(तैत्तरीय उपनिषद् से)
जब आचार्य अपने शिष्य को पढ़ा चुके तो उसे अन्तिम उपदेश यह है-
1. सच बोलो, धर्म का आचरण करो। स्वास्थ्य में आलस न करो। आचार्य की सेवा करते रहो और गृहस्थ में प्रवेश करके संसार का क्रम प्रचलित रखो। सत्य, धर्म, कौशल, स्वास्थ्य के नियम, ऐश्वर्य प्राप्ति के साधन करने और पढ़ने-पढ़ाने में आलस्य न करो। धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक कर्मों के करने में आलस्य न करो।
2. माता की पूजा करो पिता की पूजा करो, आचार्य की पूजा करो, अतिथि (अपरिचित अभ्यागत) का सत्कार करो। भले कर्म करो, बुरे कर्म से बचो। हमारे कर्मों में जो अच्छे हैं उनका अनुकरण करो, दूसरों का नहीं। दान श्रद्धा से देना चाहिए, श्रद्धा न हो तो भी देना चाहिये।
दान खुले हाथ देना चाहिए। अधिक न हो सके तो थोड़ा ही देना चाहिए। भय (लोक लाज) से भी दान देना चाहिए और इस विचार से भी कि जिस काम के लिये दान माँगा जाता है, वह भला काम है।
यदि तुम्हें किसी काम के संबंध में संदेह हो कि वह अच्छा है या बुरा है। तो देखो कि कोई ऐसे ब्राह्मण हैं जो समझदार हैं, नेक हैं, कोमल स्वभाव वाले हैं, धर्म को प्यार करने वाले हैं। ऐसे अवसर पर जैसे इन पुरुषों का व्यवहार हो, वैसा ही तुम भी करो।
यह मेरा आदेश है यह मेरा उपदेश है, यह वेद की शिक्षा का सार है, यह वेद शास्त्र की आज्ञा है। इसी प्रकार धर्म का पालन करना चाहिये।