अस्वस्थता निवारक यौगिक क्रियाएं

February 1949

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बीमारी आने पर दवादारु करने से कही अच्छा यह है कि आप बीमार ही न पड़ें। इस प्रकार रहें और दिनचर्या बनायें कि बीमारी पास न आये। हम यहाँ कुछ ऐसी क्रियाओं का उल्लेख करेंगे जिन्हें अपनाकर पाठक अपना स्वास्थ्य सहज ही स्थिर रख सकते हैं। पुनः-पुनः इन्हीं के अनुसार कार्य करने से धीरे-धीरे ये आदत बन जायेंगे। प्रारम्भ में कुछ अड़चन आ सकती है किन्तु थोड़े दिन पश्चात् आपका शरीर ऐसा सध जायगा कि वह स्वयं इन्हें करने का इच्छुक होगा।

इन क्रियाओं की मूल भित्ति व्यायाम है। उत्तम स्वास्थ्य के लिए व्यायाम अति आवश्यक है। प्रकृति के आँचल में उन्मुक्त विहार करने वाला पूर्व पुरुष इतना घूमता, फिरता और दौड़ता था कि उसे पृथक् रूप से व्यायाम की आवश्यकता ही न प्रतीत होती थी। आखेट, खेती, दूर-दूर तक भागना, दौड़ना, तैरना या कूदना सर्वसाधारण के लिए खुला था। किन्तु आधुनिक युग में अधिक चलने फिरने का काम कम होता जाता है। मोटर, साइकिल इत्यादि के प्रचार से टहलना और माँसपेशियों का संचालन भी कम हो रहा है। इस कृत्रिम जीवन में स्वास्थ्य लाभ करने के लिए व्यायाम शालाओं की आवश्यकता है। श्रमजीवी व्यक्तियों को छोड़कर शेष सभी के लिए व्यायाम की जरूरत है।

व्यायाम प्राकृतिक चिकित्सा का अंग -

व्यायाम द्वारा हम आपको पहलवान बनने की सलाह नहीं देते। शरीर के सब अंगों की योग्यता और कार्यशक्ति बनाये रखने के लिए, रोगों से रक्षार्थ व्यायाम आवश्यक है। व्यायाम एक प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा का अंग है। यदि शरीर से पर्याप्त श्रम लिया जाता है, सब पुर्जे अपना-2 कार्य ठीक तरह करते हैं, तो कोई कारण नहीं कि आप बीमार पड़ जायं। हर प्रकार के स्त्री पुरुषों के लिए प्रत्येक स्थिति और अवस्था में व्यायाम की आवश्यकता है। कई बार काम न करने के कारण शरीर के कुछ अंग अपना कार्य यथोचित रीति से नहीं करते और मनुष्य बीमार पड़ जाता है। इसके विपरीत रात दिन परिश्रम करने वाले कृषक, मजदूर, कारीगर स्वस्थ रहते हैं। यह है प्राकृतिक जीवन की अद्भुत करामात।

योग, व्यायाम पुरातन भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्पष्ट करते हैं। योग की दीर्घ श्वासोच्छवास पद्धति फेफड़ों की मजबूती पर जोर देती है। योग व्यायामों से केवल माँस पेशियाँ ही नहीं सुधरती प्रत्युत आन्तरिक अवयवों का भी सुधार होता है, आयु लम्बी होती है और नैतिक बल भी प्राप्त होता है। यौगिक आसन तथा प्राणायाम हमारे ऋषियों की चित्त की स्थिरता और व्यायाम प्रेम के परिचायक हैं। यौगिक क्रियाओं के सम्बन्ध में कहा गया है-

युवावृद्धोऽतिवृद्धोंवा व्याधितो दुर्बलोऽपि वा।

अभ्यासात्सिद्धिमाप्नोति सर्वंयोगेष्वतद्रितः॥

अर्थात् “युवा, वृद्ध अथवा अतिवृद्ध, बीमार या योगी अथवा अतिदुर्बल कोई भी व्यक्ति जो आलस्य को हटाकर यौगिक क्रियाएं करता है, उसे अवश्य सफलता मिलती है।”

क्रियायुक्तस्य सिद्धिः स्वादक्रियस्य कधं भवेत्।

न शास्त्रपाठ मात्रेण योग सिद्धिः प्रजायते॥

अर्थात् सफलता उसी को मिलती है, जो अभ्यास में तल्लीन रहता है। केवल योग सम्बन्धी ग्रन्थों के पढ़ने से किसी को सफलता नहीं मिलती।

