आरोग्य का साधन-विश्राम

February 1949

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अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत है-

खशह्द्म, ह्लद्गद्वश्चद्गह्ड्डठ्ठष्द्ग ड्डठ्ठस्र ह्द्गह्यह्ल,

ह्रद्ध ड्डद्यद्य श्चद्धब्ह्यद्बष्द्बड्डठ्ठह्य ड्डह्द्ग ह्लद्धद्ग ड्ढद्गह्यह्ल.

अर्थात् श्रम, संयम और विश्राम- संसार के चिकित्सकों में सर्वश्रेष्ठ हैं। मनुष्य खूब मौज से दिल लगाकर श्रम करे, जीवन में संयम से कार्य ले, अति न करे, और फिर विश्राम करे तो वह दीर्घजीवन लाभ कर सकता है।

परिश्रम कीजिए, आलस्य ही मनुष्य का सबसे बड़ा बैरी है। भर्तृहरि का कथन है- “आलस्यं हि मनुष्याणाँ शरीरस्थो महान् रिपुः।” गीता में भगवान ने सौ वर्ष तक कर्म करने का आदेश दिया है।

दूसरा उपाय है-संयम। संसार में अति करना बीमारियों को आमंत्रित करना है। भोग भोगिये किन्तु मर्यादा के भीतर रहकर इच्छाओं को तृप्त कीजिये। असंयम से नाना प्रकार की आधि व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं।

स्वस्थ जीवन के तीसरे अंग-विश्राम-पर हमें सविस्तार विचार करना है। निरंतर काम में लगे रहने से थकावट आती है। मजदूर लोग रुपये के लोभ में शरीर की कुछ परवाह न करते हुए अधिक श्रम कर डालते हैं, नाना प्रकार के कार्यों में दिन-रात जुटे रहते हैं। थकते हैं और बीमार होते हैं।

थकावट दो प्रकार की है- (1) शारीरिक थकावट (2) मानसिक थकावट। निरन्तर शरीर से काम लेने से माँस पेशियाँ तथा शरीर के कल पुर्जे थक कर चूर हो जाते हैं। थकान से ज्वर, सिरदर्द, हाथ पाँवों का टूटना, इत्यादि उत्पन्न होते हैं, जो बहुत दिनों में जाकर ठीक होते हैं।

शरीर की भाँति मन और मस्तिष्क को भी व्यायाम भोजन तथा विश्राम की आवश्यकता होती है। शरीर की भाँति मन भी थकता है। मानसिक थकावट अन्तर्द्वन्द्व और चिंता का कारण बनती है। काम में मन नहीं टिकता, सर भारी रहता है, जीवन भार प्रतीत होता है। कोई भी कार्य ठीक रीति से सम्पन्न नहीं हो पाता। प्रायः देखा गया है कि जब कोई कार्य भार समझ कर किया जाता है तो मानसिक थकावट जल्दी आती है।

शारीरिक थकावट के लिए विश्राम आवश्यक है। कार्य के पश्चात् मनोरंजन का आयोजन रखना चाहिए। जो व्यक्ति शारीरिक कार्य करते-2 थक जाय, उन्हें मानसिक मनोरंजन करना उत्तम है। इसके विपरीत मानसिक दृष्टि से थके हुए व्यक्तियों को शारीरिक मनोरंजन-खेल-कूद, तैरना, सैर सपाटा, टहलना, नृत्य, संगीत इत्यादि करना चाहिए।

मानसिक थकावट दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है-सद्विचार। आशाप्रद सद्विचारों में अपूर्व शक्ति है। थकावट काम करने से उतनी नहीं होती जितनी उसके विषय में चिन्ता त्याग करने से होती है। अतः हर प्रकार की चिन्ता त्याग देनी चाहिये। चिंता काम के प्रति अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित कर देने पर नष्ट हो जाती है। निद्रा मानसिक और शारीरिक थकावट मिटाने का प्राकृतिक साधन है। सात घंटे की निद्रा अवश्य लेने की आदत डालनी चाहिए। निद्रा से जितनी थकावट दूर होती है, योग की समाधि अवस्था में पहुँचने से उससे कहीं अधिक थकावट दूर होती है। समाधि अवस्था सद्भावनाओं और एकाग्रता के अभ्यास से प्राप्त होती है।

