(श्री जनार्दन जी बी. ए. सुलतानगंज)
मनुष्य अपनी कमजोरी को स्वीकार न कर बहाने बनाया करता है। अपनी कमजोरी को जानते हुए भी उसे स्वीकार करने में उसे कुछ अजीब पीड़ा का बोध होता है। नहीं तो अपनी कमजोरी को दूसरी वस्तुओं पर आरोपित करने की क्या जरूरत? यदि खुलकर मनुष्य अपनी कमजोरी को मान ले, तो उसे आगे बढ़ने में अधिक सफलता मिल सकती है। क्योंकि ज्ञान हमें आगे बढ़ने, बुरी परिस्थितियों से छुटकारा पाने के लिए प्रेरणा देता रहता है। अपनी सच्ची अवस्था का ज्ञान क्षण भर भले ही हमें दहला दे, पर वह शक्ति भी देता है। जो इमारत झूठ की नींव पर खड़ी है, उसे गिरने का सदा भय रहता है। क्यों न हम अपनी नींव सच्चाई और ईमानदारी पर रखें, क्योंकि ऐसी इमारत के गिर जाने पर भी हमें दुःख नहीं होगा। होगा भी तो, उसके साथ में संतोष का अमृत रहेगा।
एक बार झूठ बोलिये, फिर देखिये उस झूठ को कायम रखने के लिए आपको कितना अधिक झूठ बोलना पड़ता है। आपका मन उस हालत में भले आपको यह कहकर संतोष दिलाना चाहेगा कि देखो, ‘तुम कितने तेज हो, तुम्हारी चालाकी कोई नहीं समझ सकता।’ पर आपकी आत्मा असन्तुष्ट रहेगी, सदा आशंकित रहेगी। झूठ के बल पर संसार का वैभव आप भले ही बटोर लें, पर आत्म राज्य की स्वर्गीय शाँति आप से सदा के लिये छिन जायेगी। क्या उस अन्तरतम की शाँति के आगे संसार की कोई वस्तु ठहर सकती है?
माना, सत्य का पथ असि-धार है, पर क्या जीवन फूल सा सुकुमार है? जीवन किसलय सा कोमल ही नहीं, कण्टक सा कठोर भी है। जीवन कोमल और कठोर, सत्य और स्वप्न, सूखा और सरस का सम्मिश्रण है। तभी तो जीवन, जीवन है।