वेदों में मानसिक चिकित्सा

February 1949

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(श्री सुरेश चन्द्र वेदालंकार, गुरुकुल कुरुक्षेत्र)

सबल एवं सफल आश्वासन का नाम आदेश है। आदेश द्वारा किसी रोगी के रोग को दूर करना, विषैले जन्तु के विष को शान्त करना, किसी मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य प्रदान करना और अंधविश्वास की दृष्टि से फैले हुए भूत प्रेतादि को दूर हटाना ही मंत्रविद्या है। भारतवर्ष में इस विद्या का प्रचार बहुत अधिक और व्यापक है। साँप बिच्छू आदि के काटे हुए और तथाकथित भूतादि बाधाओं से पीड़ित व्यक्तियों को हम मंत्रादि से झड़वाते-फुँकवाते प्रायः देखते हैं। इस विचारधारा का क्या आधार है? इसमें सत्यता भी है या नहीं? इसका उत्तर हमारे विचारों में यही है कि मंत्र विद्या मानसिक चिकित्सा है और इसका आधार अथर्व वेद के कुछ मन्त्र हैं। इस मन्त्र विद्या को ही आज का शिक्षित समाज संवशीकरण या हिप्नोटिज्म के नाम से कहता है। यह वशीकरण कोई नवीन वस्तु नहीं बल्कि भारतीय योग शास्त्र का बिल्कुल प्रारंभिक अंग है। इसकी 6 शाखायें हैं जिनके नाम और विवरण निम्न प्रकार हैं-

(1) खेल- पात्र को क्षणिक निद्रा में लेजाकर उसे नाना प्रकार की अजनबी और अलौकिक बातें दिखाना।

(2) प्रश्नोत्तर- पात्र को अर्ध निद्रा एवं गंभीर निद्रा में ले जाकर देश देशान्तर और लोक लोकान्तर की सैर कराना, वहाँ का हाल उसके मुख से दूसरों को सुनाना।

(3) जीवन सुधार- किसी व्यक्ति के दुर्गुणों को दूर करने के लिए उसे अर्ध निद्रा या गंभीर निद्रा में ले जाकर उसे आदेश द्वारा या समझा-बुझाकर सन्मार्ग की और चलने के लिए प्रेरित करना।

(4) दुरुपयोग- मारण, मोहन, उच्चाटन या वशीकरण द्वारा किसी व्यक्ति को विक्षिप्त, व्याकुल, पीड़ित करना अथवा उसकी जीवन हानि कर देना।

(5) अपने किसी दूरस्थ व्यक्ति के यहाँ अपने यहाँ बैठे-2 सन्देश भेजना।

परन्तु इन पाँचों शाखाओं के विषय में हम कुछ न कहते हुये इस संवशीकरण का वैदिक रूप क्या है और इससे चिकित्सा करने की वैदिक विधि क्या है, यही पाठकों को बतायेंगे।

किसी भी रोग के कारण जहाँ शरीर में केन्द्रित विकार होते हैं वहाँ उससे बढ़कर वहम या मानसिक विचार कारण होते हैं। जहरीले साँप कभी ही काटा करते हैं परन्तु भय है हमें साँप ने काट लिया है अब हम बच नहीं सकते, इन विचारों से सैकड़ों मौतें हर साल होती हैं। रोग बहुतों को केवल वहम से हो जाता हैं। ऐसी दशा में यदि हम किसी प्रकार रोगी के दिल में यह विश्वास जमा दें कि रोग कुछ नहीं है, वह तो तुम्हें है ही नहीं, तो बहुत से रोगी बिना चिकित्सा के ठीक हो सकते हैं। इस मानसिक चिकित्सा के विषय में हम अपने अनुभव न देकर पाठकों को वैदिक प्रमाणों से इस विषय की वास्तविकता का बोध करायेंगे।

चिकित्सा प्रारम्भ करने से पूर्व मानसिक चिकित्सक को चाहिए कि वह रोगी में अपने प्रति विश्वास पैदा करे तथा उसके मन को अपनी ओर आकर्षित करे। उसे शाँतिपूर्वक सामने बैठाकर कहे कि-

