धर्म शास्त्र का सार-गायत्री

August 1948

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महामंत्रस्य चाप्यस्य स्थाने स्थाने पदे पदे। गूढो रहस्य गर्भोनन्तो पदेश स मुच्चयः।

(अस्य महामंत्रस्य) इस महामंत्र के (स्थाने स्थाने) स्थान स्थान पर (च) और (पदे पदे) पद पद पर (रहस्य गर्भः) जिनमें रहस्य छिपा हुआ है ऐसे (अनन्तोपदेश समुच्चयः) अनन्त उपदेशों का समूह (गूढः) छिपा हुआ अन्तर्हित है।

यो दधाति नरश्चैतानुपदेशाँस्तु मानसे। जायते ह्युभवं तस्य लोकमानन्दसंकुलम्।।

(यो नरः) जो मनुष्य (एतान्) उन (उपदेशान्) उपदेशों को (मान से दधाति) मन में धारण करता है (तस्य) उसके (उभयंलोकं) दोनों लोक (आनन्द संकुलं) आनन्द से व्याप्त (जायते) हो जाते हैं ।

गायत्री महामंत्र एक अगाध समुद्र है जिसके गर्भ में छिपे हुए रत्नों का पता लगाना सहज कार्य है। इस महासागर में से सभी ने अपने 2 प्रज्ञा, योग्यता और आकांक्षा के अनुरूप रत्न निकाले हैं पर उस अक्षय भण्डार का पार किसी को भी नहीं मिला है। गायत्री के एक एक अक्षर और एक एक पद में कितना गहरा ज्ञान सन्निहित है इसका पता लगाते हुए जो जितना ऊंचा विद्वान है उसे उतनी ही कठिनाई होती है।

अनेक ऋषि महर्षियों ने गायत्री मंत्र के प्रत्येक अक्षर पर विशेष व्याख्याएं की हैं और अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार गायत्री के पदों के अर्थ निकाले हैं। वे अर्थ इतने अधिक, इतने अधिक विस्तृत और इतने मर्मपूर्ण हैं कि इन थोड़ी पंक्तियों में उन्हें खुलासा प्रकट नहीं किया जा सकता, उन्हें तो स्वतंत्र पुस्तक रूप से पाठकों के सामने उपस्थित करेंगे। इन पंक्तियों में तो गायत्री मंत्र का सर्व सुलभ अर्थ संक्षिप्त रूप से लिखा जा रहा है जिससे उसके सामान्य अर्थ को सुविधा पूर्वक समझा जा सके। आइए गायत्री मंत्र के एक एक शब्द का अर्थ करें-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।

ॐ-ब्रह्म

भूः-प्राण स्वरूप

भवः-दुःखनाशक

स्वः-सुखस्वरूप

तत्-उस

सवितुः-तेजस्वी, प्रकाशवान्

वरेण्यं-श्रेष्ठ

भर्गः-पाप नाशक

देवस्य-दिव्य का, देने वाले का

धीमहि-धारण करे

धियो-बुद्धि

यः-जो

नः हमारी

प्रचोदयात्-प्रेरित करे।

अर्थात्-उस सुख, स्वरूप, दुखनाशक श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, प्राण स्वरूप, ब्रह्म को हम धारण करते हैं जो हमारी बुद्धि को (सन्मार्ग की ओर) प्रेरणा देता है।

इस अर्थ पर विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं (1) ईश्वर के दिव्य गुणों का चिन्तन (2) ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना (3) सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्व की हैं।

मनुष्य जिस दिशा में विचार करता है, जिन वस्तुओं का चिन्तन करता है जिन तत्वों पर ध्यान एकाग्र करता है। वह सब धीरे धीरे उस चिन्तन करने वाले की मनोभूमि में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करता जाता है। विचार विज्ञान का विस्तृत विवरण तो कहीं अन्यत्र करेंगे पर उसके सारभूत सिद्धान्तों को हमें समझ लेना चाहिए कि जिन बातों पर हम चित्त को एकाग्र करेंगे उसी दिशा में हमारी मानसिक शक्तियाँ प्रवाहित होने लगेंगी और अपनी अद्भुत सामर्थ्यों के द्वारा सूक्ष्म लोकों में से ऐसे ऐसे साधन, हेतु और उपकरण पकड़ लाती है जिनके आधार पर उसे चिन्तन की दिशा में मनुष्य को नाना प्रकार की गुप्त प्रकट, दृश्य-अदृश्य सहायताएं मिलती हैं और उस मार्ग में सफलताओं का ताँता बँध जाता है चिन्तन का ऐसा ही महत्व और महात्म्य है। ध्यान योग की महिमा किसी से छिपी नहीं है।

