जीर्ण रोग-उनका कारण और निवारण।

February 1949

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(ले.- विट्ठलदास मोदी सम्पादक ‘आरोग्य’ एवं संचालक आरोग्य मन्दिर, गोरखपुर)

आधुनिक सभ्यता की उन्नति के साथ-साथ मनुष्य अपने स्वाभाविक जीवन से अधिकाधिक दूर होता गया है और उसका जीवन इतना अप्राकृतिक हो गया है तथा उसने अनजाने में ऐसी आदतें डाल ली हैं जिनके कारण उसका शरीर रोग का निवास बन गया है। यहाँ तक कि रोग उसे अस्वाभाविक नहीं मालूम होते। वह यह समझना भूल गया है कि शरीर का स्वभाव ही स्वस्थ रहना है।

जो स्त्री पुरुष पूर्णतया अथवा करीब-करीब स्वस्थ रहते हैं उनके जीवन का यदि निरीक्षण किया जाय तो ज्ञात होगा कि उनको इसके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। मन और शरीर को जब स्वस्थ रहने की आदत पड़ जाती है तब रोग को स्थान नहीं मिलता।

यदि सजीवता और शक्ति के केन्द्र-स्वास्थ्य को लौटाया जा सके तो जिस प्रकार सूर्य की प्रकाशमान किरणों के आगमन के बाद रात्रि के अंधकार के लिए स्थान नहीं रहता, उसी प्रकार रोगों के लिए शरीर में स्थान न रहेगा।

रोगों को दूर भगाने की विधि जानने के पहले यह जान लेना चाहिए कि रोगों का कारण केवल एक है और गन्दगी को निकाल कर स्वस्थ होने का शरीर का प्रयास है। शरीर का रक्त जब शुद्ध एवं विकार हीन रहता है, कोई रोग नहीं होता, पर जब रक्त की जीवनदायिनी शक्ति क्षीण हो जाती है एवं वह मलयुक्त हो जाता है तो अनेक रोग होते हैं। रक्त में विकार तभी उत्पन्न होता है जब हमारे शरीर के विकार निकालने वाले अवयव मल, मूत्र, पसीना, श्वाँस आदि द्वारा, नित्य पैदा होने वाले विकार को पूर्णतया नहीं निकाल पाते। बचा हुआ विकार शरीर में रह जाता है और रक्त को गन्दा करता है, फिर रोग, कष्ट, दुःख का आगमन होता है। यदि रक्त के विकार युक्त हो जाने की सूचना दुःख, दर्द, पीड़ा के रूप में हमें न मिले और रक्त अधिकाधिक विकारयुक्त होता रहे तो मृत्यु अवश्यम्भावी है। अतः सर फ्रेडरिक के शब्दों में “रोग परमात्मा की एक आशीर्वादात्मक देन है, इसका स्वभाव ही रक्षा करना है। मैं जो यह कह रहा हूँ कि यदि रोग न होते तो मनुष्य जाति कभी की समाप्त हो गई होती, अपने विषय पर बहुत कम जोर डाल पा रहा हूँ।” रोगों के मित्र रूप को पहचानना चाहिए। वे प्रकृति की वह सूचना हैं जिन पर हमें तुरन्त ध्यान देना चाहिए। इस सूचना को शत्रु समझ कर उसे दबाने की कोशिश करने के बजाय हमें रोग के कारण को समझकर उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।

जब सूचना को ठीक-2 समझा नहीं जाता, उसके कारण को दूर करने के बजाय उन्हें दबाया जाता है, सूचना धीरे-2 धीमी एवं उसकी शक्ति मन्द पड़ जाती है। यही से जीर्ण राग की जड़ जमती हैं। यह सूचना हमारी जीवनी शक्ति की सूचक है जो शरीर की सफाई करने एवं रोग करने की कोशिश करती रहती है। इस शक्ति के कमजोर पड़ने का अर्थ है शरीर की सफाई की शक्ति का कमजोर पड़ना जीवनी शक्ति का दास।

जीर्ण रोग को दूर करना इसी जीवनी शक्ति को उभाड़ कर रोग को उग्र रूप में लाने की कला है। जो जितना ही उभाड़ लाने, उसे समझने की कला में निपुण होगा वह उतना ही शरीर को रोग मुक्त करने में सफल होगा।

