अज्ञान से ज्ञान की और बढ़िए

August 1948

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(योगीराज श्री अरविन्द)

कई बार ऐसा देखा गया है कि कठिन से कठिन दुख अनायास ही आनन्द में बदल गया है। इसका कारण यह है कि दुःख भी आनन्द ही है क्योंकि दुख की सीमा लाँघ जाने के बाद उसके भीतर का आनन्द ही मिलकर बाहर प्रकट होता है शोक और दुख में आनन्द है। भगवान भीतर रह कर प्रत्येक प्रकार के आनन्द का उपभोग करते हैं क्योंकि भगवान भोग पथ है। भगवान को जिसमें आनन्द आता है या जिसका उपभोग करना चाहते हैं, वे उसी की सृष्टि कर लेते हैं, और उसका सृजन अनिवार्य है। दुख सुख आदि द्वन्द्व तो हम लोगों को देखने में आते हैं, परन्तु वास्तव में ये सब हैं आनन्द के ही प्रकारान्तर।

भगवान के लिए किसी बाहरी रूप की उतनी कीमत नहीं है जितनी कि उसके भीतरी रूप की। इसलिए वे पहले वस्तु के असली स्वरूप अर्थात् भीतरी रूप और कारण को देखते हैं। इसके बाद कल्पनाओं और संभावनाओं के रंग की लीला देखते और अन्त में स्थूल कार्य को अर्थात् पहले अध्यात्म सत्य, फिर होने योग्य एवं संभावित अध्यात्म सत्य और अन्त में स्थूल साकार शारीरिक सत्य को देखते हैं।

(यहाँ श्री अरविन्द का कहना है कि प्रत्येक आकारवान कार्य या स्थूल के तीन रूप हैं। परन्तु मुख्य रूप है कारण अर्थात् भावना। कार्य की दिशा और उसका फलाफल कार्य के देखने से पता नहीं चलता बल्कि उस कार्य के मूल में जो भावना काम कर रही है उससे उसकी दिशा एवं फलाफल का पता लगता है। पहले कार्य भावना रूप आरम्भ होता है, फिर भावना आकार धारण करने की अर्थात् क्रिया अवस्था में आती है फिर आकारवान बन जाती है। इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए। एक गाय है और उस गाय को मारने के ख्याल से एक कसाई उसके पीछे दौड़ रहा है। गलियों में से दौड़ती वह गाय एक चौराहे पर आकर एक भिन्न दिशा में चली जाती है, कसाई चौराहे पर आकर गाय के जाने की दिशा जानना चाहता है। एक प्रत्यक्ष दर्शी वहाँ खड़ा मिलता है, वह गाय का उससे पता पूछता है। आकार प्रकार से वह प्रत्यक्षदर्शी उस कसाई के सम्बन्ध में तथा उसकी भावना को समझ लेता है और गाय जिस रास्ते से गई है उसे विपरीत की दिशा उसे बतला देता है इस प्रकार गाय के प्राण बच जाते हैं। देखने में प्रत्यक्षदर्शी का यह कार्य गलत और सत्य विरोधी मालूम होता है लेकिन सत्य का जो परम लक्ष्य है उसकी सिद्धि इस दिखने वाली मिथ्या से होती है। प्रत्यक्षदर्शी का गलत दिशा बतलाने में गाय की रक्षा ही प्रयोजन था। कार्य का प्रत्यक्ष स्वरूप एवं फल भिन्न होने पर भी भावना जो कार्य की दिशा रही वही वास्तव में विश्वकर्म एवं कर्तव्य रहा है। इसीलिए कार्य देखकर नहीं बल्कि उसके मूल कारण भाव को देखकर ही उसकी दिशा और वास्तविकता का पता लगता है और वही उसका वास्तविक रूप होता है। भगवान इसी रूप को देखते हैं इसी के साथ भोग करते हैं)

लेकिन हम लोग पहले स्थूल पदार्थ देखते हैं फिर सूक्ष्म संभावना और अन्त अध्यात्म कारण पर दृष्टि दौड़ाते हैं। यही कारण है कि पूर्ण सत्य के दर्शन में मनुष्य को अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ता है। भागवत दृष्टि या दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेने पर हम यथार्थ को देख सकते हैं उस यथार्थ सत्य में सब संभावनाओं कल्पनाओं तथा यथार्थ सत्य का प्रकाश भी सम्मिलित है। ईश्वरेच्छा से ही कार्य की सृष्टि होती है। ईश्वरेच्छा रूपी कारण में दृष्टि और सृष्टि, पूर्ण और धारावाहिक (अविच्छिन्न) लीला प्रतीत होती है। इसी दृष्टि के प्राप्त हो जाने पर दुख सुख अभेद हो जाते हैं और ये सबके सब द्वन्द्व मूलरूप में एक और भगवान की लीला मात्र अनुभूत होते हैं।

