क्यों यह दुनिया नरक बनायें।

September 1946

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(लेखक- श्री स्वामी सत्यभक्त जी वर्धा)

क्यों यह दुनिया नरक बनायें।

कण-कण में आनंद भरा है लूटें और लुटाये॥

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥1॥

वर्षा मीठा नीर पिलाती।

धरती मैया अन्न खिलाती।

मैया जो कुछ देती हिलमिल बाँट बाँटकर खायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥2॥

परम मित्र ये वृक्ष हमारे।

तन मन के अनमोल सहारे।

फूल खिलाते फल भी लाते देख देख मुस्काये।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥3॥

आसमान सुन्दर महफिल है।

तारों की झिलमिल झिलमिल है।

बरस रहा आनन्द स्वर्ग से आनन्दी बन जायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥4॥

जग तो है आनन्द-कन्दमय।

मन ही करता दुःख द्वंदमय।

मन को अगर जीत लें हम तो स्वर्ग यहीं ले आयें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥5॥

झूठा सब मद मोह छोड़कर।

मानवता से प्रेम जोड़कर।

जग को एक कुटुम्ब समझकर हिलमिल हंसे हंसाये।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥6॥

सब कुछ मेरा सब कुछ तेरा।

दो दिन का आनन्द बसेरा।

बाँट-बाँटकर खायें मिलकर जो मुट्ठी में पायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥7॥

एक कुटुम्बी हो जग सारा।

शासक शासित रहे न न्यारा।

रहें न शोषक शोषित जग में श्रम की रोटी खायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥8॥

सबसे मीठी बोली बोलें।

कपट छोड़ अपना दिल खोलें।

प्रेम दिखायें विनय दिखायें वत्सलता दिखलायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥9॥

कोटि-कोटि वे बन्धु मिले हैं।

तन-मन में मन सुमन खिले हैं।

सब सुमनों की माला गूंथे सब पहने पहनाये।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥10॥

स्वर्ग मोक्ष की छोड़ें आशा।

इस जग में क्यों रहे निराशा।

स्वर्ग बहिश्त यहीं हम पायें मन में मुक्ति नचायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनायें॥11॥

सत्य लोक हो यहीं हमारा।

बरसे प्रेमामृत की धारा॥

सत्येश्वर मन्दिर की झाँकी मन मन में दिखलायें।

क्यों यह दुनिया नरक बनाये॥।12॥

क्यों यह दुनिया नरक बनाये॥।12॥

*समाप्त*


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