मिट्टी में अमृत मिला हुआ है।

February 1949

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क्षिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित यह अधम शरीरा॥

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच तत्व हैं जिनसे शरीर बनता है। इन पाँचों तत्वों में से जो ज्यादा स्थूल है वह पृथ्वी तत्व है। इस में शेष चारों तत्व मौजूद हैं।

कोई भी प्राणी तब तक स्वस्थ रहता है जब तक पाँचों तत्व अपने-अपने अनुपात से मौजूद रहते हैं, जब किसी में कमी पेशी होती है तो प्राणी में विकार आ जाते हैं, यह विकार ही रोग हैं।

यों तो बीमारी के कारण मानसिक भी होते हैं लेकिन मानसिक बीमारियों को भी प्राकृतिक उपचार ठीक कर देता है। प्राकृतिक उपचार में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, इन चार तत्वों का उपयोग किया जाता है। यों अन्न और औषधियाँ भी इन तत्वों से ही भरी पड़ी हैं।

प्राकृतिक उपचार में खान-पान के संयम और पथ्य की आवश्यकता तो होती ही है पर बाहरी उपचार भी आवश्यक होता है। बाहरी उपचार अन्दर के विकारों को निकालता है और खान-पान, आहार-विहार भीतर विकार को बढ़ने से रोकता है। उपचार की सबसे बड़ी विशेषता यही होनी चाहिए। यदि बाहर बीमारी निकलती रहे और भीतर बीमारी बढ़ती रहे तो इस प्रकार स्वस्थ होना कठिन है। उसी प्रकार भीतर बीमारी अच्छी होती जाय पर विकार नष्ट न हों ऐसे उपचार भी बेकार सिद्ध होते हैं। उपयोगिता तभी है जब बीमारी पैदा भी न हो और जो बीमारी हो वह दूर भी हो जाय। इसीलिए बाहरी उपचार और खान-पान, आचार-विचार इन दोनों पर ही स्वास्थ्य निर्भर रहता है।

तत्वों के उपचार में पृथ्वी तत्व का उपचार जहाँ आसान है वहाँ वह निरापद भी है। मिट्टी की चिकित्सा से कभी हानि होती ही नहीं और छोटे से छोटे बच्चे से लेकर वृद्ध व्यक्ति तक की चिकित्सा आसानी से की जा सकती है। ऐसा कोई रोग नहीं जिस पर मिट्टी का उपयोग न किया जा सके, फिर वह चाहे कैसा ही असाध्य क्यों न हो। मरणासन्न रोगी भी इसके उपचार से अच्छे होते देखे गये हैं।

मिट्टी के उपचार में अधिकतर चिकनी मिट्टी का उपयोग किया जाता है। साथ ही वह मिट्टी साफ जगह की होनी चाहिए और होनी चाहिए शुद्ध। यों अशुद्ध मिट्टी कोई विशेष हानि तो नहीं पहुँचाती पर देर लगा देती है इसलिए जहाँ तक साफ और गन्दगी से रहित मिट्टी मिल सके वहाँ तक अन्य किसी प्रकार की मिट्टी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

मिट्टी में किसी प्रकार के कंकड़, पत्थर न होने चाहिए, हों तो उन्हें निकाल देना चाहिए। मिट्टी को बारीक पीसकर, यदि सम्भव हो तो कपड़छन कर लेना चाहिए, पर न हो तब भी काम चल सकता है। पिसी हुई मिट्टी को पानी में भिगो देना चाहिए लेकिन इतना पानी नहीं डालना चाहिए जिससे वह पतली हो जाय। न बहुत गाढ़ी और न बहुत पतली-समभाव की मिट्टी लेकर रुग्ण स्थान पर उसका एक अंगुल मोटा लेप कर देना चाहिए। इसके बाद किसी साफ कपड़े को गीला करके, उसकी तह बनाकर उस जगह रख देना चाहिए, मिट्टी गिर न पड़े या स्थानान्तरित न हो या पुछ न जावे इसके लिए उस पर पट्टी बाँध देनी चाहिए। पट्टी बांधते समय इस बात का बराबर ध्यान रखना चाहिए कि गाँठ अधिक कड़ी न हो जाय जिसके कारण रक्त बहा नाड़ियों पर दबाव पड़े या वे कस जायं और न पट्टी इतनी ढीली ही हो जिससे मिट्टी गिर पड़े। पट्टी बाँधने का उद्देश्य इतना ही है कि मिट्टी अपने स्थान पर रह सके और अपना काम करती रहे।

जुकाम की अवस्था में गले पर, सिर दर्द में सिर पर या माथे पर, आँख दर्द पर आँख बन्द करके उसके पलकों पर, दाँत दर्द की अवस्था में जबड़े पर, गले की सूजन पर या खाँसी आदि में गले पर, छाती पर, कान के दर्द में कान के चारों ओर, पेट दर्द में पेट पर, गुर्दे के दर्द में गुर्दे में, अण्डवृद्धि में अण्डकोष पर, आतिशक में इन्द्रिय पर, कमर दर्द में कमर पर, ज्वर में समस्त शरीर पर, कब्ज, अफरा आँव आदि उदर रोग सम्बन्धी समस्त विकारों में उदर पर, मिट्टी का लेप करना चाहिए। जहरीले जानवर यदि काट खायें तथा साँप, बिच्छू, बर्र आदि के काटे जाने पर काटे हुए स्थान पर मिट्टी का लेप करना चाहिए। छाजन, खाज-खुजली की अवस्था में जहाँ जिस जगह व्याधि हो, मिट्टी का लेप करना चाहिए।

आमतौर से सारे विकार उदर के कारण ही हुआ करते हैं इसलिए प्रत्येक अवस्था में पेट के ऊपर मिट्टी की पट्टी अवश्य बाँधनी चाहिए। हैजे की अवस्था में जहाँ सारे शरीर पर मिट्टी थोपी जावे वहाँ वस्ति स्थान पर भी उसे थोपना चाहिए।

थोपी हुई मिट्टी गरम होना आरंभ होती है, उस समय वह अन्दर के विकारों को निकालने में लगी रहती है। इसलिए जैसे मिट्टी का लेप सूखने लगे उसे उतार कर फिर दूसरा लगा देना चाहिए। उतारी हुई मिट्टी को फिर दुबारा न लगाना चाहिए और न गरम की हुई मिट्टी ही लगाना चाहिए।

चकते मुंहासे आदि में भी मिट्टी का लेप, मिट्टी का उबटन अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाते हैं। हृदय रोग में भी इसे लोगों ने आजमाकर देखा है और उन्हें सफलता मिली है। लकवा की हालत में तो गड्ढा खोदकर सिर को ऊपर रखकर मनुष्य को उसमें दबा देना चाहिए। उससे वात बहा नाड़ियों में गति होना आरम्भ हो जाता है और लकवा दूर हो जाता है।

मिट्टी के उपचार करते समय खाने-पीने के संयम की बात आरंभ में कह दी गई है। मसाला, खटाई, मिठाई का परहेज तो अत्यन्त आवश्यक है। सात्विक और सुपाच्य भोजन तथा हरा शाक अपनी बीमारी की अवस्था में ही नहीं स्वस्थ अवस्था में भी खाते रहना चाहिए। असंयम और अपच तो स्वस्थ शरीर को भी बीमार बना देता है, इसलिए प्रकृति के अधीन रहने की अवस्था में सब बातें अत्यन्त प्राकृतिक होनी चाहिए।


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