वास्तव में द्वन्द्व तो अज्ञान के कारण उद्भूत होता है। अपने मूलरूप को भूल जाना यही तो अज्ञान है। हम जिस अवस्था में हैं वही Mind of ignorance मानसिक अज्ञान है। यह अज्ञान मानव के मन और प्राणरूपी क्षेत्र में स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करता है। मन भुलक्कड़ स्वभाव का होने के कारण उसमें सत्य एवं ज्ञान इस प्रकार छिपे हुए हैं कि प्रकाश के सहारे ढूंढ़ने पर उसकी प्राप्ति हो सकती है। मामूली वस्तुएं बाहरी आघात से या भीतरी प्रकाश से रगड़ में व्यक्त हो जाती हैं जो कि स्मरण रखने पर ज्ञात हो जाती हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो का सिद्धान्त था कि ज्ञान कोई दूसरी वस्तु नहीं, भूली हुई वस्तु का स्मरण हो जाना ही ज्ञान है। साधकों को सबसे पहले इसी मन के साथ परिचय करना पड़ता है। ज्ञान का मन इसके ऊपरी तह में है जहाँ पर कि ज्ञान का निवास तथा प्रज्वलित सत्य का राज्य है।

मानव भाव प्रधान प्राणी है। भाव भक्ति का द्योतक है। भक्ति रहने से भगवान का कार्य करने की शक्ति का अभाव नहीं रह जाता, परन्तु एक मात्र इसके द्वारा ज्ञान का विकास नहीं हो सकता, ज्ञान से ही भगवान को अनन्त भाव से समझा जाता है। भगवान की अनन्त विचित्र लीलाओं का ऐक्य न करने से वृहद् सृष्टि का होना असंभव है तब तो उसका जीवन क्षुद्र सृष्टि में ही परिसमाप्त होता है। क्षुद्रता भगवदेच्छा का विरोधी तत्व है क्यों कि कोई भी आघात ऐक्य को अनैक्य में बदल सकता तथा मानव को भगवद्विमुख बना सकता है इसीलिए साधक को वृहद् होकर ज्ञान को पूर्व रीति से धारण करना चाहिए। वृहद् सृष्टि की जड़ समता है जो कि ज्ञान के बिना प्राप्त नहीं हो सकती और न पूर्व ज्ञान आये बिना कोई चीज स्थायी रूप ही धारण कर सकती है-

जिस साधक में पूर्व ज्ञान नहीं होता उसके पतन की बहुत बड़ी आशंका रहती है। जिस समय बुद्धि में शान्ति, गंभीरता और विशालता का आना आरंभ हो जाता है उसी समय ज्ञान का उदय होना प्रारंभ हो जाता है। भक्ति चाहे जितनी प्रबल हो जाय, किन्तु ज्ञान का उदय हुए बिना उसमें भाव च्युति अवश्य ही जावेगी।

साधक को हमेशा ही ध्यान रखना है कि कर्म ही जीवन का एक मात्र उद्देश्य नहीं है। ज्ञान का उदय ही सृष्टि को मूलतः समझना है। जिस समय ज्ञान भक्ति और शक्ति के सम्मिश्रण का रूप धारण करेगा उसी समय सृष्टि सार्थक होगी। इसके लिए संभव है कि अनेकों बार उत्थान और पतन में होकर गुजरना पड़े, मार्ग में बीच में ही विवाद उत्पन्न हो जाय और जीवन के चूर्ण विचूर्ण होने की नौबत आ जावे, लेकिन सतत जागरुक रहने और तीक्ष्ण दृष्टि रखने पर इससे बचा भी जा सकता है। निराश और सशंकित होने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। भगवान के समीप आत्मसमर्पण करके काम करते जाओ, सम्पूर्ण विघ्नों से बचकर ज्ञानावतरण सुसिद्ध होगा इसमें कोई संशय नहीं है।

“कंजूस अन्धा होता है क्योंकि वह सिवा सोने के और किसी सम्पत्ति को नहीं देखता, अपव्ययी अन्धा होता है क्योंकि वह प्रारम्भ को ही देखता है, अन्त को नहीं। रिझाने वाली स्त्री अन्धी होती है क्योंकि वह अपनी झुर्रियाँ नहीं देखती, विद्वान अन्धा होता है क्योंकि वह अपना अज्ञान नहीं देखता, ईमानदार अन्धा होता है क्योंकि वह चोर को नहीं देखता, चोर अन्धा होता है क्योंकि वह परमात्मा को नहीं देखता। “

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