आसन- आसन व्यायाम पद्धति ही मनुष्य के सब आँतरिक एवं बाह्य अंग प्रत्यंगों को समान रूप से पुष्ट करती है तथा आध्यात्मिक, मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान कर सकती है। शलभ, मयूर, भुजंग, पादहस्त इत्यादि आसन करने से मनुष्य के सारे अंगों का व्यायाम हो जाता है। प्रारंभ में ध्यानात्मक व्यायाम, नासाग्र दृष्टि, भूमध्य दृष्टि, इत्यादि करने चाहिए। इन साधनों से बलात् मन को एक स्थान पर केन्द्रित किया जाता है। ध्यानात्मक आसनों से पूर्ण लाभ उठाने के लिए तीनों बंध-जड्डीथन बंध, जालंधर बंध और मूलबंध करने चाहिए। चार मुख्य ध्यानात्मक आसन ये हैं- पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन, समासन हैं। व्यायामात्मक आसन इस प्रकार हैं- शीर्षासन, सर्वांग आसन, मत्स्य आसन, हलासन, भुजंगासन, शलभासन, धनुषासन, बलासन, चक्रासन, सिंहासन, मयूरासन, शवासन हैं। इनका अभ्यास किसी पुस्तक या योगी की सहायता से कर लेना चाहिए। इसके लिए दो पुस्तकें बड़ी अच्छी हैं-

(1) आसन-लेखन-डॉ. वालेश्वरप्रसाद सिंह, बादशाही मंडी, प्रयाग से प्रकाशित।

(2) आसन तथा प्राणायाम- लेखक-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ‘अखण्ड-ज्योति’ मथुरा।

प्राणायाम- प्राणायाम आसनों की क्रिया का एक मुख्य अंग है। एक के बिना दूसरा अधूरा सा है और दोनों मिलकर प्राकृतिक चिकित्सा के दाँये-बाँये हाथों के समान हैं। प्राणायाम से प्राणों की स्थिरता आती है। प्राण स्वच्छ, पवित्र, कान्ति की भूमि में अचल भाव से स्थित हो जाता है, प्राणायाम कोष और सूक्ष्म शरीर की पुष्टि होती है। इससे प्राण एवं सूक्ष्म शरीर पर मनुष्य का पूर्ण अधिकार हो जाता है। साथ ही इन्द्रियों का निरोध, इच्छा और संकल्प सिद्धि प्राप्त होती है, मनन और धारण शक्ति का विकास होता है, आत्मबल की वृद्धि होती है, विषयवासना नष्ट हो जाती है।

श्री विजय बहादुर के शब्दों में “प्राणायाम से साधक का शरीर तपाये हुए स्वर्ण जैसा कांतियुक्त हो जाता है। विधिपूर्वक उपासना से साधक को रोग, बुढ़ापा, मृत्यु आदि का भय नहीं सताता है। उसका शरीर पुष्प के समान हल्का और आरोग्यमय हो जाता है, मुख पर शान्ति एवं प्रसन्नता झलकने लगती है। उसे किसी पर पदार्थ में लोलुपता नहीं दिखती, शरीर गठित एवं पुष्ट हो जाता है। शोक, मोहादि कोसों दूर भागते हैं। वह अपने विकारों का आखेट नहीं बनता।”

इतने लाभों से युक्त इस व्यायाम (प्राणायाम) को अवश्य करना चाहिए। इसके लिए भी गुरु की आवश्यकता है। किसी जानकर से इसे सीखना चाहिए।

योगी की षट्-क्रियाएं -

हठयोग के अंतर्गत हमें षट्-क्रियाओं का वर्णन मिलता है। ये क्रियाएँ बहुत ही उपयोगी और लाभदायक हैं। फिर भी इनका अभ्यास करने के लिए बड़े सतर्क रहने की आवश्यकता है। हमारी राय तो यह है कि कोई भी योगिक क्रिया हो, किसी अनुभवी योगी अथवा समझदार व्यक्ति की देख-रेख में करनी चाहिए, तभी इनसे पूर्ण लाभ हो सकता है। कोई लेख या पुस्तक पढ़कर अपने आप क्रियाएं करने से लाभ के स्थान पर हानि की संभावना है।

हठयोग प्रदीपिका में (1) धोति (2) वस्ति (3) नेति (4) नौलि (5) कपालभाति (6) और त्राटक को षट्कर्म कहा है। कोई-कोई योगी कपालभाति, गजकरणी, बाघी, द्यौकनी और शंखप्रक्षालन-इनको भी षट्कर्म में सम्मिलित करते हैं।