वाणी को विश्राम देने के लिए शास्त्रों में मौन का बड़ा महत्व है। मनुष्य की वाचिक तथा मानसिक शुद्धि के निमित्त नियमित मौन का अभ्यास आवश्यक साधन है। मनुष्य को सप्ताह में एक दिन अथवा महीने में एक दिन बिल्कुल मौन रहना चाहिए। स्मरण रखिये अधिक बोलने से बहुत सी शक्तियों का अपव्यय हो जाता है। वाणी के असंयम से अनेक झगड़े, अशान्ति, रक्तपात और मुकदमेबाजियां होती हैं। अतः वाणी के असंयम पर विजय प्राप्त करने के लिए मौन का अभ्यास करें। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर मौन का बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। नियमित मौन सेवन से मनुष्य को अपनी काषाय वृत्तियों-क्रोध, मान, माया, लोभ, बकझक प्रमाद पर विजय प्राप्त होती है।

मानसिक चिकित्सा -

शरीर से अधिक महत्व मानसिक रोगों का है। मानसिक रोगों को नष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने निम्न रीतियों का आविष्कार किया है-

(1) फ्रायड की रेचन विधि (मनोविश्लेषण)

(2) कूये की संकेत या सजेशन विधि (निर्देश)

(1) रेचन विधि- आधुनिक मनोविज्ञान में डॉ. फ्रायड की रेचन विधि का बड़ा महत्व है। मनोविश्लेषण का आजकल विशेष महत्व है। फ्रायड साहब रोगी के गुप्त मन में भरी हुई बातें, कटु अनुभव, भयानक स्थितियों, दलित वासनाओं का अध्ययन किए बिना चिकित्सा कभी ठीक नहीं समझते थे। उनका विचार था कि मानसिक रोग की जड़ मालूम करनी चाहिए। उसे जड़मूल से दूर करने के लिए मनोविश्लेषण का प्रयोग ही उन्हें सर्वोत्तम जंचा। इसी को रेचन विधि कहते हैं।

रेचन क्या है?

जिस प्रकार कैस्ट्रायल लेने से पेट की संचित गंदगी निकल जाती है, उसी प्रकार रेचन क्रिया से रोगी के अन्तः प्रदेश से पुराने कटु अनुभव निकाले जाते हैं। दलित मनोभाव तथा गुप्त मासिक ग्रन्थियाँ ही सब झगड़ों की जड़ हैं। उन्हीं के आधिक्य से अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है। कभी-2 ये अप्रिय अनुभव पागलपन तक उत्पन्न कर देते हैं। ये कटु अनुभव तथा दलित वासनाएं हमारी बुद्धि की सतह से बहुत नीची होती हैं। हम समझ नहीं पाते कि हमारी बीमारी या अप्राकृतिक क्रियाओं का मूल कारण क्या है। मनोभावों तथा वासनाओं का दमन एक अप्राकृतिक क्रिया है। प्रकृति चाहती है कि हमारी वासनाओं को अपनी पूर्ति का मार्ग मिलता रहे किन्तु आजकल की सभ्यता तथा नैतिकता के कारण मनुष्य अपनी वासनाओं की पूर्ति नहीं कर पाता। उसके अनेक अपूर्ण और असंतुष्ट मनोभाव मानसिक विकास के निम्नतम स्तर में चले जाते हैं। रेचन की क्रिया से ये कटु अनुभूतियाँ तथा दलित मनोभाव निम्न स्तर से निकाली जाती है।

रेचन विधि से मानसिक रोग क्यों ठीक होते हैं?

रोगी अनजाने में ही अपने मन के निम्नतम स्तर में गुप्त वासनाएं तथा अपूर्ण इच्छाएं दबाये रहता है, ये अप्रिय अनुभव काँटों के समान हैं। जब तक इन्हें नहीं निकाला जायगा, तब तक ये अनेक मानसिक रोगों के रूप में प्रस्फुटित होते रहेंगे। अतः रेचन विधि द्वारा इन्हीं को चेतना के समक्ष लाया जाता है। जब रोगी का मन इन्हें स्वीकार कर लेता है, तो वह मानसिक कष्ट दूर हो जाता है। यद्यपि ये अनुभव बड़े लज्जास्पद एवं विवेक की दृष्टि से गिरे हुए होते हैं किंतु रोगी को चेतना पर लाये बिना इन्हें गुप्त मन से नहीं निकाला जा सकता। प्रत्येक मानसिक रोगी दुःखदायी अनुभवों को छिपाये हुए भी उसे भूल जाता है। इस दलित अनुभव के चेतना के सामने आते ही जब रोगी उसे स्वीकार कर लेता है, तो उसकी आत्म-स्वीकृति हो जाती है। आत्म स्वीकृति का मतलब है मानसिक रोग से मुक्ति। अतः रेचन विधि के दो मुख्य अंग हैं। इन्हें भली भाँति समझ लीजिए-

