बुढ़िया पुराण

September 1946

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(ले.- श्री जग जीवन लाल जी बी.ए. देहली)

पद्मपुराण, गरुड़पुराण, विष्णुपुराण आदि अठारह पुराणों के नाम तो सबने सुने होंगे परन्तु इस उन्नीसवें पुराण का कहीं लेखा जोखा नहीं है। जिस प्रकार वेदों के लेखबद्ध होने से पूर्व वेदों के मंत्र पिता से पुत्र याद करते चलते थे इसी प्रकार आजकल भी बूढ़ी स्त्रियाँ इस पुराण का मनन पाठन करती हैं और अठारह पुराण धरे के धरे रह जाते हैं परन्तु इस उन्नीसवें का निशाना अचूक है। किसी में इतनी शक्ति नहीं कि उसका विरोध कर सके।

हमारी दादी, परमात्मा उन्हें सद्गति दे, इस पुराण की बड़ी निपुण पण्डिता थीं। बात-बात में मीन मेक निकालना अपनी बात को प्रधान बनाना उन का नित्य का कर्म था। इस लेख में हम उनके पाण्डित्य के कुछ उदाहरण सबके मनोरंजनार्थ पाठकों के सन्मुख रखेंगे।

हमारे पिता महोदय धनाढ्य पुरुषों में गिने जाते थे। संसार में उन्हें सब प्रकार का सुख प्राप्त था केवल दुःख था तो यही कि उनकी कोई सन्तान जीवित न रहती थी। बालक चार वर्ष तक का होकर किसी रोग से पीड़ित हो संसार त्याग देता था। दो चार बालक नष्ट हो जाने पर हमारे माता-पिता तथा दादी के दुख का वार पार न रहा। किसी ने कहा ‘आसेव है’ ‘ऊपरी पराई का खलल है’ किसी ने कहा ‘परियों की छाया है, मियाँ अमरोहे वाले का कोप है’ गरज जितने मुँह उतनी बातें। हमारी दादी को भी सोलह आने जम गया कि हो न हो अवश्य ही कोई ऐसी ही बात है। फिर क्या था। सयाने, दीवाने, मुल्लाने, पीर, फकीर, जाहरपीर सब छान मारे। हमारी माताराम गन्डे ताबीजों से गोदनी की तरह लाद दी गई। गुड़गाँवे की जात, मीरा की कढ़ाई और दुर्गा की कुर्बानी, बोली गई, पीर बख्श, स्याना इस असाध्य रोग का चिकित्सक नियुक्त हुआ। धरती में एक गढ़ा खोदा गया उस में माता को खड़ा किया गया। ऊपर से जल गिरा दिया। सामने के कमरे में एक बकरे को कुर्बान करके माता के ऊपर से वार कर चौराहे पर रात के बारह बजे रखवा दिया। लौंग का जोड़ा चावल, सेंदुर और रोली से उस ढोंग की हाट को सजाया गया। परन्तु बात रह गई। हमारा जन्म हुआ और हम जी गये। दादी ने कहा ‘रामजी रखो बालक कितने-कितने जतन से जिया है। इसका नाम भी ऐसा ही रखूँगी’ दादी की व्यवस्था पर न ओमप्रकाश न विद्याभूषण, हमारा नाम रखा गया ‘कूड़ामल’। एक तो हमारी सूरत ही भौंड़ी सी थी जिस पर नाम ने तो सोने पर सुगंध का काम दिया। जिस दिन हमारा जन्म हुआ प्रसव गृह में गंधक की धुनी दी गई। उठावने के पाँच पैसे रखे गये। जब दादी अथवा और कोई बाहर से आता तो थोड़ी सी गंधक आग पर डाल दी जाती थी, उनके विचार में भूत प्रेतों से बचने के लिये यह आवश्यक पदार्थ था। यदि कभी माता हमें अकेला दुकेला छोड़ कर चली जाती थी तो उनकी जान को आ जाती ‘तुम्हें जरा ख्याल नहीं। कन्हें को अकेला छोड़ कर चल दीं यदि परछावाँ पड़ जाय तो पेट पकड़े-पकड़े फिरोगी। हमारे जन्म के कई दिन पीछे हिजड़े और भाँड़ों को खूब बेलें मिलीं। वर्ष भर के अन्दर-अन्दर दादी ने सब देवी देवताओं को मना लिया। नये वस्त्र पहनने हमारे लिये निषेध कर दिये गये, हाँ औरों के बनाये हुए पुराने वस्त्र हमें पहनाये जाते थे। जब हम वर्ष भर के हुए तो कमेटी का आदमी टीके लगाने आया परन्तु हमारी दादी ने शीतला महारानी के कोप के भय से दो चार रुपये देकर उसे टाल दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 9 वर्ष की आयु में हमें चेचक ने आ लिया और एक आँख उसी ढकोसले की भेंट करके आज काने राजा के नाम से प्रसिद्ध हैं। शरीर देखो तो उससे आधे-आधे इंच के गढ़े जैसे किसी ने सिल खोट दी हो। करेला कुछ करवा कुछ नीम चढ़ा। यदि दोपहर को हम कहीं जाते तो दादी प्यार से कहती ‘बेटा दोपहर को बाहर न फिरा करो चुड़ैलों का बासा होता है’ यदि मैं दूध पीकर कहीं बाहर जाता तो राख चटाकर जाने देती थीं। आँखों में काजल डालती तो मस्तिष्क पर काला टिमकना अवश्य लगा देती थी। एक दिन मैंने कहीं जाने को सुन्दर वस्त्र पहने, माता कहने लगी ‘आज तो कूड़ा बड़ा सुन्दर लगे?’ दादी तुरन्त बोल उठी ‘थूक-थूक कहीं नजर न लग जाय’ वहाँ से लौट कर मेरा स्वास्थ्य कुछ ठीक न रहा तो दादी बोली ‘मैंने पहले ही न कहा था कि नन्हें को नजर लग जायेगी अब नोन, मिर्च राई वार कर चूल्हे में डाल। देख धसक आती है या नहीं। अगर धसक न आई तो म्याने को बुलाना पड़ेगा। हमारे जन्म पर पंडित विद्याधर ने जन्मपत्री बनाई और कहा बालक बड़ा भाग्यशाली है परन्तु दसवें वर्ष में पिता को भारी है। इसका उपाय कराओ। राहू चौथे और केतु सातवें घर में है। शनि राहू का स्थान लेना चाहता है दोनों का युद्ध है। शनि महाराज की शान्त का उपाय करो अन्यथा बड़ा कष्ट होगा। दादी के आग्रह पर पन्द्रह दिन तक 2 रुपये रोज पर पंडित जी से जप कराया। शनिवार को छाया दान हुआ तेल और ताँबे का दान हुआ, डाकौत ने पूजन कराया। इस प्रकार चालीस पचास रुपये शनि को शाँत करने में लग गये। एक दिन लछमनिया दासी धूप में पड़ी थी मैं उसे उलांघ गया दादी ने कहा ‘बेटा किसी को उलांघा नहीं करते इससे उसकी आयु कम हो जाती है।’ हव्वे के डर से हमें कायर वीर बना दिया था। जब कभी रोते तो दादी कहती ‘बहू दे क्यों नहीं देती अफीम कुछ देर चैन से तो सोये।’