यद्वो मनः परगतं यद् बद्धमिह वेह वा, तद्व आवर्तयामसि मयिषों रमताँ मनः।

अर्थात् मेरे प्यारे रोगी! जो तुम्हारा मन कहीं दूर गया हो या इधर-उधर व्यर्थ की बातों में फंसा हो उसे मैं अपनी ओर लाता हूँ-तुम मेरी बातों को ध्यान पूर्वक सुनो-मैं तुम्हारे रोग को अवश्य ही ठीक कर दूँगा। उसे चिकित्सक कहे कि-

“अहं गृह्णामि मनसा मनाँसि मम चित्तमनुचित्ते भिरेत। मम वशेषु हृदयानि वः कृणोमि मम यातमनु वर्त्मान एत॥”

मैं तुम्हारे मन को अपने मन के अनुकूल बनाता हूँ, तुम अपने चित्त को मेरे अनुकूल बनाओ और मेरी विचारधारा के अनुकूल अपनी विचारधारा करो, तुम्हारे इस शरीर और मन पर तुम्हारा अधिकार नहीं रहा, अब तो इस पर मेरा अधिकार है और मैं जैसा चाहूँगा वैसा तुम्हें चलाऊंगा। तुम मेरे आदेशों को सुनो और उन पर चलो-तुम्हें उस पर चलना पड़ेगा।

इस प्रकार इन दोनों मंत्रों से पात्र को अपने वश में करके उसके रोगों की चिकित्सा चिकित्सक को प्रारम्भ करनी चाहिए। चिकित्सा प्रारंभ करते हुए उसे अपनी वाणी के साथ ही साथ अभिमर्श क्रिया अर्थात् हाथ के हल्के स्पर्श का भी प्रयोग करना चाहिए। अभिमर्श क्रिया को अंग्रेजी में पास करना (Posses) कहते हैं अभिमर्श करते हुए रोगी को कहना चाहिए कि हे मेरे प्यारे रोगी!

“अयं में हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः।

अयं में विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः।

अथर्व 4।13

हस्ताभ्याँ दशशाखाभ्याँ जिह्वा वाचः पुरोगवि।

अनामयित्नुभ्याँ हस्ताभ्याँ ताभ्याँ त्वाभिमृशामसि

इस अभिमर्श क्रिया में प्रयोजक के हाथ खुले और ढीले होने चाहिए और उसका स्पर्श पात्र के शरीर पर भार न डाल रहा हो। यह उसके अंगों में बिजली सी उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। इससे शरीर को तथा मन को शान्ति तथा आराम मिलता है। इस प्रकार अभिमर्श एवं आदेश के द्वारा रोगी को अपने आधीन करने के बाद पात्र को उसके रोगों के अनुसार स्वस्थ करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस स्थिति में लाने के बाद रोगों को अभिमर्श और आदेश द्वारा दूर करने का स्पष्ट विधान वेद में पाया जाता है। उन्माद रोग के रोगी को आदेश देते हुए लिखा है-

अग्निष्टे निशमयतु यदि ते मन उद्यु तम्।

कृणोमि विद्वान् भेषजम् यथानुन्मदितोऽसि।

अर्थ. 6।11।2।

भावार्थ यह है कि हे मेरे प्रिय रोगी! यदि तेरा मन किसी कारण से अव्यवस्थित अथवा विक्षिप्त हो गया है तो अग्नि उसे बिल्कुल व्यवस्थित कर देवे और मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि बिल्कुल ठीक हो जायगा। मैं खूब सोच समझकर तेरी चिकित्सा कर रहा हूँ-तू अवश्य ही इस रोग से मुक्ति पा जायगा- विश्वास रख। यहाँ जो अग्नि रोग को शान्त कर देगा यह कहा गया है इसका अभिप्राय यह प्रतीत होता है कि उन्माद के रोगी को धुंआ आदि देने की जो आजकल प्रथाएँ प्रचलित हैं उनमें अवश्य ही कोई रहस्य विद्यमान है। भूत प्रेतादि से सताए जाते हुए रोगियों को मिर्च आदि का धुंआ देने और साथ ही कठोर शब्दों में आदेश देने से अक्सर लाभ होते देखा गया है। इसी प्रकार चुपचाप शान्त बैठे रोगी को कपूर चंदन इत्यादि का धुंआ देकर उन्माद को दूर करने की प्रथा आज भी प्रचलित है।

