आदिम प्रवृत्तियों का परिष्कार।

August 1948

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

मनुष्य एक उन्नत, अधिक विकसित एवं परिष्कृत पशु है। अपने संघर्ष एवं संयम के बल पर वह निरन्तर ऊँचा उठा है और अब भी उठता जा रहा है। इस उन्नति का मूल कारण निम्न प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों को दबा कर या तो उन्हें बिल्कुल ही विनष्ट कर देना है अथवा उनके प्रकट होने का नवीन उत्पादक मार्ग प्रदान कर देना है।

मनुष्य और पशु में सामान्यतः चार आदिम प्रवृत्तियाँ बहुत बलवान हैं। सर्वप्रथम काम है। काम का मूल अभिप्राय आत्म-प्रभुत्व, अहं का विस्तार और अपने आपको दूसरे में उड़ेल कर अमर रखने की भावना है। काम की प्रवृत्ति अत्यन्त शक्तिशाली है किन्तु यदि ठीक देखभाल न की आप तो यह मनुष्य को उन्मत्त कर देती है। उसे भले बुरे, उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता। इच्छा शक्ति क्षीण हो जाती है यदि यह प्रवृत्ति वासना के रूप में प्रकट होने लगे तो मनुष्य व्यभिचार की ओर अग्रसर हो जाता है। अर्थ, धर्म समाज का आदर, इज्जत सब कुछ खो बैठता है, कहीं का नहीं रहता। अनेक मानसिक तथा शारीरिक रोगों का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्यु का कारण काम वासना की मौजूदगी नहीं है, नाश का कारण तो उसका दुरुपयोग है। अच्छी चीज का भी ठीक तरह उपयोग न किया जाय, तो वह विष बन जाती है। इसी प्रकार काम वासना अनुचित उपयोग दीन धर्म, इज्जत -आबरू स्वास्थ्य सब को नष्ट करने वाला है।

दूसरी है युद्ध प्रवृत्ति। मनुष्य तथा पशु किसी से दबना नहीं चाहते, वरन् वे उन्नति के लिए संघर्ष युद्ध करना चाहते हैं। वे उत्तरोत्तर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहते है। दूसरों के सामने नीचा नहीं झुकना चाहते। “महानत्व” की प्रवृत्ति में रहना चाहते हैं अपने आपको दूसरे से ऊंचा, विकसित, श्रेष्ठ, मजबूत, श्रेष्ठतर सिद्ध करना हम सबका स्वभाव है प्रत्येक पशु में यह प्रवृत्ति प्रस्तुत है। मनुष्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार के प्रपंच करता है, षड़यंत्रों में सम्मिलित होता है और अन्त में लड़ मरता है।

तृतीय प्रवृत्ति भूख या क्षुधा है। क्षुधा निवारण के लिए हम हर प्रकार का कार्य करने को तैयार हो जाते हैं। रुपया पैसा कमाते हैं, व्यापार करते हैं, नौकरी के चक्र में फंसते हैं। किसी कवि की उक्ति है-”अरे यह पेट पापी जो न होता, तो लम्बी तान कर मैं खूब सोता।” मानव तथा पशु में भूख की निवृत्ति के लिए युग युग में नाना प्रकार के कार्य किये गये।

चौथी प्रवृत्ति है भय। पशु तथा मनुष्य भयभीत होकर शीघ्र ही आत्म रक्षा के उपाय करता है। आत्म रक्षा के लिए उसने नाना प्रकार के हथियार औजार हिंसात्मक चीजों की सृष्टि की है। जितने व्यक्ति व्याधि से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनसे कहीं अधिक केवल भय की प्रवृत्ति, डर की कल्पना, रोगों की भावना से मरते हैं। भय का विश्वास मन में आते ही मनुष्य थर थर काँपने लगता है, मृत्यु की बातें उसके मन में डेरा जमाने लगती हैं। मृत्यु के कारणों की यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जाँच पड़ताल की जाय तो विदित होगा कि अधिकाँश व्यक्ति डर के भ्रम से काल के ग्रास बनते हैं।

इन चारों प्रवृत्तियों से लड़ते लड़ते मनुष्य को हजारों वर्ष व्यतीत हो गये हैं। इन वर्षों को हम सभ्यता का इतिहास कहते हैं। इन वर्षों में मनुष्य को पशु श्रेणी से उन्नत होने में बड़ी साधना और संयम से काम लेना पड़ा है। अनेक अवसरों पर उसे प्रलोभन से बचकर भविष्य के लिए अपनी शक्तियाँ संग्रहीत करनी पड़ी हैं। तुरन्त के थोड़े से लाभ को टालकर भविष्य के बड़े लाभ की चिंता करनी पड़ी है। यदि मनुष्य निरन्तर इन प्रलोभनों, आकर्षक विषयों, काम वासनाओं के हेतुओं को उच्च दिशा में विकसित न करता, तो कदापि वह सर्वश्रेष्ठ पशु न बन पाता।

मनुष्य ने काम, युद्ध, क्षुधा, और भय-इन चारों मूल प्रवृत्तियों के खिलाफ युद्ध किया और दीर्घकाल तक किया। इस लम्बे युद्ध के पश्चात उसे नई प्रवृत्तियाँ मिलीं, शील, गुण विकसित हुए, वह अनेक सिद्धियों से सम्पन्न परमेश्वर का श्रेष्ठतम पुत्र-राजकुमार बना। आदर्शवाद की नकारात्मक शब्दावलि में इन चारों प्रवृत्तियों का उसने निष्काम, निःशस्त्र, निरन्न, नैरात्मा के नए नाम दिये। इनके विकास को गुण माना गया। मनुष्य के चरित्र में इनका प्रभुत्व विशेष आदर का पात्र हुआ। जिस अनुपात में इनकी उन्नति हुई, उसी अनुपात में मानव संस्कृति की उन्नति हुई।