(1) धोति-

मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है (1) वस्त्र धोति (2) जल धोति (3) वायु धोति। हठयोग प्रदीपिका में वस्त्रधोति इस प्रकार की जाती है-

“धोति चार अंगुल चौड़ी और 15 हाथ लम्बे महीन वस्त्र की बनाई जाती है। वस्त्र धोति करते समय इसे गर्म जल में भिगोकर थोड़ा निचोड़ कर दाँतों तले दबाकर चबाने का उपक्रम करते हुए निगलने की कोशिश करनी चाहिए। प्रतिदिन क्रमशः एक-एक हाथ कपड़ा निगलने का अभ्यास करते हुए कुछ दिन बाद सम्पूर्ण धोति निगली जा सकती है। पूरी धोती निगलते समय अन्तिम छोर दाँतों में दबा लेना चाहिए। नौलि करके दबे हुए सिरे को हाथ में लेकर बाहर खींच लेना चाहिए।” इससे उदर के विकार ठीक होते हैं।

जल धोति में पानी शीघ्रता से वमन कर दिया जाता है। गुनगुना जल लेकर उसमें कुछ नमक मिला लेना चाहिए। इच्छानुसार सेर डेढ़ सेर पानी लिया जा सकता है।

वायु धोति में नासिका के मार्ग को बन्द कर के मुँह में श्वास देते हुए वायु को पेट में इकट्ठी किया जाता है। यह वायु उड्डियान तथा नौलि क्रिया की सहायता से गुदा द्वारा शरीर से बाहर निकाल दी जाती है। वायु को जल की भाँति धीरे-धीरे कण्ठ से ध्वनि निकालते हुए पीना चाहिए।

(2) नेति-

पहले जल नेति करनी चाहिये फिर सूत नेति। जल नेति के लिए कुछ गुनगुना पानी लीजिये। गिलास को नाक के छेद से लगाकर पहले एक छिद्र से पानी ऊपर को खींचे और दूसरे नाक के छेद को बन्द कर लें। फिर दूसरे नाक के छिद्र से पानी को खींचे।

सूत नेति नाक की सफाई के लिए है। 14-16 इंच लम्बी बटे हुए सूत की मुलायम डोरी लीजिए। इसे पानी में भिगोकर थोड़ा सा सिरे पर मोड़ कर जो स्वर चलता हो उस छेद में लगावें और खूब जोर से पूरक करें। ऐसा करने से सूत का छोर गले में आ जायगा इधर-उधर खींचने से कफ दूर हो जाता है। ऐसा ही दूसरे छेद में डालकर करें। नेति कपाल का शोधन करती है, दिव्य दृष्टि देती है, मुख तथा सिर की संधि के ऊपर सारे रोगों को दूर करती है।

(3) त्राटक-

यह नेत्रों का व्यायाम है। मन को एकाग्र और केन्द्रित करने में यह बहुत फायदे की है। किसी भी वस्तु को एकाग्रता से देखना त्राटक है। श्री गुलाबचन्द जैन ने नाटक की विधि इस प्रकार लिखी है-”दीवार में एक कील गाढ़कर उस पर दर्पण टाँग दें और उस दर्पण के बीच में एक रुपये के बराबर एक गोल निशान या काले कागज का टुकड़ा चिपका दें। आइने से 2-3 फुट की दूरी पर पद्मासन लगाकर या किसी कुर्सी पर बैठ जायं। फिर अपनी आँखों को बिना पलक डुलाये, उसे गोल निशान पर केन्द्रस्थ करें। कोशिश करें कि आपका चेहरा काँच में न दिखे तथा आपकी टकटकी थोड़ी देर तक उसी पर लगी रहे।” यह अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए।

त्राटक नेत्रों के रोगों से मुक्त करने वाला, तन्द्रा आलस्य को रोकने वाला है।

(4) कपालभाति-

शीघ्रतापूर्वक पूरक करने को कपालभाति कहते हैं। पद्मासन या सिद्धासन पर बैठ जाइये, नेत्र मूँद लीजिए। पहले बाँये नासारन्ध्र से श्वास लें और दाँये से निकालें इसी प्रकार दूसरे छिद्र से करें। इसी प्रकार जिससे साँस निकालें, उसी से लें। इस क्रिया में फेफड़ों का अच्छा व्यायाम होता है और कपाल की शुद्धि होती है। श्वास नलिका में एकत्रित कफ जलकर भस्म हो जाता है।

