(प्रोफेसर रामचरण महेन्द्र एम. ए.)
व्यक्तित्व का संतुलन (Personality Integration) आज केवल कल्पना की वस्तु बन गया है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि आज के युवकों का अन्तःकरण विपक्षी भावनाओं के संघर्ष से नाना प्रपंचों झंझटों, ऊहापोह एवं प्रवंचना से युक्त हो रहा है। वे निरन्तर एक आन्तरिक धुँए की धुँधलाहट में भटक से रहे हैं।
व्यक्तित्व के संतुलन से हमारा अभिप्राय मनुष्य के सागोपाँग सर्वतत्वीय विकास से है। ऐसे व्यक्ति के अन्तःकरण की तमाम शक्तियाँ समान अनुपात से विकसित होती हैं। वह जीवन में पग-पग पर आने वाली कठिनाइयों, प्रतिघात एवं प्रतिकूलताओं को सरलता एवं आसानी से परास्त कर देता है। संतुलित व्यक्तित्व में आन्तरिक संघर्ष नहीं आते, ऐसे प्रतिद्वन्द्वी विचार उदित नहीं होते जिससे निर्णय शक्ति का ह्रास हो। संतुलित व्यक्ति वह निर्वाण पद प्राप्त नहीं करता जिसमें मन आशक्ति रहित हो जाता है। जीवन का आनन्द, जोश, उल्लास (Wormth & Passion) एवं तीखापन उसके जीवन को रंगीन बनाते हैं। उसकी भावनाएं नियंत्रण से बाहर नहीं निकलती। निर्भय, श्रद्धा, उत्साह और शाँति के विचारों में रमण करने के कारण उसका हृदय नन्दनवन स्वर्ग बना रहता है।
उसकी वृत्तियों में समन्वय होता है। वह उस सवार की तरह नहीं होता जो चारों ओर दौड़ना चाहता है। यह उस शिकारी की भाँति नहीं होता जो एक पत्थर से कई चिड़ियाँ मारना चाहता है। वह यह जानता है कि वह किधर जा रहा है और वह किस गति से प्रगतिशील हो रहा है।
हममें से प्रत्येक की इच्छा होती है कि किसी प्रकार यह आन्तरिक समस्वरता (Inner Integrity) प्राप्त करें किन्तु ऐसे बहुत कम साधक हैं जिन्हें इसमें पूर्ण सफलता प्राप्त होती है। असंख्य व्यक्ति मनोविकार तथा मनोभाव के स्वार्थी संघर्ष से परेशान रहते हैं।
व्यक्तित्व के सन्तुलन को प्राप्त करने के क्या साधन हैं? संतुलित मन वाले व्यक्तियों का अध्ययन कीजिए आपको ज्ञात होगा कि उनमें सब इच्छाओं से ऊपर एक प्रदीप्त इच्छा सर्वोच्च भावना रहती है। इसे आप जीवन का मुख्य ध्येय भी कह सकते हैं। इसकी तीव्रता के बहाव में दुष्ट आसुरी भाव, छोटी-मोटी कामनाएं, क्षण भंगुर स्वार्थी विकार सब बह जाते हैं। उस ध्येय के दिव्य प्रकाश के स्पर्श से रोम में सद्बुद्धि का संचार रहता है। चाहे आप विश्व को विजय करने की भावना से अनुप्राणित नैपोलियन को ले लीजिए अथवा वायु शक्ति को पराजित करने वाले चार्ल्स लिन्डवर्ग, या संसार में महात्मा ईसा का सन्देश सुनाने वाले बिलियम कैरे (Carey) को ले लीजिए, सभी में उच्च ध्येय की यह तीव्रता उपलब्ध होगी।
इस ध्येय में मन, बुद्धि एवं अन्तःकरण की सम्पूर्ण शक्तियों का ऐसा योग होता है कि सफलता द्वार पर खड़ी मिल जाती है। इस संबंध में एक तत्व परम विचारणीय है? कौन से जीवन ध्येय सर्वोत्तम एवं कौन से निकृष्ट रहेंगे? हम इनके तथ्य को कैसे पहिचाने?
संतुलित व्यक्ति में ईश्वर प्रदत्त एक ऐसी विवेक बुद्धि जाग्रत रहती है, जो नीर-क्षीर विवेक में बड़ी सहायता देती है। व्यक्तित्व तभी ही संघर्षमय विषाक्त एवं असंतुलित बनता है जब यह ध्येय जल्दी में चुन लिया जाता है और कुछ वर्षों पश्चात गलती मालूम होती है। आन्तरिक कोमलता से युक्त व्यक्ति प्रायः इस आन्तरिक पीड़ा के शिकार बनते हैं।
आत्मसाक्षात्कार से उच्च ध्येय कौन हो सकता है? महात्मा ईसा ने कहा है- ‘सर्व प्रथम परमेश्वर के राज्य में पदार्पण करो, उसकी दिव्यता एवं सम्पदा को प्राप्त करो। इसी को लक्ष्य कर गीता में निर्देश है- ‘जो किसी काल में न जन्मता है, न मरता है, न होकर फिर होने वाला है, जो सनातन और पुरातन है, शरीर के नाश से जिसका नाश नहीं होता’ -ऐसे परम पदार्थ की प्राप्ति ही मानव जीवन का परम ध्येय है।
इस परम ध्येय में मन, वचन, कर्म से संलग्न हो जाने से चित्त कुसुम की कलियाँ प्रस्फुटित हो जाती हैं संघर्षमय स्थिति दूर हो जाती है। ऐसे साधक का मन सदा एकरस रहता है।