आदर्श की उत्तमता

May 1949

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(साधु वेष में एक पथिक)

बाल्यावस्था वही उत्तम है जो निरर्थक क्रीड़ाओं एवं संग दोषवश व्यसन-वासनाओं की पूर्ति में ही भ्रष्ट न होकर विद्याध्ययन में सार्थक हो।

युवावस्था वही उत्तम है, जिसकी शक्ति से सद्गुणों का विकास हो, सद्ज्ञान का सुन्दर प्रकाश हो, सदाचरण की ही रक्षा हो, और धर्म पथ में चलते हुए सत्यानन्दघन प्रियतम की प्राप्ति ही लक्ष्य हो। अशुभ कर्मों की ओर प्रेरित हुई इन्द्रियों का दमन हो, दुर्विकारों का शमन हो तथा विषयों का दमन हो और शुभ कर्मों के लिए ही सदा तत्पर मन हो, जिसकी शक्ति से विषय-वासनाओं के पथ पर चंचल हुए मन का निरोध हो, स्वेच्छाचारिता का विरोध हो।

वृद्धावस्था वही उत्तम है जिसमें साँसारिक पदार्थों के प्रति मोह ममता का त्याग हो, केवल परमात्मा में ही अटल अनुराग हो, ऐहिक सुख-भोगों की तृष्णा पर क्रोध हो, बहिवृत्तियों का अवरोध हो और सत्या सत्य का यथार्थ बोध हो।

बलवान वही उत्तम है जो निर्बलों, असहायों की सहायता करने में शूर हो, जिससे आलस्य तथा भय सर्वथा दूर हो। संयम जिसके साथ में हो, इन्द्रिय रूपी घोड़ों की मन रूपी लगाम जिसके हाथ में हो, इसके साथ ही जो बुद्धिमान हो और निरभिमान हो।

धनवान् वही उत्तम है जो कृपण न होकर दानी हो, उदार हो, जिसके द्वारा धर्मपूर्वक न्याययुक्त व्यापार हो, जिसके द्वार पर अतिथि का समुचित सत्कार हो, दीन दुखियों का सदा उपकार हो, जिसके यहाँ विद्वानों एवं साधु-महात्माओं का सम्मान हो, जो स्वयं अति सरल और मतिमान् हो।

बुद्धिमान् वही उत्तम है, जिसमें अपने माने हुए ज्ञान से निराशा हो, यथार्थ सत्य को जानने की सच्ची जिज्ञासा हो, सद्गुरुदेव के प्रति पूर्ण निर्भरता हो और उन्हीं की आज्ञा पालन में सतत् तत्परता हो।

ज्ञानी वही उत्तम है जिसकी बुद्धि से प्रवृत्ति-पोषक अज्ञान दूर हो, निवृत्ति द्योतक भक्ति भरपूर हो, भव भ्रान्ति नष्ट हो, परम शान्ति स्थिर और स्पष्ट हो, जिसके जीवन में मुक्ति विद्यमान हो और परमानन्दमय परमात्मा की व्यापकता का सर्वत्र भान हो, जो क्रोध, अभिमान, माया आदि दुर्गुणों से रहित हो और धैर्य, क्षमा, सत्य-ध्यान और दया आदि सद्गुणों के सहित हो, जिसके समीप में शान्ति का वास हो, जिसके शब्दों से भ्रान्ति का नाश हो, जो पूर्ण त्यागी, वीतरागी हो और परमात्मा का ही अटल अनुरागी हो।

त्यागी वही उत्तम है, जिसका मन भोग-वासनाओं से सदा वियुक्त हो, जिसका अहं देहाभिमान से मुक्त हो। जिसमें किसी भी पदार्थ के प्रति अपनत्व न रहे, जो किसी को भी अपना न कहे, विचार की धारा में जिसकी आसक्ति ममता बह जाय, जो नित्य है, उसके सिवाय जहाँ अन्य कुछ भी न रह जाय।

प्रेमी वही उत्तम है जो आनन्दघन प्रियतम में सदा योगस्थ रहे और संसार प्रपंच से सदा तटस्थ रहे। जहाँ प्रेमास्पद का स्वभावतः सतत् ध्यान रहे, अपनी सुध-बुध में उन्हीं का गुणगान रहे और प्रत्येक दशा में “वही एक अपने हैं” केवल यही अभिमान रहे।


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