उपचार के साधन -

प्राकृतिक चिकित्सा में उपचार के साधन हैं-भोजन, जल, वायु, धूप, कसरत। इन सबका सम्मिलित सहारा बड़ी समझदारी के साथ लेना चाहिए। कभी यह न समझना चाहिए कि इनका प्रयोग जितना ही अधिक किया जायगा, लाभ उतना ही अधिक होगा। देखने में यह गलत मालूम हो सकता है पर वास्तविकता यही है। बुद्धिमानी इसी में है कि रोग और रोगी की शक्ति के अनुसार इनका प्रयोग न्यूनाधिक मात्रा में किया जाय। उपचारों का प्रयोग आरम्भ करने के पहले रोगी से उसके औषध प्रयोग का इतिहास और उसके दैनिक भोजन क्रम को अच्छी तरह जान लेना चाहिए। यदि रोगी माँसाहारी है अथवा डाक्टरी दवाओं का अधिक प्रयोग किया है तो ऐसे रोगी का उपचार करते समय बहुत सजग रहना चाहिए और चिकित्सा के साधनों का प्रयोग बहुत अल्प मात्रा से शुरू करना चाहिए। अधिकतर रोगों का कारण विकृत भोजन ही हुआ करता हैं अतः सभी रोगियों का उपचार भोजन सुधार से आरम्भ होना चाहिए।

भोजन -

भोजन जीवन देने वाला तो है ही, जीवन लेने वाला भी है। तीव्र रोगों में अधिकतर लोगों के प्राण भोजन ग्रहण करने के कारण ही जाते हैं। वैसी हालत में कुछ न करके केवल भोजन छोड़ दिया जाय तो प्रायः सभी रोग अपने आप शान्त हो जायं। जीर्ण रोग के रोगी को भी भोजन के इस गुणावगुण पर सदा ध्यान रखना चाहिए। जो भोजन उपयुक्त हो उसे भी उचित मात्रा में ही ग्रहण करना चाहिए। कभी यह न सोचना चाहिए कि जितनी सफाई का काम एक संतरा करेगा, उससे दूना दो सन्तरे। अमृत भी मात्रा से अधिक ग्रहण किया जायगा तो विष का ही काम करेगा।

भोजन को दो मोटे भागों में बाँटा जा सकता हैं। एक कफकारक दूसरा कफ निवारक। कफ निवारक भोजन हैं, कन्द को छोड़कर सभी ताजी हरी भाजियाँ और कटहल, केले को छोड़कर सभी ताजे फल। इनके अलावा सभी खाद्य-पदार्थ जैसे दाल, भात, रोटी, माँस, मछली, तेल, घी, सूखे मेवे, गुड़, चीनी, कफकारक हैं। इसमें सन्देह नहीं कि कफ निवारक भोजन ही रोग दूर करने में सहायक होते हैं पर इसका यह अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को कफकारक भोजन की आवश्यकता ही नहीं है। स्वास्थ्य की दशा में तो है ही, रोग की दशा में भी इसका यथोचित प्रयोग होना चाहिए।

