। पर साहित्य एक के भाव को सब का, इस काल की वस्तु को चिरकाल का और नश्वर को अमर बना देता है। साहित्यकार समस्त हृदयों को मथकर एक ऐसी वाणी की सृष्टि करता है, ऐसे सजीव चित्र अंकित करता है जिसको पढ़कर सब जगह के और सब काल के रसिकगण एक स्वर से कह उठते हैं- मैं भी ऐसा ही अनुभव करता हूँ, यह बिल्कुल मेरा ही भाव है मेरे ही दिल का नक्शा है। युग पर युग पड़ते चले जाते हैं, पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ ढलती चली जाती हैं पर वह साहित्य की वस्तु एक युग से दूसरे युग में एक हृदय से दूसरे हृदय में अनुभव होती हुई अपरिवर्तित रूप से प्रवाहित होती चली जाती है। वह सब समय की ओर सब हृदय की बात होती है। काल एवं स्थल के ऊपर होता है उसका साम्राज्य और आनन्दातिरेक से विभोर कर देना होता है उसका सरल सहज स्वभाव।

इसी तरह प्रेम के सम्बन्ध में सामान्य अनुभव की बात है कि साधारण सबकी प्राप्ति भी उसी समय होती है जब दो प्रेमी अपने-अपने पृथक अस्तित्व को खोकर आपस में अत्यन्त निश्छल एकता प्राप्त कर लेते हैं। वस्तुतः एक प्रेमी की साधना उस समय सफल होती है जब वह अपने प्रेमास्पद का आधार ले अपनी प्रेम भावना को एक से ऊपर उठाकर अनेक के व्यापक स्वरूप में व्यवहृत कर पाता है। जब वह सब में सर्वत्र अपने को उनमें इस प्रकार ढाल देता है कि द्वैत का भाव नहीं रहता। संसार में विभिन्न रूप रंग होते हुये भी पावन प्रेमी रूप में कुरूप में, पुरुष में स्त्री में, पुष्पों में लताओं में, वृक्षों में कुंडों में, अपने प्रिय और केवल अपने प्रिय का ही अभेद दर्शन करता है। अंतर्जगत से लेकर बाह्य-जगत तक उसको केवल उसी का जलवा नजर आता है। विशुद्ध एकरस आनन्द का उद्रेक उसी समय होता है।

अतएव द्वैत को अद्वैत में लय करने से आनन्द की सृष्टि होती है। संगीत में भिन्न-2 ध्वनियों को चातुर्य एवं अभ्यास द्वारा एक में मिला दिया जाता है। वहाँ दो नहीं होते इसी में उसका गौरव है। साहित्यकार सब के भाव को अपना बनाकर फिर उसको सर्वसाधारण का बना देता है। उसके सार्वजनिक एवं कालातीत होने में उसकी कला है। प्रेमी अपने सौंदर्य मूर्ति के चरण युगल में अपने को न्यौछावर कर सारे संसार को ‘सिया-राम मय’ देखता है यहाँ तक कि स्वयं भी वही हो जाता है। ऐसा तदाकार एवं तादात्म्य ही प्रेमियों की मंजुल मंजिल का अन्तिम चरण है। संगीत अपने राग में, साहित्य अपनी पत्नियों में सौंदर्य अपने प्रेम में केवल नाना स्वरों से नाना युक्तियों से केवल एक ही संदेश दे रहा है-

विभिन्नता के अंतर्गत एक है।


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