दोषों को छिपाने से काम न चलेगा।

September 1946

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जिन्हें मानसिक बल नहीं है। वे ही अपना दोष स्वीकार करने में थरथराते हैं, वे यह नहीं सोचते कि अपराध स्वीकार करना हृदय की दुर्बलता न होकर हृदय का महत्व है। अपना दोष प्रकट कर देने से ही मनुष्य निर्दोष होता है। उस के मन में शाँति प्राप्त होती है, चरित्र निर्मल होता है और अपयश के बदले सुयश प्राप्त होता है। अनुचित कर्म करके दोष स्वीकार करना साधुओं का काम है। जो लोग दोष छिपाते हैं उन्हें चोर समझना चाहिए। जो अपना दोष जितना ही छिपाने की चेष्टा करता है उतना ही वह अपने को दोषी बनाता है। अपने दोषों को छिपा कर कोई साधू नहीं कहला सकता, साधु तभी कहला सकता है जब वह अपना दोष साफ-साफ प्रकट कर दे और अपने किये हुए दोषों पर पश्चाताप करे।

दोष छिपाने के लिये झूठ बोलना एक दोष के रहते दूसरा दोष करने के बराबर है। दोष से दोष का उद्धार कभी नहीं हो सकता। कीचड़ से कोई कीचड़ का दाग साफ नहीं कर सकता। आग से कोई आग को नहीं बुझा सकता है जैसे आग बुझाने के लिये पानी आवश्यक है वैसे ही दोष को दूर करने के लिए सत्य की आवश्यकता है। इसे भली भाँति याद रखो कि झूठ के छिपाने के लिये दूसरे झूठ की आवश्यकता पड़ती है अर्थात् जहाँ मुँह से एक बात झूठ निकली तहाँ दूसरी झूठ आप से आप आ खड़ी होती है। एक झूठ के लिये न मालूम कितने झूठ बोलने पड़ते हैं। इससे उत्तरोत्तर दोषों की ही वृद्धि होती है। जिनका चरित्र बिगड़ा है जो हृदय के दुर्बल हैं वे अपने दोष छिपाने की बहुत कोशिशें करते हैं। आजकल ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है जो अहंकार में फूले रहते हैं। व्यसनों को ही अपना कर्त्तव्य समझते हैं और पढ़ लिखकर भी मूर्खता का काम करते हैं। कितने ही बुद्धिहीन तो जगह जमीन के लिये ‘प्रभुता पाने के लिये’ क्षणिक सुखभोग के लिये और भी अनेक छोटे-छोटे लाभों के लिये अपने अमूल्य चरित्र को कलंकित कर बैठते हैं।

कितने ही लोग अपने दुश्चरित्रजनित दोषों को छिपाने के हेतु बहुत द्रव्य खर्च करके और अनेक प्रकार के बाह्याडम्बर करके सुयश प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं और समय-समय पर कृतकर्म भी होते हैं। किन्तु सत्य ‘सत्य ही है’ असत्य की कभी वृद्धि नहीं होती। इस नियम से उनका नाम और यश थोड़े ही दिनों में लुप्त हो जाता है। जिनका आचरण अच्छा होता है वे बाह्याडम्बर कुछ न करके भी सभ्य समाज में सम्मानित होते हैं और जन साधारण में भी सर्वत्र उनका आदर होता है। जिनका आचरण अच्छा नहीं है, वे यश के लोभ से अनेक अच्छे कामों को भी करके अपने दुश्चरित्र का कलंक दूर नहीं कर सकते। उनके विषय में सब लोग यही कहा करते हैं कि ‘वे कितने ही अच्छे-अच्छे काम कर गये सही, किन्तु उनका जीवन, पवित्रता से रहित था’ ऐसे लोग जन-समाज में धन्यवाद कृतज्ञता के पात्र होते हैं। किन्तु उन पर लोगों की श्रद्धा व भक्ति उत्पन्न नहीं होती हृदय से कोई उन पर प्रेम प्रकट नहीं करता।


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