अच्छे परिणाम के लिए कफ निवारक भोजन का प्रयोग खूब समझबूझ कर करना चाहिए। यदि रोगी के भोजन से सभी कफकारक खाद्य-पदार्थ एक साथ निकाल दिये जायेंगे तो सफाई का काम तेजी के साथ चलने के कारण उपद्रव इतने तीव्र एवं अधिक होंगे कि रोगी उन्हें संभाल न सकेगा। अतः सफाई का काम धीरे-2 चलाने के लिए कफकारक भोजन की मात्रा क्रमशः कम करनी चाहिए। एक हद तक सफाई हो जाने के बाद ही केवल कफनिवारक भोजन पर रोगी रह सकता है। रोगी को शक्ति के अनुसार कुछ दिन तक कफ निवारक भोजन पर रखकर फिर थोड़ा सा कफकारक भोजन देने लग जाना चाहिए। कफकारक भोजन में केवल गेहूँ की सादी रोटी और कच्चे दूध का व्यवहार उचित होगा। मान लें कि रोगी सवेरे, दोपहर, शाम अर्थात् तीन बार खाता है तो अल्पारम्भ के अनुसार पहले रोगी का जलपान केवल फलों का किया जाय फिर शाम के भोजन में फलों की और इसके बाद दोपहर के भोजन में कच्ची सब्जियों की सलाद के रूप में अधिकता की जाय। धीरे-धीरे शाम का भोजन भी कफनिवारक अर्थात् फल अथवा कच्ची या पक्की सब्जी, कर दी जाय फिर कुछ समय के लिए दोपहर के भोजन को भी कफ निवारक खाद्य-पदार्थों का कर दिया जाय। एक कार्यक्रम सा बना लेना चाहिए और उसी के अनुसार चलना चाहिए। यदि महीने भर का कार्यक्रम बनाया जाय तो इस हिसाब से एक सप्ताह या तीन-चार दिन तक केवल कफ निवारक भोजन ग्रहण किया जाय। फिर एक सप्ताह के लिए केवल दोपहर को कफकारक भोजन के रूप में रोटी जोड़ी जाय और महीने के शेष दिनों में शाम को भी कफकारक भोजन थोड़ा दूध के रूप में लिया जाय। इस तरह महीने के शेष दिनों में सवेरे फल, दोपहर को कच्ची और पक्की सब्जी और रोटी और शाम को फल और दूध होगा। ज्यों-2 शक्ति बढ़ती जाय और सफाई होती जाय, कफविहीन भोजन का समय बढ़ाते जाना चाहिए और रोग मुक्त होने पर महीने के शेष दिनों के लिए बताया गया संतुलित भोजन ग्रहण करने लग जाना चाहिए।

जल -

रोग को दूर करने के लिए दूसरा पुरअसर साधन है जल। पीने और सफाई के लिए साफ जल की आवश्यकता तो सभी को होती है पर प्राकृतिक चिकित्सा में इसका विशेष उपयोग होता है। शरीर की बड़ी गरमी शान्त करने के लिए कुछ विशेष स्नान निकाले गये हैं। इन स्नानों की संख्या बहुत बड़ी है, इसमें से घर पर चिकित्सा चलाने के लिए साधारण रोगों में लूई-कूने द्वारा बतायें हुए मेहन और पेडू नहान सर्वोत्तम हैं। पेडू नहान शरीर की बढ़ी हुई गरमी को पेडू में लाकर शान्त करता है और मेहन नहान स्नायुओं को ताकत पहुँचाता है। गरमी शान्त करने के बाद ताकत पहुँचाने का काम शुरू होना चाहिए। अतः कुछ दिन सवेरे शाम पेडू स्नान लिया जाय फिर सवेरे के पेडू-नहान के बदले मेहन नहान लिया जाय, इसके बाद दोनों समय मेहन-नहान लिया जाय।

कई लोग यह समझ कर कि यदि ये नहान अधिक देर तक लिए जायेंगे तो लाभ अधिक होगा, इन नहानों को घंटे-घंटे भर तक लेते रहते हैं। इसमें शक्ति का अपव्यय होता है, कमजोरी बढ़ती है और मनोवाँछित फल दूर होता जाता है। नहानों का प्रयोग बहुत बुद्धिमानी के साथ करना चाहिए। यदि नहानों की आवश्यकता अधिक प्रतीत हो तो दो बार के बदले तीन बार नहान लेना ठीक होगा पर एक बार में अधिक देर तक नहीं। गरमी के दिनों में ये स्नान जाड़े के दिनों से अधिक देर तक लिए जा सकते हैं, पर एक रोगी के लिए जितना समय उचित होगा दूसरे के लिए नहीं। समय का निर्धारण भी रोग और रोगी का बलावन देखकर ही निश्चित करना चाहिए। इन नहानों को पाँच सात मिनट से शुरू करके एक बार में दस-पन्द्रह मिनट तक लेना समुचित होगा।

लूईकूने के कट्टर मानने वाले इन नहानों के बाद पसीना लाने पर बहुत जोर देते हैं, यदि रोगी में कड़ी कसरत करने की ताकत नहीं तो वे आग के पास तक बैठने की राय देते हैं। यह गलत है। समझने की बात केवल इतनी ही है कि इन नहानों के लेने से जो ठंडक आती है, वह जानी चाहिए, अर्थात् नहान लेने के पूर्व की हालत हो जानी चाहिए। कहीं इतनी गरमी पड़ रही हो कि पसीना आ रहा हो तो इस नहान के बाद पसीना लाने की राय दी जा सकती है, अन्यथा नहीं। अतः नहान के बाद शक्ति के अनुसार टहलना, दौड़ना, हल्की कसरत करना काफी है। जो अशक्त हैं वे सिर को ढ़ककर नंगे बदन धूप में बैठ सकते हैं अथवा गरम कपड़े ओढ़ सकते हैं।

