(पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)
श्रीरामचरित मानस में लिखा गया है-
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक कर पंथ।
सब परि हरि रघुवीरपद भजहु कहहिं सद्ग्रंथ।।
-सुन्दर काण्ड-
काम (विषयाभिलाष) क्रोध, मद (अभिमान) लोभ इत्यादि सब नरक के रास्ते हैं इनको त्याग कर श्रीराम के चरणों में प्रेम करना चाहिये ऐसा सब ही श्रेष्ठ ग्रन्थ कहते हैं।
दंभ मानमद करहिं न काऊ।
भूलि न देहि कुमार गयाऊ।।
-आरण्य0 ।।
श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं कि साधु पुरुष दंभ मान, मद को पास नहीं आने देते और भूलकर भी खोटे रास्ते पर नहीं चलते।
काम क्रोध लोभादि मद प्रवल मोह की धार।
तिन महं अति दारुण दुखद् मायारूपी नारि।।
(आरण्य)
काम आदि मद दंभनजाके।
तात निरन्तर बस मैं ताके।।
(आरण्य)
श्री रामचन्द्रजी कहते हैं कि हे लक्ष्मण ! जिसके शरीर में काम क्रोध लोभ मद मात्सर्य ये विकार नहीं है मैं उसके वश में रहता हूँ।
इन कामादि पापों को अधिक अनर्थकारी जानकर महात्मा तुलसीदासजी श्रीरामचन्द्रजी से प्रार्थना करते हैं-
भक्ति प्रयच्छ रघुपुँगव निर्भराँ मे।
कामादि दोष रहितं कुरुमानसं च।।
(सुन्दर॰ मंगलाचरण)
अपने चरण कमलों की भक्ति दो और मेरे मन को काम-क्रोध-लोभ-मोह मद मात्सर्य इन दोषों से रहित कर दो।
काम क्रोध विहीना ये हिंसा दंभ विवर्जिताः।
लोभ मोह विहीनाश्च ज्ञेयास्त्रे वैष्णवाजनाः।।
(पद्य पु0 7।2।83)
हिंसादंभ काम क्रोधैर्वर्जिताश्चैवयेनराः।
लोभ मोह परिव्यक्ता ज्ञेयास्ते वैष्णवाद्विजाः।।
(पद्य पु0 4।1।21)
इन दोनों वचनों का मर्मानुवाद यही है कि काम-क्रोध-लोभ-मोहादि ये जिसमें नहीं हैं वह विष्णु भगवान का भक्त है।
काम क्रोधादि सं सर्गादशुद्ध जायतेमनः। अशुद्धेमनसि ब्रह्मज्ञानंतच्च विनश्यति।।
काम क्रोधादि के संसर्ग से मन अशुद्ध हो जाता है फिर अशुद्ध मन में ईश्वर ज्ञान नहीं होता।
काम क्रोधं रसास्वादं जित्वा मानं च मत्सरम्।
निर्दम्भविष्णु भक्ता ये तं संतं साधवोमताः।।
काम क्रोध-रसास्वाद (जिह्वा की लोलुपता) मान (अपने में पूज्यभाव) मत्सर (डाह) इन को त्याग कर जो भीतर से (न कि दिखावे के लिये) विष्णु भगवान के भक्त हैं वे संत कहे जाते हैं।
वेदास्त्यागश्चयज्ञाश्र नियमाश्च तपाँसि च।
न विप्र्र्रदुष्टभावस्य सिद्धिंगच्छन्ति कर्हिचित्।।
(मन॰ 2।91)
वेदाध्ययन, दान (न्याय पूर्वक पैदा किया द्रव्य सुपात्र को देना) यज्ञ, नियम तब ये सब विषयासक्त पुरुष को फलदायक नहीं होते।
कामः क्रोधश्च लोभश्च मदोमोहश्च मत्सरः।
नजिताः षडिमे यस्त तस्य शाँतिर्नसिद्धचति ।। 106
(सर्व वेदान्त सिद्धान्त सार संग्रह)
काम, क्रोध, मोह, मद, और मत्सर ये छः विकार जिस पर नहीं जीते गये अर्थात् हृदय में रहे आये तो उस पुरुष को शाँति प्राप्त नहीं होगी।
ईर्ष्या शोक भय क्रोध मान द्वेषादयश्चये।
मनो विकारास्तेऽप्युक्ताः सर्वे प्रज्ञापराधजाः।।
(चरकसूत्र स्थान अ॰ 6)
ईर्ष्या, शोक, भय, क्रोध, मान, द्वेषादि ये बुद्धि के दोष से उत्पन्न हुए मन के विकार हैं।
काम क्रोधो परित्यज्य लोभ मोहौ तथैव च।
ईर्ष्या मत्सर लौल्यं च यात्रा कार्या ततो नृभिः।।
(स्कं0 पु0 7।28।7)
काम क्रोधो परित्यज्य लोभमोहौ तथेव च।
