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September 1946

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जिन विश्वासों की प्रेरणा से मनुष्य सत्मार्ग की ओर अग्रसर होता है। उन विश्वासों की धारणा ही बुद्धिमानी है।

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शास्त्र युद्ध में विजय प्राप्त करने की अपेक्षा आत्म जय करने में अधिक वीरता है।

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दुनिया में बुराई की कालिमा अधिक है पर वह भलाई की उज्ज्वलता से अधिक नहीं है। यदि यहाँ भलाई की अपेक्षा बुराई अधिक होती तो कोई भी प्राणी इस संसार में रहना पसंद न करता।

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जीवन का अन्तिम अतिथि है- मृत्यु। उससे डरने का मनुष्य ने अपना स्वभाव बना लिया है पर वास्तव में मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं है।

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हम दुखों को कम कर सकते हैं।

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(पं. मुरारीलाल शर्मा सुरस, मथुरा)

मनुष्य जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट और दुःख भरे पड़े हैं। रोग, आघात, अपूर्णता, वृद्धावस्था, आदि शारीरिक कष्ट, शोक, बिछोह, चिन्ता, भय, क्रोध, द्वेष आदि मानसिक कष्ट, निर्धनता, दासता हानि आदि सामाजिक कष्ट और अप्रत्याशित आकस्मिक विपत्तियों का टूट पड़ना आदि दैवी कष्ट प्रायः पग-पग पर सामने आते रहते हैं। इनसे पूर्णतया बचना किसी के लिए सम्भव नहीं। बड़े-बड़े महापुरुषों और समर्थों को इनके ताप में तपना पड़ा है। तो भी इतना निश्चित है कि सावधान रहने और पहले से बचने एवं उनका मुकाबला करने की तैयारी करते रहने पर मनुष्य बहुत अंशों में उनसे बचा रह सकता है।

अरोग्य के नियमों पर सावधानी के साथ आरुढ़ रहने, आहार-बिहार में नियमिता बरतने और संयम से रहने पर शारीरिक कष्टों से आसानी के साथ हम अपना पीछा छुड़ा सकते हैं। सुसंयमी व्यक्ति अस्वस्थता और अकाल मृत्यु से आमतौर पर बचे रहते देखे गये हैं।

मानसिक कष्टों से बचने के लिए गीता में कहा हुआ- ‘कर्मयोग‘ सर्वोत्तम मार्ग है। कर्त्तव्य कर्म में अपनी प्रसन्नता का केन्द्र निर्धारित कर लेना यही कर्मयोग है। मनुष्य के लिए सबसे अधिक गौरव की, खुशी की और सफलता की बात यह है कि वह अपने कर्त्तव्य कर्म को पूरी जिम्मेदारी, ईमानदारी और गम्भीरता के साथ पूरा करे। सफलता और असफलता मनुष्य के हाथ की बात नहीं है, समय परिस्थिति, अवसर और वातावरण के ऊपर निर्धारित है। कभी-कभी अंधों के हाथ बटेर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में अनावश्यक हर्ष शोक से बचे रहने के लिए हमें सफलता असफलता पर अपनी प्रसन्नता अप्रसन्नता निर्भर न रखनी चाहिये वरन् कर्त्तव्य पालन पूर्णता में ही सुख एवं सन्तोष अनुभव करना चाहिये।

अपने स्वभाव को उत्तम बनाकर हम सामाजिक कष्टों से बचे रह सकते हैं। जैसा व्यवहार अपने लिए चाहते हैं वैसा ही व्यवहार यदि दूसरों के साथ करें तो दूसरों का प्रेम, सहयोग और सम्मान पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। उदारता, दया, क्षमा, मधुर भाषण, सेवा, सहायता, सच्चाई, ईमानदारी, वचन का पालन, सच्चरित्रता एवं विश्वस्तता जैसे गुणों को अपने अन्दर धारण करने वाले दूसरों का हृदय जीत लेते हैं। उसे दूसरों के आक्रमणों से बचने रहने का सुयोग मिलता है और आई हुई विपत्ति को हल्का करने वाले मित्रों की कमी नहीं रहती।

