साधक की साधना का फल

August 1948

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(श्री अरविन्द)

मानव जाति को दिन प्रतिदिन शनैः शनैः उन्नति के पथ पर अग्रसर करना, एक उन्नत पथ से दूसरे उन्नत पथ पर पहुँचाना समुच्चय की दैवी शक्ति तथा तुरीय के महत् आनन्द द्वारा मनुष्य को देवता की भाँति बनाना ही भगवान की लीला का उद्देश्य है। अनन्त युग से अनेक प्रकार के रूप धारण करके भगवान इस प्रकार लीला करते आ रहे हैं। उनकी यह लीला इस विराट विश्व में अविच्छिन्न रूप से अनन्त काल से होती चली आती है। उन्होंने स्वर्ग को मर्त्य बना दिया है और इस पृथ्वी अनन्त धाराओं द्वारा अमृत बरसाया है। इसलिए जब तक पृथ्वी और स्वर्ग एक न हो जाय, उद्देश्य की सिद्धि न हो जाय साधक की साधना न पूर्ण हो सकती है और न चरितार्थ हो सकती है। अतः मानव समाज के उद्धार का एक ही मार्ग है और वह मार्ग है आत्मसाक्षात्कार एवं शक्ति साधना। क्योंकि बिना इनके जो अशुभ है उससे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। और जब तक अशुभ से मुक्ति नहीं मिलती आत्मा पवित्र नहीं बन सकती। आत्मा के पवित्र बने बिना इस संसार में प्रकाश फैलाने के लिए साधक माध्यम भी नहीं बन सकता। साधक को तो ईश्वर की ज्योति से सम्पन्न होकर संसार की सभी अशुद्धताओं और कुसंस्कारों को दूर करना होगा। सैकड़ों व हजारों प्राणियों के बीच मानव शक्ति की ज्योति फैलाकर उनमें से अविद्या को दूर करते हुए उनके उद्धार का कार्य प्रत्येक साधक को करना है जिससे प्रत्येक व्यक्ति भगवान की लीला का जड़ यंत्र नहीं, चेतन यन्त्र बन सके। भागवत धर्म में दीक्षित हो सके। सच्चिदानन्द के अगाध सागर में निमग्न हो सके।

इस साधना के लिए साधक को उस पथ पर चलने की आवश्यकता है जहाँ से ईसा की पवित्रता व पूर्णता, मुहम्मद का आत्म-विश्वास और आत्म-समर्पण, श्री चैतन्य महाप्रभु का प्रेम व आनन्द तथा रामकृष्ण परमहंस का संसार के सभी धर्मों में समन्वय व एकीकरण करने की बुद्धि व अतिमानव तत्व की प्राप्ति हो।

साधक इस नवीन धर्म के पवित्र स्रोत को मानव जाति के बीच में प्रवाहित करके, उनकी आत्म शुद्धि करके उनकी आत्मा का जिस समय उद्बोधन करावेंगे उसी समय उन्हें सिद्धि मिलेगी और उसी समय पृथ्वी पर स्व-राज्य की स्थापना होगी।

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