इर्ष्या दंभस्तथालस्यं निद्रा मोहस्त्वहंकृतिः।।
एतानि विघ्न रूपाणि सिद्धिविघ्न कराणितु।।
(स्कं0 पु0 7,1।52।5)
काम, क्रोध, ईर्ष्या, दंभ, इत्यादि को त्याग कर तीर्थ यात्रा करनी चाहिये। और ये काम क्रोधादि सिद्धि में विघ्न करने वाले हैं।
पर द्रोहधियोयेच परेर्ष्या कारिणश्चये।
परोपतापिजो ये वै तेषाँ काशी न सिद्धये।।
(स्कंद पु0 4।21103)
जो दूसरे का अनिष्ट चिन्तन करता है, दूसरे की तरक्की को नहीं देख सकता है और दूसरे को पीड़ा देता है ऐसे पुरुषों को काशी वास सिद्धि दायक नहीं।
यदि कामादि दुष्टात्मा देवपूजा परोभवेत्।
दंभाचार स विज्ञेयः सर्वपातकिभिः समः।।
(नारद पु0 33।39)
काम क्रोधादि से जिसका मन मैला है और फिर ऐसा मनुष्य देव पूजा करे तो समझना चाहिये कि यह पुरुष बड़ा पापी है दूसरे को ठगने के लिये ढोंग बना रखा है।
कामः क्रोधस्तथालोभो मद मोहि चमत्सरः।
रिपवः षडविजेतव्याः पुरुषेणविजाभता।।
(विष्णो, धर्मोत्तर पु0 3।233।255)
बुद्धिमान पुरुष को काम क्रोधादि 6 शत्रुओं को जीतना चाहिये।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशन मात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेसत त्रयत्यजेत्।।
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारै स्त्रिभिर्नरैः।
आचरत्यात्मन श्रेयस्ततो याति पराँगतिम्।।
(म॰ मी0 15।21।22)
अपनी आत्मा का नाश करने वाले काम क्रोध लोभ ये 3 नरक के दरवाजे हैं इसलिये इन को त्यागना चाहिये।
इससे छूटा हुआ पुरुष अपना कल्याण कर परम गति को प्राप्त कर सका है।
काम क्रोध मद लोभ की मचली मन में खनि। तब लों पंडित मूरखा तुलसी एक समान।।
उपरोक्त लेख का साराँश निम्न लिखित वचनों में स्पष्ट होता है-
न क्रोधो नच मात्सर्य नलोभो नाश्भ मतिः।
भवन्ति कृतपुन्यानाँ भक्तानाँ पुरुषोत्तमे।।
(म॰ भा0 अनु0 149।133)
क्रोध, डाह, जलन, लोभ अशुभमति (औच्छी समझ) इत्यादि बातें भगवान के पुण्यात्मा भक्तों में नहीं होतीं।
इसलिये-
संत्यज्य काम क्रोधं च लोभ मोहं मदंतथा।
परापवाद निन्दाँच भजध्वं भक्तितो हरिम्।।
(नारद पु0 30।103)
काम (विषयभोगों में आसक्ति) क्रोध लोभ मोहादि को त्याग कर भगवान् का भजन करना चाहिये।
पूजयेद्यो नरोधीमान् शालिग्राम शिलाँ वराम्।
तेनाचार वताभाव्यं दंभलोभ वियोगिना।। 18।।
परदार परदृव्य विमुखेन नरेण च।
पूजनीय प्रयत्नेन शालिग्राम सचक्रकः।
इन वचनों का मर्मानुवाद यही है कि हिंसा चोरी, व्यभिचार आदि दुष्कर्मों से बचकर देव पूजन करना चाहिये।
योवैवाड. मनसी सभ्यग् संमच्छन् धियायतिः।
तस्य व्रतं तपोदानं स्रवत्याम घटाम्बुवत्।
तस्मान्मनो वचः प्राणान् नियच्छेन् मत्परायण
(मा0 11।16।48)
जो संन्यासी वाणी को असत्यादि से और मन को असद्विचार से नहीं रोकता उसके व्रत, तप, दान सब नष्ट हो जाते हैं जैसे कच्चे घड़े से जल निकल जाता है इससे जो मेरे में लगा हुआ पुरुष है वह मन वचन और प्राण इनको रोके।
सारांश यही है कि मन, वाणी शरीर के पाप कर्म (हिंसा चोरी व्यभिचार आदि) से बचता हुआ नाम जपादि कर्त्तव्य है। अन्यथा निष्फल है मालती बसन्त, चन्द्रोदय आदि बहुमूल्य औषधि तब ही फलदायक हैं जब उनके साथ कुपथ्य से परहेज है।
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