दैवी विपत्तियाँ जिन्हें रोकने में मनुष्य प्रायः असमर्थ सिद्ध होता है, ईश्वरीय इच्छा, पूर्व जन्मों के कर्मफल एवं अदृश्य कारणों के ऊपर निर्भर है। आकस्मिक दुर्घटनाएं, जिनके पहले से कोई आशा नहीं होती कभी-कभी घटित हो जाती है। ऐसे अवसर आने पर धैर्य और साहस को एकत्रित करके मानसिक क्लेश से बच सकते हैं। जब सिर के ऊपर चोट आ ही पड़ी तो रोने, धोने, घबराने, सिर धुनने और पुराने सुख को याद कर करके अपने अन्तःकरण मग्न होने से शरीर और मन की स्वस्थता नष्ट होती है। बुद्धि ठीक ठिकाने न रहने से गलत कार्य होने लगते हैं और परिणाम स्वरूप नई-नई विपत्तियाँ आ टूटती हैं।

जब तक विपत्ति न आवे तब तक उसे रोकने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिए, पर जब वह टूट ही पड़े तो घबराना और शोक करना व्यर्थ है। धैर्य और साहस को समेट कर उस बिगड़ी हुई परिस्थिति के बीच में नया मार्ग खोजना चाहिए।

दुःख जीवन के साथ है। तो भी यह निश्चय है कि प्रयत्न करने पर हम उनकी भीषणता, भयंकरता और पीड़ा को कम कर सकते हैं।

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घास का सेवा धर्म

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(श्रीमती रत्नेशकुमारीजी नीराँजना, मैनपुरी)

हरी-हरी दूर्वा के कोमल चित्ताकर्षक प्रकृति निर्मित बिछावने पर मैं थक कर लेट गई। कुछ ही क्षणों में मैंने अवसाद और क्लान्ति के मिटने का तथा नवीन स्फूर्ति का शरीर में संचारित होने का अनुभव किया। मेरा हृदय कोमल भावों से भर उठा। मैंने कृतज्ञतापूर्वक नन्ही दुर्वा से पूछा-हम सब तुमको मसलते, कुचलते, नोंचते, काटते रहते हैं फिर भी, जब कभी भी हम तुम्हारे निकट आते हैं स्फूर्ति और ताजगी ही पाते हैं ऐसी दिव्य अनन्त क्षमा तुमने कहाँ से पाई है? क्या मुझे भी बतलाने की कृपा करोगी?

नन्ही हरित दूर्वा प्रसन्नता पूर्वक प्रेम मधुर स्वर में कहने लगी-’सेवा ही मेरा एक मात्र जीवनोद्देश्य है, मेरा परम धर्म है, तुम्हारे थके हुए पगों तथा शान्त शरीर को नव स्फूर्ति प्रदान करने के लिये मैं हर समय अपना कोमल हृदय पथ पर बिछाये रहती हूँ। किसी की भी सेवा का सुअवसर प्राप्त होवे इस आशा में उत्कण्ठा पूर्वक नयन पथिकों की ओर लगाये रहती हूँ। उसी सेवा का सुअवसर तथा सौभाग्य देकर जब कोई मुझे कृतार्थ करता है तब मैं उससे भला रुष्ट क्यों होने लगी? मैं तो इसके लिये उसका आभार मानती हूँ। विश्व सेवा में किसी तरह भी ये क्षण भंगुर शरीर काम आ सके इससे बढ़कर और सार्थकता ही क्या हो सकती है? हाँ तब अवश्य ही सन्ताप होता है जब कोई व्यर्थ ही उखाड़-उखाड़ कर फेंक देता है अथवा अकारण ही नोंच मसल कर नष्ट कर डालता है। यह सोच कर कि किसी के काम न आ सकी व्यर्थ ही जीवन नष्ट हो गया। पर विश्व-सेवा का व्रती हृदय में किसी के लिए भी सद्भावनाओं तथा शुभकामनाओं के अतिरिक्त और रख ही क्या सकता है? अतः यही सोच लेती हूँ कि उसने अज्ञानवश ही मेरा जीवन व्यर्थ किया है प्रभु उसे ऐसी सद्बुद्धि दे कि आगे वह किसी का भी जीवन इस प्रकार नष्ट न करे।

मेरा मस्तक श्रद्धा से नत हो गया। आह! मानव समाज अपनी श्रेष्ठता, सहृदयता तथा उच्च विचारों पर गर्व करता है काश, हम इस नन्ही दुर्वा की भी समता कर पाते? प्रभु हमें मिथ्याभिमान से बचा कर नन्ही दुर्वा के पदानुसरण की शक्ति दें।

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साधना में धैर्य की आवश्यकता

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(योगी अरविन्द)

