पितर-तर्पण

August 1948

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(आचार्य बिनोवा भावे)

मनुष्य, देव और पशु जाति के मध्य की जाति है। इसे इन दोनों को जोड़ने वाली कड़ी भी कही जा सकती है। मनुष्य अगर चाहे तो भयंकर से भयंकर पशु तक बन सकता है और इसी तरह सर्वोच्च देव भी। अनुभव से भी मनुष्य को पशु बनते देखा गया है और देव भी। जिस प्रकार पशु बनने की शक्ति उसमें है उसी प्रकार देव बनने की भी शक्ति है इसे अनेकों ने अनुभव किया है। नर से नारायण बनने की बात असम्भव नहीं है। अनेकों महापुरुषों ने इसे करके दिखा दिया है।

आकाश में अनेकों तारा गण भरे पड़े हैं। परन्तु आँखों से सबके दर्शन नहीं होते। कुछ एक तारे दूरबीन से दिखाई दे जाते हैं पर बहुत से तारे ऐसे भी बच रहते हैं जो दूरबीन से भी नहीं दिखाई देते। जीवन भी आकाश की तरह है। इसमें जीवन के अनन्त ठोस सिद्धान्त भरे पड़े हैं। बुद्धि की सहायता से कुछ थोड़े से सिद्धान्त जाने जा सकते हैं और तपस्या की दूरबीन लगाने पर कुछ और सूक्ष्म सिद्धान्त जान लिए जाते हैं। इस तरह के सूक्ष्म सिद्धान्तों को जो जान लेते हैं या खोज निकालते हैं उन्हें ऋषि कहते हैं ऋषि का अर्थ है मंत्र दृष्टा -मंत्र देखने वाला। सिद्धान्त परखने वाला। मंत्र परख करके ही ऋषि चुप नहीं हो जाते सिर्फ उच्चार से ही कोई लाभ नहीं। उच्चार के साथ आचार की भी आवश्यकता होती है।

आजकल समझदारी और कारगुजारी, उच्चार और आचार की एक दूसरी से देखा देखी नहीं है। बूढ़ों का अनुभव और जवानों का उत्साह अलग-अलग रह रहे हैं। स्त्रियों की समझदारी और पुरुषों की कारगुजारी अलग अलग हो गयी है। ब्राह्मणों के शास्त्र और अब्राह्मणों की कला में दरार पड़ गई है। हिन्दुओं की नीति निपुणता और मुसलमानोँ के जोश में एकत्व नहीं रहा। संन्यासी के धर्म और गृहस्थ के कर्म का मेल खत्म हो गया। अगर यह अवस्था न सुधरी तो कथनी और करनी का योग न हुआ तो मनुष्य सफलता से कोसों दूर रहेगा।

जब ज्ञानी लोग कर्म से थकने लगते हैं या कर्म करते हुए उन्हें शर्म आने लगती है तब राष्ट्र का पतन आरंभ होता है गिबन ने रोम के इतिहास में इस नियम को लिख रखा है। भारत के सन्त, कवि और आचार्यों ने भी इसी बात को एक स्वर में कहा है। ‘जो कर्म को छोटा समझकर चलते हैं, वे ज्ञानी नहीं, गंवार हैं।’ यह बात ज्ञानियों के राजा ज्ञानेश्वर ने कही है।

ज्ञान न तो कर्म से डरता है और न कर्म करने को अपनी शान के खिलाफ समझता है। मनुष्य जैसे जैसे ज्ञान में घुलता जाता है वैसे-वैसे ही वह कर्म के रंग में रंगता जाता है। ज्ञान उदय होने से कर्म का झंझट मिट जाता है। लेकिन झंझट मिटने का अर्थ कर्म का नाश नहीं है बल्कि ज्ञान के पहले तक जो कर्म झंझट मालूम होते थे वे ज्ञान का उदय होने पर सरल हो जाते हैं। भगवान कृष्ण ने इस सम्बन्ध में कहा है कि ज्ञान का उदय होने पर अहंकार का नाश हो जाता है तब उसमें लोगों के लिए सहानुभूति पैदा हो जाती है और साहस तथा उत्साह उत्पन्न हो जाने के कारण भय और लज्जा समाप्त हो जाते हैं तब ही तो ज्ञानी दुगुनी शक्ति से कर्म करने लगता है। भूतदया के कारण वह लोक संग्रह का अभ्यासी हो जाता है। बल्कि लोगों को पदार्थ पाठ पढ़ाने के लिए उसका कर्म करना तो कर्तव्य ही हो जाता है

तत्व ज्ञान सीखकर उसे आचार में लाना, उन ज्ञानियों और ऋषियों की परम्परा को कायम रखना ही तो सच्चा तर्पण है। ज्ञान को कर्म से मुक्त कर देने वाले ऋषि तर्पण से ही मानव कल्याण मार्ग की सीढ़ी पार करता है।

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