(5) वस्ति-

हठयोग प्रदीपिका में लिखा गया है-”वस्तिक्रिया (अर्थात् एनिमा) के लिए गुदा मार्ग में बाँस की पतली एवं पोली नली प्रविष्ट कर पानी से भरे हुए टब या बर्तन में बैठें। पानी उसकी नाभि तक होना चाहिए। इस प्रकार गुदा मार्ग का आकुँचन करता हुआ पानी को ऊपर की ओर चढ़ाने की कोशिश करें। यही वस्तिक्रम या क्षालन कहलाता है। इसका एनिमा के अंतर्गत वर्णन किया जा चुका है। वस्तिक्रिया के प्रभाव से गुल्म, प्लीहोदर और वात पित्त, कफ से उत्पन्न अनेक रोग नष्ट हो जाते हैं, मुख पर चमक आती है तथा जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है।

(6) नौलिक्रिया-

कंधों को झुकाकर, अति वेग से पेट को गोलाई में घुमाने की क्रिया को नौलि कहा गया है। हठयोग प्रदीपिका में इसके लाभों का वर्णन इस प्रकार किया गया है- “नौलि क्रिया मंदाग्नि को उत्तेजित करने वाली तथा आनन्द को देने वाली है। वह सम्पूर्ण वात, पित्त, कफादि दोष तथा अन्य रोगों का नाश करने वाली है। इस प्रकार यह हठयोग की क्रियाओं में सर्वोत्तम कही गई है। इसका अभ्यास योग्य अनुभवी व्यक्ति की संरक्षकता में करना चाहिए। अंतड़ियों की सूजन, क्षतादि दोष, पित्त प्रकोप जनित अतिसार, पेचिश, संग्रहणी में यह क्रिया वर्जित है। किसी योग्य अनुभवी की देख-रेख में ये यौगिक क्रियाएं करने से बहुत लाभ उठाया जा सकता है।

टहल कर रोग ठीक कीजिये-

प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक बरनर मैकफेडन ने टहल कर रोग दूर करने के विषय में अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी कोष में एक पूर्ण अध्याय लिखा है। यहाँ उसका भावानुवाद प्रस्तुत किया जाता है।

यदि आप अपना स्वास्थ्य ठीक रखना चाहते हैं, या खोये स्वास्थ्य को वापिस लाना चाहते हैं, तो टहलना प्रारंभ कर दीजिए, चाहे दूसरे व्यायाम आप भले ही छोड़ दें, पर इस व्यायाम, अर्थात् टहलने को आप कभी न छोड़िये। आप चाहे जो पेशा करते हों, अपने शरीर के अंग विशेषों के विकास के लिए चाहे जो दूसरी कसरतें करते हों, पर दिन में दो घंटे टहलने का नियम अवश्य रखिये। मैं इस बात को मानता हूँ कि ऐसे बहुत से व्यायाम हैं, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त लाभदायक हैं, पर टहलने की बात ही निराली है। मैं तो यह कहूँगा कि जो आदमी, स्त्री या पुरुष-चौबीस घंटे में कम से कम दो घंटे नहीं टहलता, वह पूर्ण स्वस्थ हो ही नहीं सकता, चाहे वह दूसरे कितने ही व्यायाम क्यों न करता रहे।

टहलने का भी एक शास्त्रीय मार्ग है। यदि आप बेढंगे रूप से टहलेंगे, तो भी उससे कुछ न कुछ शक्ति तो अवश्य बढ़ेगी, पर ढीले ढाले तरीके से टहलने से आप जल्दी थक जायेंगे और वह लाभ नहीं उठा सकेंगे, जो नियमित रूप से टहलने में होता है। जो लोग पैदल चला करते हैं, उनमें से प्रत्येक ठीक तरह टहलना नहीं जानता। टहलते समय गति में साम्य होना चाहिए और शरीर को सीधा रखना चाहिए और तभी आपके शरीर में स्फूर्ति बढ़ सकती है।

मैंने तो पिछले दस वर्षों में टहलना सीखा है। चाल में एक प्रकार की सरलता होनी चाहिए, गति में एक नियमित प्रवाह होना चाहिये और शरीर को इस प्रकार रखना चाहिए कि बिना किसी विशेष परिश्रम के उठाने वाले कदमों के साथ, आगे को बढ़ते जावें।