1- बातें करके गुप्त, दलित अनुभव को खोद खोदकर निम्न स्तर से निकालना। यह क्रिया बड़ी कठिन है और चिकित्सक के व्यक्तिगत अनुभव और प्रतिभा पर आश्रित है। उसे ऐसे प्रश्न पूछने पड़ते हैं। स्वप्नों, साँकेतिक चेष्टाओं, शब्द सम्बन्ध का प्रयोग, भूलों का अध्ययन, विचित्र व्यवहारों का निरीक्षण तथा हिप्नोटिज्म द्वारा पुराने अनुभवों का स्मरण कराना पड़ता है। जिनसे दलित मनोभाव चेतना के स्तर पर आ जाता है। देखा गया है कि इस दबे हुए अनुभव के चेतना के समक्ष आते ही रोग दूर हो जाता है। रेचन विधि का यह प्रमुख अंग है।

2- आत्मस्वीकृति- अर्थात् रोगी का अपने कटु अनुभव को मान लेता। प्रायः देखा गया है कि वासना, भय, क्रोध, ईर्ष्या, भर्त्सना, पीड़ा, मानहानि, इत्यादि दुःखद अनुभव मनोभावों के पीछे छिपे रहते हैं। इनसे सम्बन्धित कुछ घटनाएं होती हैं। पुरानी बातें चलाने से ये घटनाएं धीरे-धीरे स्मृति के पटल पर आ जाती हैं। जब रोगी अपनी पुरानी भूल को स्वीकार कर लेता है तब रोग दूर हो जाता है। यही फ्रायड महाशय की रेचन विधि है। इसके अनुसार पहले चिकित्सक को रोग की जानकारी प्राप्त होती है फिर अनुभव की आत्मस्वीकृति से मानसिक रोग दूर हो जाता है।

मनोविश्लेषण कैसे करें?

मन का विश्लेषण बड़ा कठिन कार्य है किन्तु अभ्यास से यह धीरे-धीरे आ जाता है। किसी भी रोगी के मन का विश्लेषण उन क्रियाओं से हो सकता है, जिन्हें वह करता है। क्रियाएं मन से सन्नद्ध हैं। मन आदेश देता है, तब हमारे अंग प्रत्यंग विविध क्रियाएं करते हैं। अतः हमें रोगी के सब कार्यों, भावों, विचारों (लिखित या उच्चरित), स्वभाव तथा आचारों का अध्ययन करना चाहिए। प्रत्येक शब्द, विचार, साँकेतिक चेष्टा, स्वप्न या विचित्र व्यवहार का सम्बन्ध मनुष्य के गुप्त मन से है। इनका अध्ययन ही गुप्त मन का कुछ ज्ञान दे सकता है। मनोविश्लेषण विधि के मुख्य साधन ये हैं। इनका प्रयोग किसी अनुभवी चिकित्सक के साथ करना चाहिए-

(1) स्वप्नों का अध्ययन- प्रत्येक स्वप्न का गूढ़ अर्थ होता है। अक्सर देखा गया है कि कामवासना अनेक स्वप्नों के रूप में नाना प्रकार के रूप धारण कर रोगी के समाने आती है। स्वप्नों का अध्ययन करने के लिए हमारी पुस्तक “हमें स्वप्न क्यों दीखते हैं?” ‘अखण्ड-ज्योति’ कार्यालय मथुरा से मंगाकर इस विज्ञान का विस्तृत ज्ञान प्राप्त कीजिए।

(2) साँकेतिक चेष्टाओं का अध्ययन- अनेक बार रोगी ऐसी कुचेष्टाएं करता रहता है जिनका कारण वह खुद नहीं समझता। गुप्ताँग बार-2 छूना, कान या ठोढ़ी छूना, नाक कुरेदते रहना, होठ दबाना या अनेक प्रकार की चेष्टाएं हमारे गुप्त मन की मानसिक ग्रन्थियाँ स्पष्ट करती हैं। इनका सम्बन्ध मनुष्य के दलित मनोभावों (प्रायः कामवासना, घृणा और क्रोध) से होता है।

(3) शब्दों, भूलों, गालियों का अध्ययन- अनेक प्रकार की गालियाँ लोग अनजाने में ही देने के आदी होते हैं। प्रत्येक गाली गलौज या शब्द कुछ न कुछ मानसिक अवस्था का परिचायक है, उसकी उत्पत्ति एवं निकट सम्बन्ध आन्तरिक जगत से है। ये शब्द या भूलें तभी तक होती हैं जब तक रोगी का अज्ञान अनुभव चेतना पर नहीं आता। वही भाव सामने आते ही चेतना पर पुराना दलित मनोभाव याद आ जाता है।

(4) विचित्र व्यवहारों का निरीक्षण- मानसिक रोगों का कारण अन्तर्द्वन्द्व है। इस अन्तर्द्वन्द्व का पता हमें कभी-2 रोगी के विचित्र व्यवहारों से लगता है। रोग की उत्पत्ति रोगी का अपने आपको धोखा देने के कारण होती है।

