क्या तुम स्वस्थ हो!

February 1949

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तुम्हारे मन में जो विचार उठते हैं, तुम्हारे जिन विचारों को बुद्धि का समर्थन प्राप्त हो जाता है, यदि तुम्हारा शरीर उन विचारों के अनुसार काम नहीं कर सकता तो समझ लो कि तुम स्वस्थ नहीं हो। इसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि जिस प्रकार के विचारों को प्रेरणा देती है परन्तु उस प्रकार के विचारों को तुम्हारा मन ग्रहण नहीं करता, यहाँ तक कि तुम्हारी बुद्धि और तुम्हारे मन में संघर्ष छिड़ा रहता है और तुम अपने मन के द्वारा बुद्धि को बारबार दबा डालने का प्रयत्न करते हो, यहाँ तक कि तुम उस पर हावी हो जाते हो, तब भी तुम स्वस्थ हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल शरीर के ही साथ नहीं है, मन के साथ भी है। तुम प्रायः कहा करते हो, आज हमारा मन ठीक नहीं है, दर्द होता है, बुखार आ गया है आदि बातें स्वास्थ्य के साथ शरीर और मन दोनों को ही संयुक्त करती है।

स्वास्थ्य शब्द बड़े गूढ़ार्थ वाला हैं। ‘स्व’ का प्रयोग हमेशा आत्मा के लिए आता है। आत्मा सम्पूर्ण है, सर्व शक्तिमान है और उसमें किसी प्रकार का अभाव नहीं हैं। क्या है जो उसके पास नहीं है, कौन सा ऐसा काम है जो उसके द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकता। यह संसार और संसार की सभी शक्तियाँ अकेले ‘स्व’ से ही तो प्रसूत हुई हैं। यही महान स्व इस पृथ्वी पर अवतरित हुए हैं और उन्होंने चौबीस तत्वों से अपने लिए इस पुरी की रचना की है। यह पुरी है शरीर। इसे देवता का मन्दिर कहते हैं, इस मन्दिर के देवता हैं-आत्म देव। यही आपका स्व है। इस शरीर रूपी मंदिर का निर्माण हुआ हैं पाँच तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) पंच तन्मात्रा (गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द), पंच ज्ञानेन्द्रिय और पंच कर्मेन्द्रिय तथा चार अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) इन चौबीस तत्वों से। जब तक ये चौबीसों तत्व आत्मशक्ति का पूर्ण प्रकाश करते रहते हैं, उसकी शक्ति को मूर्छित नहीं होने देते बल्कि वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ जब तक प्रतिष्ठित रहती है तभी तक प्राणी स्वस्थ रहता है। इस स्व की स्थिति का यही अर्थ है। पर जैसे-जैसे स्व की आज्ञा का भंग होना आरंभ हो जाता है, घर में कूड़ा-कचरा या विकार आना आरंभ हो जाता है वैसे-वैसे ही स्व की स्थिति डांवाडोल हो जाती है और अन्त में यह बात यहाँ तक पहुँच जाती है कि स्वर्ण देव इस मन्दिर को अपने लिए जब अयोग्य समझने लगते हैं तब इसका परित्याग कर देते हैं और अपने लिए फिर दूसरा चोला तैयार कर लेते हैं।

शरीर इस ‘स्व’ देव की स्थिति का साधन है, आधार है। इसी आधार को लेकर इन्द्रियाँ और उनके विषयों से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, स्वदेव की उपासना करते हैं अथवा स्वदेव अपना अपने इन उपकरणों द्वारा विस्तार करते हैं। सीमा में रहते हुए भी वे अपनी असीमता का विस्तार करते हैं। लेकिन जिस समय ये मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आत्मदेव को भुलाकर अपने को ही प्रधान मानना आरंभ कर देते हैं, उसी समय से अस्वस्थता का बीजारोपण होता है। फिर इन्द्रियाँ स्वेच्छाचारिणी हो जाती हैं। यह स्वेच्छाचारिता यहाँ तक बढ़ती है कि जिस शरीर को आधार बनाकर उन्हें भोग भोगना होता है फिर उसे भी भुला दिया जाता है। ध्यान स्थिति का नहीं भोग का रहता है। मिथ्या आहार-विहार की बहुलता होती है और शरीर विकार ग्रस्त हो जाता है। इसलिए अस्वास्थ्य का भयंकर रूप इस स्थान पर दिखाई देता है।