गायत्री मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वर में कुछ ऐसे गुणों का चिन्तन है जो मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। आनन्द, दुख का नाश, श्रेष्ठता, तेज, निर्मलता एवं आत्मा की सर्व व्यापकता, आत्मवत् सर्वभूतेषु की मान्यता पर जितना ही ध्यान एकाग्र किया जायगा, मस्तिष्क इन तत्वों की अपने में वृद्धि करेगा।

मन इनकी ओर आकर्षित होगा, अभ्यस्त बनेगा और उसी आधार पर काम करेगा। आत्मा की सच्चिदानंद स्थिति का चिन्तन, दुख शोक रहित ब्राह्मी स्थिति का चिन्तन, श्रेष्ठता, तेजस्विता और निर्मलता का चिन्तन, आत्मा की सर्वव्यापकता का चिंतन यदि गहरी अनुभूति और श्रद्धा पूर्वक किया जाय तो आत्मा एक स्वर्गीय दिव्य भाव से ओत प्रोत हो जाता है आत्मा इस दिव्य आनन्द को विचार क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखता वरन् क्रिया में लाकर इसका सुदृढ़ आनन्द भोगने की और कदम उठाता है।

गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में उपरोक्त गुणों वाले पुँज को, परमात्मा को अपने में धारण करने की प्रतिज्ञा है। इन दिव्य गुणों वाले परमात्मा का केवल चिन्तन मात्र किया जाय सो बात नहीं, वरन् गायत्री की आत्मा का सुदृढ़ आदेश है कि उस ब्रह्म को, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को, अपने अन्दर धारण करें उसे अपने रोम रोम में ओत प्रोत कर लें, परमात्मा को अपने कण कण में व्याप्त देखें और ऐसा अनुभव करें कि उन दिव्य गुणों वाला परमात्मा हमारे भीतर बाहर आच्छादित हो गया है और उन दिव्य गुणों में, उस ईश्वरीय सत्ता में अपना ‘अहम’ पूर्णरूप से निमग्न हो गया है। इस प्रकार की धारणा से जितने समय तक मनुष्य ओत प्रोत रहेगा उतने समय तक उसे भूलोक में रहते हुए भी ब्रह्म लोक के आनन्द का अनुभव होगा यह अनुभव इतना गंभीर है कि आगामी जीवन में, बाह्य आचरणों में उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। उसमें सात्विक तत्वों की मंगलमय अभिवृद्धि न हो ऐसा हो नहीं सकता।

गायत्री मन्त्र के तीसरे भाग में परमात्मा से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए सद्बुद्धि की प्रेरणा करे। हमें सात्विक बुद्धि प्रदान करें हमारे मस्तिष्क को कुविचारों, कुसंस्कारों, नीच वासनाओं, दुर्भावनाओं से छुड़ा कर सतोगुणी ऋतम्भरा बुद्धि से, विवेक से, सद्ज्ञान से पूर्ण करें इस प्रार्थना के अंतर्गत बताया गया है कि प्रथम भाग में बताये हुए दिव्य गुणों को प्राप्त करने के लिए, दूसरे भाग में बतायी गई ब्रह्म धारणा के लिए इस तीसरे भाग में उपाय बता दिया गया है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊँचा उठाओ, उच्च दार्शनिक विचार धाराओं में रमण करो और अपनी तुच्छ तृष्णा एवं वासनाओं के इशारे पर नाचते रहने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे जैसे बुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायगी।

गायत्री मंत्र के गर्भ में सन्निहित उपरोक्त तथ्य में ज्ञान कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञान है, ब्रह्म की धारणा कर्म है और बुद्धि की सात्विकता अभीष्ट प्राप्त की क्रिया प्रणाली एवं उपासना है। वेदों की समस्त ऋचाएं इसी तथ्य को सविस्तार प्रकट करने के लिए प्रकट हुई हैं। वेदों में, ज्ञान कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं, गायत्री के बीज में भी उन्हीं तीनों का व्यावहारिक संक्षिप्त, एवं सर्वांग पूर्ण है। इस तथ्य को, इस बीज को सच्चे हृदय से निष्ठा और श्रद्धा के साथ अन्तःकरण में गहरा उतारने का प्रयत्न करना ही गायत्री की उपासना है। इस उपासना से साधक का सब प्रकार कल्याण ही कल्याण है।

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