यक्ष्मा रोग से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा-

इस रोग के रोगी को चिकित्सा के लिए शाँत भाव से बैठाकर नीचे लिखा आदेश देना चाहिये-

अनुहूतः पुनरेहि विद्वानुदयनं पथः

आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोयनम्।

मा विभे न मरिप्यसि जग्दिष्टं कृणोमि त्वा

निरवोचमहं यक्षमंगेभ्यो अंगज्वरं तव॥

अंगभेदो अंग ज्वरो यश्चते हृदयामयः

यक्ष्मः श्येन इव प्राप्तस्तद् वाचा साढः परस्तराम्।

इयमर्न्तवदति जिह्वा बद्धा पनिष्पदा।

त्वया यक्ष्मं निरवोचं शतं रोपीश्च तवमनः।

अर्थात् हे मेरे प्यारे रोगी! तू मेरे द्वारा आमन्त्रित होता हुआ, समझदार बनकर स्वास्थ्य को फिर प्राप्त कर। अरे आगे बढ़ना और उन्नत होना यही तो जीवन का प्रमाण है। तू जरा न डर, तू कभी मरेगा नहीं, मैं तुझे बुढ़ापे तक जीने वाला करता हूँ, तेरे अंगों से क्षय रोग को निकाल बाहर करता हूँ। सुन! अंगों को तोड़ने वाले, अंत में ज्वर करने वाले हृदय का यह रोग है। यह तेरा क्षय मेरी वाणी से मारे हुये बाज की तरह शरीर के बाहर जा गिरेगा। तू स्वस्थ होगा-अवश्य होगा। यह मेरी सुनियंत्रित और विद्युत की तरंगें फेंकती हुई वाणी अंदर से कह रही है कि तुझसे प्रेरित मैं यक्ष्मा रोग को दूर कर दूँगी और रोग के सैंकड़ों अंकुरों को हटा दूँगी।

इस प्रकार जब आदेश द्वारा जीवन के बीज व्यक्ति में आयेंगे तो वह अवश्य स्वस्थ होगा। इसी प्रकार सर्प विष को दूर करने के मंत्रों का भी उल्लेख वेद में पाया जाता है। वहाँ लिखा है स्व-

ददिर्हि मह्वयम् वरुणो दिवसः-कविर्वचोभिः रुग्रैनिरिणामि ते विषम्। खातमखातं सक्तमग्रभिरेव धन्वन्निजजास ते विषम्।

सारे जगत के पालक, वेद वाणी के कवि परमात्मा ने मेरे अंदर ऐसी वाक् शक्ति दी है कि मैं उससे तेरे उग्र विष को अवश्य ही नष्ट कर दूँगा। मैं तेरे सर्पि के दाँतों के चिह्नों को तथा सर्प के अंग से स्पर्श होने के प्रभाव को मुझ सर्प चिकित्सक ने वश में कर लिया है। अब तो तेरा विष रेत में पड़े पानी की तरह नष्ट हो जायगा। इस प्रकार रोगी को बतावें कि देखो भय मत करो, साँप के काटने से कोई मरता नहीं-आदमी तो भय से मरता है और जब मैं चिकित्सा कर रहा हूँ तब तो तुम कभी मर ही नहीं सकते। इस आश्वासन एवं हस्ताभिमर्श द्वारा साँप का विष बड़े आराम से उतारा जा सकता है।

परन्तु मंत्र द्वारा चिकित्सा करने वाले व्यक्ति को गंभीर, सत्यवादी, संयमी, संकल्प प्रधान, हितचिंतक और उदार प्रवृत्ति का होना चाहिए।

इस प्रकार वेदों में अन्य सभी रोगों की मानसिक चिकित्सा का वर्णन है। इसमें चिकित्सक को बहुत कुछ प्रयत्न करना पड़ता है। बहुत से रोगियों की हमने स्वयं चिकित्सा की है और बिच्छू का विष सिरदर्द, आधासीसी, पेट दर्द तथा स्वप्नदोष के अनेक रोगियों पर आश्चर्यजनक असर देखा है। आशा है पाठक इस पर विचार करेंगे।


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