जिन दिनों केवल कफविहीन भोजन ग्रहण किया जा रहा हो, नहान बन्द रखने चाहिए। सफाई का दोहरा काम चलना अधिकतर रोगियों के लिए बहुत उग्र प्रमाणित होगा।

आंतों की सफाई के लिए जल का प्रयोग एनिमा द्वारा किया जाता है। उपवास रसाहार में इस प्रयोग की नित्य आवश्यकता होती है। फलाहार करते समय अथवा साधारण भोजन करने के दिनों में भी यदि पेट की सफाई अपने आप न हो तो इसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। कुछ लोग एनिमा से इसलिए डरते हैं कि इसकी आदत पड़ जायेगी। यह भ्रम है। साल भर लगातार एनिमा लेने वाले लोगों को इसकी आदत नहीं पड़ी है।

वायु -

वायु के प्रयोग पर बहुत थोड़े चिकित्सक और रोगी ध्यान देते हैं योग में वायु के प्रयोग को प्राणायाम कहते हैं। जिसके विधिवत प्रयोग से अनेक रोग जाते हैं। वायु के सरल प्रयोग से होने वाले लाभ पर दृष्टि न रखना भारी भूल होगी, पर इसका अच्छा प्रयोग स्वच्छ वायु में ही होता हैं। स्वच्छ, साफ वायु में खड़े होकर धीरे-2 नाक द्वारा साँस लेते हुए फेफड़ों को भरना चाहिए और फिर नाक द्वारा ही पूर्ववत निकाल देना चाहिए। कई लोग साँस लेने के बाद उसे फेफड़ों में रोकने की सलाह देते हैं, वायु के फेफड़ों में पहुँचते ही उनकी संजीवनी शक्ति शरीर द्वारा ग्रहण कर ली जाती है अतः बेजान वायु को रोके रखने में कोई लाभ नहीं है।

वायु के प्रयोग की क्रिया दिन में कई बार की जा सकती है। इसका मेल कसरत और टहलने से भी मिलाया जा सकता है। यदि हर समय स्वच्छ वायु में रहने का इंतजाम किया जा सके तो रोग शीघ्रता से जायगा। अतः रोगी को बाग बगीचे अथवा गाँव में खेत के या नदी के किनारे रहना चाहिए। दिनभर शहर में काम करके शाम को स्वच्छ वायु वाले स्थान को लौट जाया जाय तो भी लाभ कम न होगा।

धूप -

लूईकूने ने रोम कूपों को खोल कर पसीना लाने के लिए भाप नहान पर बहुत जोर दिया है। पर हमारे देश में सालभर मिलने वाली धूप से यह काम बहुत मजे में लिया जा सकता है। इसके अलावा धूप की संजीवनी शक्ति का अपना प्रभाव है। उसमें मिलने वाली अल्ट्रावायलेट किरणों में रोगनाश करने की बहुत अधिक शक्ति होती हैं। जाड़े में जब कभी भाप भी ली जा सकती है।

धूप-नहान के लिए दिन में किसी समय भी नंगे बदन धूप में लेटना चाहिए, केवल सिर को गीले तौलिये आदि से ढंके रहना चाहिए। धूप लेने के बाद ठंडे पानी से नहा डालना चाहिये अथवा भीगे कपड़े से बदन को पोंछ डालना चाहिए। धूप नहान शक्ति और आदत के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में नित्य अथवा सप्ताह में चार पाँच दिन अवश्य लेना चाहिए। गर्मी के दिनों में सप्ताह में एक बार ही यह नहान लेने से काम चल सकता है धूप बहुत तेज हो तो केले के पत्तों से ढ़क दिया जा सकता है।

कसरत -

रक्त संचालन को ठीक रखने के लिए कसरत बहुत उपयोगी है। बुढ़ापे का अर्थ ही है रक्त संचालन में कमी। अतः रोगी को रोग भगाने एवं नवीन बनने के लिए कसरत का सहारा अवश्य लेना चाहिए। कोई भी कसरत ठीक है, क्योंकि सभी कसरतें रक्त संचालन में सहायक होती हैं, अतः कसरत नहीं, शक्ति के अनुसार कसरत चुननी चाहिए। टहलना ऐसी कसरत है, जिसे सभी उम्र वाले कर सकते हैं। टहलने में बड़ी कसरतों की जो बुराइयाँ हैं, वे भी नहीं हैं। अतः रोगी की प्रधान कसरत है टहलना।