महात्मा गाँधी जी ने इन चारों प्रवृत्तियों को राजनीति में प्रविष्ट कराया। काम से उन्होंने “अनासक्ति”, “युद्ध प्रवृत्ति से अहिंसा”, क्षुधा से “उपवास”, भय से “असहयोग” को जन्म दिया। अनासक्ति, अहिंसा, उपवास, असहयोग उन्होंने मानव जीवन के दूरस्थ लाभ के लिए आवश्यक तत्व समझे। इन चारों तत्वों की साधना से मनुष्य पशुत्व से ऊँचा उठकर देवत्व की श्रेणी में जा बैठता है। इन्हीं के अभ्यास से उसका व्यक्तित्व स्थूल से सूक्ष्म, भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर बढ़ता है।

कामवृत्ति का परिष्कार करने के लिए ललित कलाओं का अभ्यास करना चाहिए। संगीत, कविता, चित्रकला, स्थायित्व, मूर्तिकला, नृत्य इत्यादि ऊँचे स्वरूपों से काम प्रवृत्तियाँ परिष्कृत होकर निकलती हैं। उसे भजन, पूजन, ईश्वराधना, धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। भक्त तथा संत कवियों की वाग्धारा में ऐसा मधुर साहित्य भरा पड़ा है, जिसमें अवगाहन करने से अमित शान्ति प्राप्त होती है।

युद्ध प्रवृत्ति के परिष्कार के लिए मनुष्य को अपनी गन्दी बातों से संघर्ष करना सीखना चाहिये। अपनी कठिनाइयों, दुर्बलताओं, परिस्थितियों से युद्ध करने के पर हम बहुत ऊँचे उठ सकते हैं। युद्ध करने लिए हमारे पास अनेक शत्रु हैं यदि हम श्रेष्ठता का भाव दूसरों में जाग्रत करना चाहते हैं, तो हमें अपने सीख, गुण, ज्ञान अध्ययन द्वारा करना चाहिए। अपने ‘‘अहं’’ का विस्तार करना चाहिए। उसमें पशु, पक्षी, दीन हीन व्यक्तियों को सम्मिलित करना चाहिए। हम जितना संभव हो दूसरों को प्यार करें उनके लिए यथा संभव प्रयत्न करें। उनका शुभ चाहें। दूसरों से हम जितना प्रेम करेंगे, जितना त्याग करेंगे उतना ही इस प्रवृत्ति का परिष्कार होगा।

क्षुधा कई प्रकार की होती है-भोजन, काम, प्रसिद्धि, यश, कीर्ति इत्यादि इन सभी की प्राप्ति के लिए मनुष्य विविध उद्योग करते हैं। पेट की भूख मिटाने के लिए समस्त जगत कुछ न कुछ करता है। प्रसिद्धि की भूख के लिए वह नीति अनीति तक का विवेक नहीं करता, कामवासना की शान्ति के लिए वह उन्मत्त हो जाता है। क्षुधा पर संयम पाने कि लिए हमें उपवास का अभ्यास करना चाहिए। उपवास आत्म-विकास, आत्मशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रतिक्रिया है। इसी प्रकार काम वासना के संयम के लिए ब्रह्मचर्य का अभ्यास आवश्यक है। उपवास के समय प्रार्थना, स्वाध्याय, भजन, ध्यान, इत्यादि करना चाहिए।

भय को दूर करने के लिए साहस, शौर्य, पुरुषार्थ, शक्ति का विकास करना चाहिए। निराशा और चिंता, उद्वेग और आन्तरिक संघर्ष इसी विकार के अगणित परमाणु हैं। भय की स्थिति के निवारण के लिए मनुष्य को आन्तरिक साहस का उद्रेक करना चाहिए। आत्मा सदैव निर्भय है। वह परमेश्वर का अक्षय अंश है। उसे न कोई मार सकता है, न डरा सकता है। उसी का ध्यान करने से साइंस का संचार होता है। भय को मार भगाने के लिए आत्मश्रद्धा की आवश्यकता है, एक मात्र आत्मश्रद्धा की। अपनी आत्मा को प्रतिपादन करो अपने अन्दर उसका सच्चा स्वरूप अनुभव करो तो मन से अनात्म विपत्तियों का आवरण हट जायगा। निर्भयता की निम्न भावना पर मन को एकाग्र कीजिए।

“मैं किसी से नहीं डरता, भूलकर भी डर के जंजाल में नहीं फंसता। मैं स्वतन्त्र और मुक्त आत्मा हूँ। मेरी आत्मा सदा सर्वदा निर्भय है। मैं भीतर बाहर सब जगह आत्मदेव को देखता हूँ। घातक भय के भाव मेरे मन मंदिर में उदय हो ही नहीं सकते। मैं आत्मा का पूर्ण विश्वास करता हूँ मुझे अपने आप में असीम श्रद्धा है। मैं निर्भय रहने का व्रत लेता हूँ।”

उपरोक्त चारों विकारों से मुक्ति प्राप्त कीजिये। स्वच्छन्द जीवन ही वास्तविक जीवन है। आत्म संयम द्वारा ही वह प्राप्त हो सकता है।

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