साधना के समय साधक को पूर्ण साहस और धैर्य रखना चाहिये, सिद्धि लाभ करने में कितना ही समय क्यों न लगे साधक को आकुल नहीं होना चाहिए। साधक को असाधारण धैर्य करना चाहिए और यदि इस बीच में कोई अनर्थकारी घटना उपस्थित हो जाय तो भी साधक को घबरा कर साहस नहीं छोड़ देना चाहिये। सच्चिदानन्द परमेश्वर सर्व शक्तिमान हैं, चाहे वे कितने ही भीषण गड्ढे में हमें क्यों न फेंक दें, किसी न किसी दिन वहाँ से उवार कर वे हमें अपनी गोद में अवश्य ले लेंगे, यह ध्रुव जानिये।

साधक के लिये व्याकुलता और उत्तेजना त्याज्य है। पहले स्वच्छंद प्रवृत्ति इस प्रकार का आडम्बर खूब करती है कि साधक के मन में उठने लगता है कि खूब आगे बढ़ गये हैं, पर अब अंत में विदित होता है कि लंगर पड़ी जहाज की भाँति हम उसी जगह ज्यों के त्यों पड़े हैं और अंगुल मात्र भी आगे नहीं बढ़ सकें हैं, उस समय भीषण परिताप उपस्थित होता है। जो साधक आत्मसमर्पण का व्रत ग्रहण करके भगवान के हाथों में अपने को समर्पित करके जितना निश्चिन्त तथा संतुष्ट हो सकेगा, उतनी ही शीघ्रता के साथ उसे सिद्धि प्राप्त हो सकेगी साधना अत्यन्त कठिन काम है, पर जो लोग आरंभ में ही इसमें दृढ़ विश्वास करके इस पर निर्भर हो जाते हैं उनके लिए इससे सरल कोई और मार्ग नहीं है।

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कार्य और अकार्य का निर्णय

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(पं.- दीनानाथ जी भार्गव ‘दिनेश’)

गीता शास्त्र कहता है कि परिस्थितियों के अनुसार कार्य-अकार्य का निर्णय करना ही कर्मयोग है। लौकिक मर्यादा, नीति तथा धर्म में भी कर्म करने की कुशलता का नाम योग है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्, परन्तु प्रेम, मैत्री, करुणा आदि भावों में जब स्वार्थ की प्रधानता हो जाती है, तब वे मोह में बदलकर मनुष्यों को धर्म से गिरा देते हैं।

आतताइयों द्वारा अन्याय और छल से छीनी गई स्वतंत्रता प्राप्त करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। अपना-अपना आन्तरिक या बाह्य दोनों ही प्रकार का स्वराज्य खो जाने पर, पराधीनता में धर्म का पालन हो ही नहीं सकता। धर्म का मार्ग ईश्वर का मार्ग है। इस मार्ग में जो भी बाधक हों, उनको हटा देना ही धर्म है।

अर्जुन के सामने यह अपर्द्धम उपस्थित हुआ था और यही मीरा के सामने धर्म क्षेत्र में। भगवान ने जो धर्म मार्ग अर्जुन को दिखाया, वही तुलसीदासजी ने मीरा को दिखाया था। प्रहलाद और ध्रुव ने इसी मार्ग पर चलकर धर्म और मोक्ष लाभ किया। भरत, विभीषण, गोपिकाएं सब ने धर्म विरुद्ध पारिवारिक बंधन को तोड़ दिया।

युद्ध भूमि में भगवान् ने इसी बात को कर्मयोग का उपदेश देकर सिद्ध किया। कौरवों की ओर उनके साथ रहने वाले अच्छे और बुरे सभी को सद्गति इसी में थी कि वे अपने अकार्यों का फल भोगते हुए संसार के सामने अधर्म का फल प्रकट करें और यह दिखावें कि अधर्म का पक्ष चाहे कितना ही प्रबल क्यों न हो, प्रलोभन देकर वह चाहे अतुल बलधारियों को अपनी ओर मिला लें, परन्तु भीष्म और द्रोण जैसे इच्छा मृत्यु महापुरुषों का भी अधर्म पक्ष ग्रहण कर लेने से अन्त होता है। विजय वहीं है, जहाँ धर्म है।

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जीवन की बागडोर आपके हाथ में है।

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(श्रीमती कमल सेठी, बी. ए. प्रिवयस)

भाग्य ने जहाँ छोड़ दिया, वहीं पड़ गये और कहने लगे कि हम क्या करें किस्मत साथ नहीं देती सभी हमारे खिलाफ हैं, प्रतिद्वंद्विता पर तुले हैं। जमाना बड़ा बुरा आ गया है। यह मानव की अज्ञानता के द्योतक पुरुषार्थहीन विचार हैं, जिन्होंने अनेक जीवन बिगाड़े हैं।