छः वर्ष के होकर हम पाठशाला में प्रविष्ट हुए। एक दिन जब पाठशाला जाने को तैयार थे कि भौंदू नौकर ने छींक दिया। दादी बोली ‘ठहर जा बेटा अभी छींक हुई। जब परीक्षा के दिन होते तो दही पेड़ा खिला कर भेजती। यदि मार्ग में ब्राह्मण मिल जाता तो और अनर्थ होने का डर होता था। यदि पानी वाला भरे हुए कलश या मेहतर भरा हुआ टोकरा लिए सामने आ जाता तो बस परीक्षा में उत्तीर्ण होने में शंका न रहती थी। पिता जी मेरठ को नौचन्दी देखने जा रहे थे। हम पूछ बैठे ‘बाबूजी कहाँ जा रहे हो।’ दादी ने कहा ‘मेरे मुन्ना, जाते हुए किसी को टोका नहीं करते’।

दादी की बात कुछ बड़बड़ाने की थी। बात-बात में सगुन अपशगुन का अनुमान कर लेती थी। प्रातःकाल पूजा करके आई है, कह रही है, ‘न जाने किस डायन का मुँह देखकर उठी हूँ। दाई आँख फड़क रही है न जाने आज भोजन भी मिलेगा या नहीं।’ बालक खेल रहे हैं और वहाँ जा पहुँची देखकर कह रही है ‘बालकों को तराजू का खेल हो गया है घड़ी-घड़ी कंधे पर धरते हैं तभी तो अनाज को आग लग गयी। दादी के जलाने को यदि हमने कभी छलनी सिर पर रख ली तो चिल्ला उठी, ‘अरे मूर्ख, रख दे बूढ़े बाबा नाराज हो जायेंगे, फोड़े फुँसी करेगा क्या?’