(5) हिप्नोटिज्म का प्रयोग- सम्मोहन द्वारा रोगी को बेहोश कर दिया जाता है। सम्मोहन द्वारा मनुष्य का बाह्य मन तो निष्क्रिय हो जाता है किन्तु अंतर्मन तेजी से कार्य करता रहता है। प्रायः रोगी बकने, भकने और ऊटपटाँग बातें कहने लगता है। इनमें तारतम्य स्थापित हो सकता है। इस बकवाद से गुप्त मन का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है।

उपरोक्त विधियों द्वारा गुप्त मन की दलित अनुभूतियों का हाल जाना जा सकता है। जानकारी प्राप्त करना बहुत कुछ चिकित्सक की योग्यता पर निर्भर है। इस क्रिया से चिकित्सक रोग का कारण जान लेता है। उसे नष्ट करने के लिए आत्म स्वीकृति आवश्यक है।

कूये साहब की संकेत विधि-

सजेशन या निर्देश विधि बहुत पुरानी है। इसका प्रयोग भारत के ऋषि मुनियों तथा यूरोप में मानस चिकित्सकों ने समान रूप से किया है। कूये साहब ने प्रथम बार इसे मनोवैज्ञानिक रूप देकर इसके वैज्ञानिक अध्ययन का प्रयत्न किया। कूये ने अपनी निर्देश विधि से हिस्टीरिया, अनिद्रा, अकारण भय आदि मानसिक रोगों को सफलता से दूर किया। कूये साहब ने रोगी के गुप्त दलित भाव को जानने की इच्छा न की, न उसका विश्लेषण किया। इसलिए उनकी क्रिया कुछ अधूरी सी रही। आधुनिक युग में फ्रायड के मनोविश्लेषण के पश्चात् कूये की निर्देश विधि के द्वारा पुनः शिक्षा का प्रयत्न किया जाता है।

संकेत विधि उन स्वीकृतियों को कहते हैं जो रोगी करता जाता है। उसका मन उन्हें स्वीकार करता जाता है। प्रत्येक आत्म स्वीकृति से कुछ न कुछ लाभ होता है। रेचन से कलुषित और गन्दे मनोभाव निकल जाते हैं, संकेत या निर्देश से शुभ विचार और हितैषी भावनाएं अंतर्मन में बिठाई जाती है। शुभ और नए पवित्र विश्वास रोगी के मन में जमाने की क्रिया को पुनः शिक्षा कहते हैं। यह एक प्रकार से रोगी के मन में नैतिक और शुभ दृष्टिकोण जमाना है। यह स्थायी स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। पुनः शिक्षण पद्धति से मानसिक अन्तर्द्वन्द्व नष्ट हो जाता है और ठोस नैतिकता की सृष्टि होती है।

निर्देश के दो भाग हैं- दूसरों को निर्देश देना तथा आत्म निर्देश अर्थात् स्वयं अपने आपको निर्देश देना। दूसरों को वहीं स्वस्थ निर्देश दे सकता है, जो स्वयं पूर्ण रूप से स्वस्थ हो। अपने आपको पूर्ण स्वस्थ बनाने के लिए आत्म निर्देश का प्रयोग किया कीजिए। आत्म निर्देश बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। जो व्यक्ति अकल्याणकारी विचारों में लिप्त रहता है, बुरा ही सोचता है या अपने आपको रोगी समझता है, वह कैसे दूसरे को स्वस्थ करेगा?

आत्मनिर्देश किया कीजिए। शान्तिदायक पवित्र विचारों, शुभ भावनाओं, हितैषी विश्वासों में रमण करना मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ा अच्छा है। अपने आपको शक्तिशाली होने, महान बनने, पूर्ण स्वस्थ रहने के निर्देश दिया कीजिये। जैसा आप अपने आपको समझते हैं, वस्तुतः वैसे ही आप हैं। इच्छाशक्ति को अपने सौभाग्य पर केन्द्रित किया कीजिये। दूसरों के अनुचित विचारों के साथ न बहने की शक्ति से ही हम ऊंचे उठ सकते हैं। यही आत्म निर्देश का रहस्य है। प्रो. लालजीराम शुक्ल के शब्दों में, “आत्मनिर्देश की शक्ति वृद्धि के लिए इस बाह्य दृश्य संसार से मन हटाकर अपने बारे में सोचना चाहिए। मनुष्य को बाहरी क्षणिक लाभों से छोड़कर मन को वश में करने की साधना करनी चाहिए। इससे इच्छाशक्ति बलवती होती है, ऐसे व्यक्ति का आत्मनिर्देश कभी विफल नहीं जा सकता।”


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