साधारणतः लोग समझते हैं कि वर्तमान सुविधाएं अथवा असुविधाएं पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार हैं, मनुष्य भाग्य के हाथ में कठपुतली है, खिलौना है, वह मिट्टी है जिसे समय असमय यों ही मसल डाला जा सकता है। यह भाव अज्ञान, मोह एवं कायरता के प्रतीक हैं।

अपने अन्तःकरण में जीवन के बीज बोओ। साहस, पुरुषार्थ, सद्संकल्पों के पौधों को जल से सींच-सींचकर फलित-पुष्पित करो। साथ ही अकर्मण्यता की घास फूँस को छाँट-छाँट कर उखाड़ फेंको। उमंग, उल्लास की वायु के हिलोरें उड़ाओ।

आप अपने जीवन के भाग्य, परिस्थितियों अवसरों के स्वयं निर्माता हैं। नव जीवन को उन्नत या अवनत कर सकते हैं। जब आप सुख सन्तोष के लिये प्रयत्नशील होते हैं, वैसी ही मानसिक धारा में निवास करते हैं तो संतोष और सुख आपके मुख मण्डल पर छलक उठता है, जब आप दुःखी क्लाँत रहते हैं तो जीवनवृत्त मुरझा जाता है और शक्ति का ह्रास हो जाता है।

शक्ति की, प्रेम की, बल और पौरुष की बात सोचिये, संसार के श्रेष्ठ वीर पुरुषों की तरह स्वयं परिस्थितियों का निर्माण कीजिए। अपनी दरिद्रता, न्यूनता, कमजोरी को दूर करने की समर्थ आप में है। बस केवल आँतरिक शक्ति प्रदीप्त कीजिए।

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क्या संसार मिथ्या है।

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(पं.- लक्ष्मीनारायण जी ‘लक्ष्मन’, मैनपुरी)

हर एक तथ्य से दो प्रकार ग्रहण किया जा सकता है। एक अर्थ रूप में दूसरे अनर्थ रूप में। समदृष्टि रखना अर्थात् सब में परमात्मा का अंश देखना, आत्मतुल्य समझना और यथोचित व्यवहार करना यह अर्थ हुआ। समदृष्टि रखने के सिद्धाँत को सुनकर माता के समान शूकरी का स्तनपान करना, पिता के समान गधे के चरण दबाना और आचार्य के समान ऊंट का अभिवन्दन करना यह अनर्थ है। जो लोग अकल के पीछे लाठी लेकर चलते हैं वे ऐसे ही अर्थ से अनर्थ किया करते हैं।

मेरा स्वभाव सज्जनों से मैत्री पूर्ण व्यवहार करने का है। सत्पुरुषों की सेवा शुश्रूषा करने और उनसे घनिष्ठता बढ़ाने में मुझे आनन्द मिलता है। मेरे इस स्वभाव की आलोचना करते हुए एक ‘विरक्त’ बोले भाई संसार मिथ्या है, यहाँ कोई किसी का मित्र नहीं, किसी से मोह बढ़ाने से क्या लाभ? उनके उस उपदेश में मुझे वैराग्य के महान सिद्धाँत का अनर्थ ही प्रयुक्त होता दिखाई दिया।

संसार मिथ्या है। इस तथ्य का अर्थ यह है कि वस्तुओं का स्वभाव परिवर्तनशील है। जो चीज आज जैसी है कुछ ही समय बाद वह वैसी न रहेगी, समय पाकर उसका रूपांतर हो जायेगा या वह नष्ट हो जायेगी, इसलिये किसी वस्तु को अपनी सम्पत्ति न मानना चाहिए, अपने को स्वामी न बनाकर सेवक रहना चाहिए। इस सीधे-सीधे तथ्य का अनर्थ यह किया जाता है कि संसार की चीजें झूठी हैं, उनसे कुछ प्रयोजन न रखना चाहिए, जरा विचार करें कि यह अनर्थ कितना अज्ञान मूलक है।

यदि संसार मिथ्या है तो मिथ्या संसार की सभी मिथ्या चीजों से दूर रहना चाहिए। भोजन, पानी, हवा, वस्त्र, मकान, पात्र, पैसा सभी मिथ्या है, इनको प्रयोग करने से क्या लाभ? पुस्तकें, माला, देव प्रतिमा यह भी साँसारिक मिथ्या वस्तुओं से ही बने हैं। शरीर भी मिथ्या है, इसके द्वारा होने वाला पाप पुण्य भी मिथ्या है। उपदेश, कथा, कीर्तन, यज्ञ, जप, तप यह भी मिथ्या संसार से ही संबंध है। इन सब बातों को त्याग करके सत्यमय जीवन जीकर कोई व्यक्ति बतावें, तो उसका उपदेश ठीक माना जा सकता है। परन्तु यह सर्वथा असंभव है। ऐसे उपदेशों को अनर्थ ही समझना चाहिये।