शक्ति के अनुसार सुबह शाम एक से चार मील तक टहला जा सकता है। चिकित्सालय में कसरत का सबसे अच्छा समय है नहान लेने के बाद। इस समय टहलने से कसरत तो होती ही है, नहान के बाद आवश्यक गरमी भी आती है।

ऊपर बताई विधि से कोई भी जीर्ण रोग दूर किया जा सकता है। पर यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जीर्ण रोग जाने का अर्थ है तीव्र रोग आने की शक्ति आना। जीर्ण रोग के उपचार काल में तीव्र रोग को उभाड़ के नाम से पुकारा जाता हैं। ज्यों-2 शक्ति बढ़ती जाती है, जीवनी शक्ति तीव्र हो जाती है, गन्दगी अथवा रोग के लिए शरीर में रहना कठिन हो जाता है, और वे बाहर आ जाते हैं। यही सफाई की स्वाभाविक क्रिया है। जीर्ण रोग के उपचार करते समय जो उभाड़ हो, उनका तीव्र रोग की तरह ही उपचार होना चाहिए।

कई रोगी यह देखते रहते हैं कि अभी रोग इतना गया, इतना नहीं गया। यदि इतना इतने दिन में गया तो इतना इतने दिन में जायगा। इस दृष्टिकोण के कारण प्रायः निराशा होती हैं। कई बार रोग देखने में प्रायः चला जा सकता है, कोई बाहरी लक्षण प्रतीत नहीं होता, ऐसी दशा में लोग उपचार छोड़कर फिर पुरानी आदतों को पकड़ लेते हैं। ऐसी हालत में रोग फिर होता है और प्राकृतिक उपचार को बदनाम किया जाता है। रोगी को रोग की ओर ध्यान न देकर जीवनी शक्ति को समझाने की कोशिश करनी चाहिए। जब इस हद तक शरीर की सफाई हो जाय, जीवनी शक्ति बढ़ जाय कि शरीर में गंदगी इकट्ठा होते ही शरीर उसे तीव्र रोग के कम में बाहर फेंक दे तभी रोग मुक्त हुआ समझना चाहिए।

रोग जाने के बाद -

रोग जाने के बाद कैसा जीवन-क्रम होना चाहिए, इस पर अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। जिस पथ के ग्रहण करने से रोग हुआ था उसे फिर यदि ग्रहण किया जायगा तो रोग होगा ही, इसमें संदेह नहीं। हाँ, उस रोग का नाम फिर कुछ और पड़ सकता है।

स्वास्थ्य और विचार -

इस लेख को समाप्त करने से पहले में चाहता हूँ कि पाठकगण विचार और स्वास्थ्य के सम्बन्ध को अवश्य समझ लें। रोग भगाने के लिए स्वस्थ विचारों की बड़ी आवश्यकता होती है।

रोग कितना भी भयंकर क्यों न हो, उसकी भयंकरता के सारे विचार रोगी को अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए। जहाँ तक हो सके रोग को सरल समझना चाहिए। इसमें तो संदेह ही नहीं कि उचित उपचार से रोगों की भयंकरता स्वतः चली जाती है। निराशा तो कभी होनी ही नहीं चाहिए। विश्वास रखना चाहिए कि मेरा स्वस्थ होना निश्चित एवं ध्रुव है। ऐसा विश्वास करने की आवश्यकता पर जितना जोर दिया जाय थोड़ा है। इस विश्वास के बल पर रोग भगाकर स्वास्थ्य लौटाया जा सकता है और मृत्यु जीवन में परिणित की जा सकती है।

रोग दूर करने के विचारों से लाभ उठाने के लिए इस बात पर विश्वास करना चाहिए कि मैं स्वस्थ हो सकता हूँ और अवश्य हो जाऊंगा। फिर इस तरह का आचरण कीजिए कि जैसे आप स्वस्थ हैं और हमेशा अपने को शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता, आशा एवं स्फूर्ति का केन्द्र समझिए। फिर ये सभी आपके पास बिना बुलाये आ जाएंगे।


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