एक बार मैंने यह प्रयोग किया था कि प्रातःकाल में अपने काम पर जाने से पूर्व 15-20 मील टहला करता था। वह अभ्यास करते-करते मेरा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि सचमुच टहलना विशेष रूप से लाभदायक व्यायाम है। इतना तन्दुरुस्त मैं कभी नहीं रहा, जितना मैं उन दिनों में था, जब मैं 15-20 मील का चक्कर काटा करता था। प्रतिकूल परिस्थिति में भी यदि आप तेजी के साथ तीन चार मील टहल लें, तो उससे लाभ ही होगा पर, यदि आप तीन चार घंटे टहलें तब तो बात ही क्या है। आपके शरीर में इससे जितनी फुर्ती आवेगी उतनी दूसरे किसी भी तरीके से नहीं आ सकती। पेट, हृदय और फेफड़ों पर, जो शरीर के मुख्य अंग हैं, टहलने का बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ता है। शरीर के रक्त प्रवाहक अंगों में स्वास्थ्यप्रद गति पैदा हो जाती है, रक्त स्वच्छ हो जाता है, नेत्रों की ज्योति में वृद्धि होती है, रंग रूप भी निखर आता है, माँस में कुछ मजबूती आ जाती है और शरीर के अंग में शक्ति तथा दृढ़ता का संचार होने लगता है।

यक्ष्मा तथा अन्य भयंकर बीमारियों के मरीज टहलने के कारण स्वस्थ हो गये। जो व्यक्ति खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त करने के इच्छुक हों, अथवा जो किसी पुराने जीर्ण रोग से पीड़ित हों, उनके लिए टहलने से बढ़िया दूसरी कोई कसरत नहीं हो सकती। हाँ, साथ ही उन्हें गहरी साँस लेने का भी अभ्यास करना चाहिये। टहलना भयंकर बीमारियों के लिए इसलिए और अधिक लाभदायक है कि इसकी अति नहीं हो सकती। अपनी शक्ति से बाहर टहलना कठिन है। टहलने, थककर बैठ जाने में लाभ ही लाभ हैं। हानि कुछ भी नहीं।

ठीक प्रकार से टहलने की रीति-

मैकफेडन के अनुसार ठीक प्रकार से टहलने की रीति यह है- “प्रथम आवश्यक बात तो यह है कि आपका शरीर आगे की ओर झुका हुआ रहे, जैसे कि दौड़ने में होता है। प्रत्येक कदम ऐसा पड़ना चाहिये कि वह आपको मानो गिरने से बचावे, और आपका बदन आगे की ओर इतना काफी झुका रहना चाहिए, जिससे गति लगातार एक सी ही बनी रहे। समूचा बदन सीधा रहना चाहिये, कंधे पीछे दबे हुए, सीना आगे निकला हुआ, सिर पीछे की ओर और निगाह एक दम सामने रहनी चाहिये। हाँ, यदि रास्ता देखना हो, तो आप अवश्य नीचे की ओर देख सकते हैं। मगर मामूली तौर से नजर सामने ही रखनी चाहिए। प्रत्येक कदम में आगे की ओर बढ़ने वाली शक्ति होनी चाहिए। अगर टहलने के साथ ही साथ आप पवित्र वायु में गहरी साँस भी लेते जायं, तो उससे बहुत अधिक फायदा हो सकता है। इस प्रकार के अभ्यास से आपकी मेहनत बरदाश्त करने की शक्ति, टहलने का आनन्द और शरीर को तन्दुरुस्त रखने की ताकत कितनी अधिक बढ़ जायेगी, इसके लिए जो कहा जाय, थोड़ा है।

घास और मिट्टी पर टहलना विशेष लाभदायक है। आप चार या पाँच बजे तड़के उठें और अपना कार्य प्रारंभ करने से पूर्व एक लम्बा और आनंददायक चक्कर अवश्य लगा आया करें।

आरम्भ में चार पाँच मील चलना यथेष्ट होगा। हम कितनी दूर चल सकते हैं, इस बात की परीक्षा न लेना ही अच्छा है, टहल कर हमारा उद्देश्य अपनी संजीवनी शक्ति को बढ़ाना है, न कि दूरी को।

टहलने से यौवन स्थिर रहता है। टहलना बुढ़ापे को रोकता है। यह वृद्ध कोषाणुओं को दूर करके आप के अंग-अंग में जीवन, स्वास्थ्य और शक्ति प्रवाहित कर देता है। मैंने अपने जीवन में जितने वृद्धों को देखा है, उनमें से एक सबसे अधिक नौजवान दिखाई पड़ता था। यह पुराना टहलने वाला था। उसका कहना था कि मैं पन्द्रह बीस मील रोज टहलता हूँ। यद्यपि उसकी आयु साठ के आस-पास थी पर उसका चेहरा सोलह वर्ष की लड़की के समान था और वह 35 वर्ष से अधिक का नहीं प्रतीत होता था।


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