शरीर जड़ है इसलिए स्वास्थ्य की जिम्मेदारी उस पर नहीं पड़ती, पड़ती है मन पर। मन ही एक ऐसा प्रमुख यंत्र है जो स्वदेव के आदेशों को वहन करता है। इस मन के बुद्धि, चित्त और अहंकार तीन साथी और हैं जिनमें सबसे प्रबल साथी है अहंकार। इसलिए जब मन स्वदेव की बात न सुनकर जब अहंकार के आदेशों पर चलना आरम्भ करता है, अस्वस्थता का तभी से श्री गणेश होता है। जब तक बुद्धि पर स्वदेव की कृपा रहती है तब तक मन के कार्यों पर बुद्धि विवेचना करती है, समालोचना करती है पर जैसे-जैसे उनकी यह कृपा हटती जाती है अर्थात् बुद्धि पर भी अहंकार का प्रभाव होता जाता है वैसे-वैसे वह भी मन का समर्थन करना आरम्भ कर देती है। और तब ये सब मिलकर खेल खेलते हैं। आत्मदेव का जब तक इनके साथ संपर्क रहता है, शक्तियाँ तो इन्हें मिलती हैं क्योंकि ये लोग ज्ञान के स्रोत को बन्द कर देते हैं, शक्ति का स्रोत तो जारी रहने देते हैं लेकिन ज्ञान का स्रोत बन्द कर देने पर शक्ति का स्रोत बहुत दिनों तक जारी नहीं रह सकता, इसलिए धीरे-धीरे शक्ति का ह्रास होता रहता हैं। लोग समझते हैं कि वे अस्वस्थ होते जा रहे हैं अर्थात् ‘स्व’ के साथ सम्बन्ध विच्छेद होना आरम्भ हो गया है और फिर एक दिन आता है कि शक्ति का स्रोत भी बन्द हो जाता है तब मृत्यु हो जाती है। मृत्यु क्या है? स्व के साथ सम्बन्ध विच्छेद।

इसलिए जिन्हें अपनी अस्वस्थता का पता चल गया है वे यह न समझें कि उनका शरीर अस्वस्थ है। शरीर की अस्वस्थता का सम्बन्ध शरीर से नहीं है उसका सम्बन्ध तो अन्तःकरण के साथ है। इसलिए यदि स्वस्थ होने की कामना है और स्थायी स्वास्थ्य की आवश्यकता है तो उन्हें अपने अन्तःकरण की चिकित्सा करनी चाहिए। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के स्वस्थ हो जाने पर शरीर अपने आप स्वस्थ हो जायेगा। क्योंकि स्वदेव का निकट का घर तो मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार ही है। इसी से तो वे अपने अपने स्थूल का निर्माण करते हैं। जो लोग शरीर का उपचार कराकर स्वस्थ होने की कल्पना करते हैं वे ऊपरी टीपटाप में ही लगे रहते हैं। ऐसी मरहम पट्टी शरीर को फिर खोखला कर देती है और स्थायी रूप से स्वास्थ्य लाभ नहीं होता।

भारतीय ऋषियों ने इसीलिए अस्वस्थ व्यक्तियों के लिए कुछ अनुभूत चिकित्साएं बतलाई हैं, जिनमें से यम और नियम का विशेष महत्व है, जिसमें यम अन्तःकरण के लिए अमोघ औषधि है और नियम शरीर और मन दोनों को ही आत्मदेव के रहने लायक झाड़ बुहार कर बना देता है। ऐसे झाड़े बुहारे स्वच्छ घर में ही आत्म देव के आनन्दमय स्वरूप का निवास रहता है। लोगों का कहना है कि स्वस्थ मन में ही आत्मा का निवास होता है इसकी यही अर्थ है कि आनन्द की प्राप्ति उसे ही होती है जिसका मन आत्मा के आदेश का सर्वांगीण पालन करता है, आनन्द का अनुभव भी वे ही व्यक्ति करते हैं और यह आनन्द ही स्वास्थ्य का चिह्न है।


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