स्वास्थ्य पर कपड़ों का प्रभाव

August 1948

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यों तो मनुष्य का प्रत्येक कार्य इसलिए होता है कि वह स्वस्थ रहे और सुखी रहे और रात दिन अपने उस लक्ष्य पर बढ़ता रहे जिसे उसने निश्चित कर रखा है।

स्वास्थ्य और सुख दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं। स्वास्थ्य के बिना सुख नहीं मिलता और सुख के बिना स्वास्थ कैसा?

स्वास्थ्य के लिए खाना-पहनना एक आवश्यक बात मानी जाती है। अन्न और वस्त्र का प्रभाव सिर्फ शरीर पर ही पड़ता हो ऐसा नहीं, मन पर भी पड़ता है। और वास्तविक सुख और स्वास्थ्य का सम्बन्ध शरीर की अपेक्षा मन से अधिक है। मन स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ रहता है और सुख तो शरीर को नहीं, मन को ही होता है लेकिन मन को स्वस्थ रखने के लिए शरीर को स्वस्थ रखना भी आवश्यक हो जाता है।

स्वास्थ्य का सम्बन्ध प्रकृति से है। जो व्यक्ति जितना अधिक प्रकृति के संपर्क में रहता है, अपने आपको प्राकृतिक बनाता है उतना अधिक स्वस्थ रहता है।

प्रकृति ने शरीर को जिस रूप में बनाया है उसी रूप में यदि उसे रखा जाये तो वह प्रकृति के अनुरूप होने के कारण अधिक स्वस्थ रहता है, लेकिन यदि उसे पहना ओढ़ा कर प्रकृति की गर्मी सर्दी की मात्रा से उसकी गर्मी सरदी की मात्रा घटा बढ़ा दें तो शरीर में अनेकों विकार समा जाते हैं। विकार का सबसे बड़ा लक्षण तो यही है कि शरीर प्रकृतिप्रदत्त शीत, उष्ण को सहन न कर सके।

गर्मी सर्दी का अनुभव त्वक् इन्द्रिय से होता है। त्वक् इन्द्रिय-चमड़ा वायु के आघातों से गर्मी तथा सर्दी का अनुभव करता है। अनुभव की मात्रा का सम्बन्ध शरीर की भीतरी गर्मी व सर्दी से होता है। शरीर की भीतरी गर्मी से यदि बाहर की गरमी अधिक होती है तो वह गर्मी का अनुभव करता है और यदि बाहर की गर्मी कम होती है तो ठण्डक अनुभव करता है। गर्मी और सर्दी का यही रहस्य है। शरीर के अन्दर की गरमी का सम्बन्ध रक्त से है और रक्त का सम्बन्ध खाद्य पदार्थों से है। इसलिए जो अन्न मानव के लिए जितने अधिक प्राकृतिक एवं स्वाभाविक होते हैं वे गर्मी को उसी अनुपात से प्रकृति के उपयुक्त बनाये रखते हैं। अप्राकृतिक खाद्य पदार्थ प्रकृति के अनुकूल रखने में समर्थ नहीं होते प्रकृति के विरुद्ध चलना ही तो विकारों को निमन्त्रण देना है। इसलिए स्वाभाविक खाद्य का ही उपयोग करना चाहिए।

जब स्वाभाविक खाद्य की कमी हो जाती है तब शरीर भी स्वाभाविक शक्ति सम्पन्न नहीं होता, अशक्ति बढ़ने लगती है और अपनी उस शान्ति के लिए जिसे प्राकृतिक ढंग से रहने पर अक्षुण्ण रखा जा सकता था, मनुष्य अप्राकृतिक बन्धन में पड़ जाता है। ठण्ड और गरमी के नाम पर कपड़ों के भार को शरीर पर लादना आरंभ कर देता है।

यह बोझ तब और बढ़ जाता है जब मनुष्य शरीर और ऋतुचर्या को भूलकर दिखावे की दुनिया में पैर रखता है क्यों कि मनुष्य अपनी सम्पत्ति और अपने गौरव का प्रदर्शन कभी कभी क्या, प्रायः खाने और पहनने से ही करता है। यह सारी चीजें फैशन या प्रदर्शन का रूप धारण करके मनुष्य को प्रकृति से एकदम अलग कर देती हैं। एक दो उदाहरण लीजिये। तेज गरमी पड़ रही है, शरीर को कपड़े सुहाते नहीं है फिर भी चूड़ीदार पाजामा, बनियान, कुरता, जाकट और कोट पहन कर बाबू साहब चले जा रहे हैं। पसीना चौधारा बह रहा है। जब लौट कर वापस आते हैं, सारे कपड़े उतार फेंकते हैं, गर्मी जो लग रही है। अब बताइए कि यदि ये सब न पहने जाते तो क्या बिगड़ जाता है परन्तु नहीं, फैशन जो है। नाम जो धरा जायगा, लोग उंगलियाँ जो उठावेंगे। ये सब क्या है आत्मा की कमजोरी का चिह्न। तो प्रकृति से अलग होने पर शरीर और मन ही कमजोर होता है ऐसा नहीं है, आत्मा भी कमजोर हो जाती है।

कपड़े का एक मात्र उद्देश्य शरीर रक्षा है प्राचीन भारत के भारतीय इस बात को समझते थे। हमें भारत के प्राचीन इतिहास में कहीं सिले हुए कपड़ों का विवरण नहीं मिलता है। गृहस्थ या राजपरिवार के लोग धोती, दुपट्टा का उपयोग करते थे। ब्रह्मचारी वस्त्र पहनते थे इसका कोई उल्लेख नहीं। उनकी मौंजी और मेखला का ही वर्णन मिलता है। यह तो लंगोटी हुई। पेड़ की छाल भोजपत्र जैसी या मूँज का कोई वस्त्र। पर सारा शरीर वस्त्र विहीन। वानप्रस्थी और संन्यासी भी लंगोटी के अतिरिक्त और कुछ नहीं रखते थे। वे सबके सब ही स्वस्थ, सहिष्णु और सुखी होते थे। मन बड़े विशाल, आत्मा पूर्ण उन्नत। और आज भोजन वस्त्र के, फैशन और स्वाद के दास हम भारतवासी। एक बार मुकाबला तो कीजिए।

आज इस सबको छोड़ने की सिफारिश तो नहीं की जा सकती लेकिन खाने और कपड़े का लक्ष्य शरीर रक्षा है, इसलिए खाते और पहनते समय लक्ष्य के सामने रखने की बात तो कही ही जा सकती है। शरीर रक्षा के लिए जितने कपड़े चाहिए, जैसे चाहिए उतने और वैसे ही पहनने चाहिए और फैशन को तिलाँजलि दे देनी चाहिए।

कपड़े हों तो ढीले जिसमें शरीर को सूर्य का ताप, वायु भली भाँति मिल सके। कपड़ों से शरीर को कैद करने की आवश्यकता नहीं है। शरीर जब गर्मी सरदी सहने के योग्य हो जावे और उसे उनसे बचाने की आवश्यकता अनुभव न हो तभी समझना चाहिए कि मनुष्य प्रकृति के अत्यन्त समीप है और अब उसने विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है।

बस, प्रकृति का सामीप्य लाभ यदि करना है तो यह कभी न भूलना चाहिये कि मनुष्य जीवन कपड़े के लिए नहीं है किन्तु कपड़े मनुष्य के लिए है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118