गीता में भगवान ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हुए बताया है कि इस विश्व में जो कुछ है सो मैं हूँ। परमात्मा विश्व के कण-कण, में समाया हुआ है। सन्त पुरुष दिव्य दर्शन की मस्ती में मस्त होकर कहते हैं-’जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है’। अध्यात्म का अर्थ समझने वालों को यह संसार परमात्मा का विराट स्वरूप दिखाई देता है, वे लोक सेवा में जीवन अर्पण करके साकार परमात्मा की सच्ची पूजा करते हैं। किन्तु जो अध्यात्म का अनर्थ करने पर उतारू हैं-उनके लिए सब कुछ मिथ्या है। चूँकि उनकी दृष्टि मिथ्या है- नेत्रों में मिथ्यात्व का रोग हो जाने से सारा संसार मिथ्या ही मिथ्या दृष्टिगोचर होता है।

भजन शब्द-भज्-सेवायें-धातु से बनता है। भजन का अर्थ है सेवा परमात्मा की पुनीति कृति इस परम पावन विश्व में, पतित पावन परमात्मा की झाँकी करता हुआ सच्चा भक्त गदगद हो जाता है, भक्त के हृदय में अपार भक्ति होती है। भक्ति प्रेम को ही तो कहते हैं। परमात्मा की भक्ति उसकी साकार मूर्ति इस विश्व की सेवा में है। प्रभु की चलती फिरती प्रतिमाओं की सेवा के लिए जिसका हृदय नहीं उमड़ता, प्राणियों के सुख की वृद्धि और पीड़ा निवारण में भाग लेने के लिए जिसकी अभिरुचि नहीं उमड़ती, वह भक्त नहीं हो सकता।

प्रेम में ही परमेश्वर है इसलिए हमें परमेश्वर से प्रेम करने के लिए उसकी चलती-फिरती प्रतिमाओं से प्रेम करना चाहिए।

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स्वार्थ बनाम परमार्थ

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जो लोग स्वार्थ साधन को ही जीवन का उद्देश्य मानते हैं उन लोगों से समाज का कोई उपकार होना सम्भव नहीं। स्वार्थी लोग सर्वदा यही सोचते हैं कि किसी तरह अपना मतलब निकलना चाहिये।

अपने मतलब की बात सिद्ध हुई तो सब हुआ। संसार भले ही गा रत हो ‘उससे मेरा क्या हानि क्या लाभ। मैं किस तरह सुखी होऊंगा। मैं कैसे धनी होऊंगा। समाज में मेरा सम्मान कैसे बढ़ेगा।’ जो दिन रात अपने मन में यों ही चिन्ता करता रहता है और उसके साधन में जी जान से लगा रहता है उस अंधे को यह नहीं सूझता कि स्वार्थ त्याग से ही स्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है। वे स्वार्थान्ध यह भी नहीं समझते कि हम दूसरे से जैसे अपने उपकार की आशा रखते हैं। वैसे ही अन्य व्यक्ति भी हमसे उपकृत होने की आशा रखते हैं।

तुम जिस तरह सुख धन और सम्मान चाहते हो। उसी तरह और लोग भी चाहते हैं अपनी किसी चीज के बिगड़ने पर जैसे तुम दुखी होते हो वैसे अन्य लोग भी दुखी होते हैं। जैसे तुम अपने आराम, अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान की बात सोचते हो वैसे ही सब सोचते हैं।

जब तुम दूसरे की जरा सी भी टेढ़ी भौहें, एक बढ़ी-चढ़ी बात और परिहास नहीं सह सकते तब तुम्हीं सोचो, इन बातों को दूसरा व्यक्ति क्यों कर सह सकता है। तब तुम कठोर कण्ठ स्वर से बड़ी उद्दण्डता के साथ परिहास करके उसके हृदय में क्यों कष्ट पहुँचाते हो? जिन बातों को तुम अपने लिए पसंद न करो तुम दूसरे के लिये भी वैसे ही समझो।

तुम अपने अन्तःकरण को सुखी करने के लिए दूसरे का जी कभी न दुखाओ। जो लोग अपने सुख के लिए दूसरे का जी दुखाते हैं वे स्वार्थी बनकर अपने जीवन को कलंकित करते हैं।

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