दालान में आई हैं पान खाते-खाते कह रही हैं, ‘कल से गले में दर्द हो रहा है न जाने किसने पानदान ठुकरा दिया है’ इतने में लछमनिया बीच में से आग लेकर निकली वहीं से बरस पड़ी ‘मैंने मुंडी काटी को दसियों बेर समझाया है कि बीच में से आग लेकर न निकला कर। किसी से बैर करवायेगी?’ यदि बीच में माता कुछ बोली तो उन्हीं पर उलट पड़ी बहू सबेरे से तीन बार मेरे मुँह आ चुकी हो कहीं खुरड़े पलंग पर तो सोकर नहीं उठी हो।’ कुरती सीने बैठी हैं इतने में नायन आ जाती है। आप ही आप बड़बड़ कर कहती है, ‘न जाने किस निगौडी को पैरा है अभी कुरता लेकर बैठी थी, यह आ गई, आज तीन दिन हो गये वह कुरता ही खड़ा न कर सकी, जाने इसका मुहूर्त कब आवेगा।’ आँधी वर्षा आ रही है माता समझा रही है नंगे सिर क्यों फिर रही है। इसी प्रकार प्रातःकाल से सायंकाल तक चिन्दी की बिन्दी निकालती रहती थी। होली के दिन थे लोग जादू टौने की चिन्ता में लग रहे थे। तिराहे चौराहों पर बहुत सा सामान कुत्ते बिल्ली खाते फिर रहे थे। दादी ने मैंने कह दिया वहाँ न जाना किसी की झपेट में आ जाओगे। होली का दिन आया उस दिन आटे का दीपक, कुछ रोटियाँ, चावल हमारे ऊपर से वार कर चौराहे पर रखवा दिये गये। चौराहे पर भिश्ती मशक लिये खड़ा था उसने पैसा लेकर पानी बहा दिया।

बालकों के गले में मेवा के हार डाले गये। खूब होली मची। रंग, गुलाल, कीचड़, कालिख, सुनहरी रोगन, कौन सी वस्तु थी जो इस सुअवसर पर काम में न लाई गई हो। हमारे चाचा साहिब ऐसी होली से कोसों दूर भागते थे। द्वार बंद करके घर में बैठ जाते थे। इसी पर दादी बिगड़ बैठती अभागा है वर्ष भर का त्यौहार है। मनहूसियत फैला रखी है। न किसी से बोलना ना चालना। होली के कुछ दिन पीछे बसौड़ा आता। इसमें घर भर बासी खाने में ही सौभाग्य समझता है। मिट्टी के सैनक (बर्तन), सराई कुल्हिय रोटी, चावल, मसूर की दाल, बिनौले, कच्चे चने, सूत का गोला, कढ़ी, कागम का ताब यही सब वस्तुएं चौराहे की माता रानी की भेंट चढ़ाई जाती थीं। जिन्हें महतर अपने टोकड़े में भरता जाता था। बची खुची चीजें कुत्ता खाकर पेशाब कर जाता था। सब बालकों को कौड़ियों के हार पहनाये जाते। झंडू महतर एक मुर्गा लिए खड़ा रहता था और प्रत्येक बालक के सिर पर से फड़फड़ाता और दक्षिणा लेता जाता था, यह सब काम दादी की आज्ञानुसार होता था। न जाने इतनी बातें दादी याद क्यों कर रखती थीं। लड़का बी.ए., एम.ए. की परीक्षा पास करते ही सब पढ़ा लिखा भूल जाते हैं परन्तु वह मरते दम तक कभी एक बात में भी फेल न हुई। गली मुहल्ले, जाति बिरादरी में इसी से उनका मान था। प्रत्येक गूढ़ विषय में उन्हीं से व्यवस्था माँगी जाती थी। जब मुझे भली प्रकार ज्ञान हो गया तो मैंने एक दिन दादी से पूछा ‘दादी ये सब बातें कौन से पुराण, वेद, शास्त्र, संस्कार विधि, शासन पद्धति में लिखी हैं। दादी मन ही मन बुड़बुड़ाने लगी ‘न जाने यह मुये आरिया कहाँ से पैदा हो गये हैं। सारा धर्म करम भाग के भाड़ में चला गया। बेटा तुम इन बातों को क्या जानो। बड़ी गूढ़ हैं। बड़े-बूढ़ों की चलाई हुई हैं।’ मैंने कहा तो यह कहो बुढ़िया पुराण की बातें हैं।


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