सच्चे सौंदर्य को प्राप्त करना

October 1945

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सौंदर्य कितना नयनाभिराम होता है। सुन्दरता को देखने के लिए आँखें कितनी लालायित रहती हैं। जीवित वस्तुओं की शोभा निराली है। उसकी हर एक क्रिया में सौंदर्य भरा होता है। प्राणियों की शरीर रचना, कान्ति, बोली, हलचल, विचार प्रणाली और क्रिया पद्धति सौंदर्य से परिपूर्ण है। मनुष्य से लेकर चींटी तक विभिन्न आकृतियों के प्राणी अपने-अपने क्षेत्र में अनुपम शोभायुक्त हैं। उनकी विभिन्न गतिविधियाँ देखने वाले को अनोखेपन की आश्चर्य युक्त प्रसन्नता में सराबोर कर देती हैं। बालक से लेकर बूढ़े तक सभी में सौंदर्य है। बालक का सरल, युवक का मादक और वृद्ध का गंभीर सौंदर्य यद्यपि आकृति में भिन्न-भिन्न प्रकार है तो भी अपने स्थान पर हर एक ही अनोखा है।

जिन नयनाभिराम सौंदर्य को देखने के लिए हम सदा लालायित रहते हैं वह कहाँ रहता है आइये इस प्रश्न पर विचार करें। क्या वह शरीर में रहता है? नहीं, शरीर में स्वयं कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो इस प्रकार का सौंदर्य प्रकट कर सके। देह में से जीव के निकल जाते ही मनोहर लगता हो उसका प्राण निकलते ही वह सारा सौंदर्य नष्ट हो जाता है। और घृणित, कुरूपता, दुर्गन्ध एवं अस्पर्शता उसमें प्रकट हो जाती है। देह की घृणित अवस्था जो प्राण की उपस्थिति के करण छिपी हुई थी प्राण के निकलते ही खुल जाती है। मरा हुआ देह कितना कुरूप लगता है इसे सभी जानते हैं। कुछ ही समय उपरान्त वह सड़ने लगता है, दुर्गन्ध आने लगती है और कीड़े पड़ जाते हैं। प्राणियों के अतिरिक्त वनस्पति का भी यही हाल है, जब तक पेड़-पौधे हरे-भरे हैं तब तक उनका सौंदर्य है जब वे निष्प्राण हो जाते हैं, सूख जाते हैं तो उनकी सारी मनोहरता नष्ट हो जाती है।

इससे प्रकट होता है कि सौंदर्य का उद्गम केन्द्र आत्मा है। जड़ पदार्थ तो उसके सौंदर्य को प्रकट करने के माध्यम मात्र हैं। जीवों का सौंदर्य, आदर और बड़प्पन उनके शरीर की स्थूलता या आकृति से नहीं वरन् आत्मिक स्थिति के अनुसार आँका जाता है। अल्प प्राणियों की अपेक्षा शारीरिक दृष्टि से मनुष्य पीछे है तो भी वह बड़ा है। यह बड़प्पन उसकी आत्मिक योग्यता के अनुसार है। मनुष्यों में भी प्रभुता उनको मिलती है जिनमें आत्मबल अधिक है। जिनमें प्राण शक्ति अधिक है वे ही सुन्दर हैं। महात्मा गाँधी का सौंदर्य, हजारों फिल्म या नाटक में नाचने वाले तथा कथित सुन्दर अभिनेताओं से अधिक है। गार्गी और मैत्रेयी की सुन्दरता के सामने दुनिया भर की क्रिया मिलकर भी फीकी रहेंगी।

सौंदर्य का मूल स्रोत आत्मा है। सत्य और शिव होने के साथ-साथ आत्मा ही ‘सुन्दर’ गुण वाला भी है। उसके अतिरिक्त और कोई सुन्दर पदार्थ इस सृष्टि में नहीं है। जड़ पदार्थों में जो सौंदर्य दिखाई पड़ता है वह भी जीवित शक्ति का ही दिया हुआ है। बड़े-बड़े महल, यंत्र, सामान, आविष्कार, प्राण शक्ति द्वारा ही निर्मित होते हैं। कुरूप वस्तुओं को आत्मा ही अपनी सामर्थ्य से सुन्दर बनाता है। प्रकृति की रचनाओं का सौंदर्य भी आत्मा द्वारा ही अनुभव होता है। यदि नेत्रों में जीवन शक्ति न हो तो अन्धे मनुष्य के लिए चन्द्र, सूर्य, तारागण, नदी, पर्वत, झरने, बादल, बिजली आदि का सौंदर्य वृथा है, इन सब चीजों से उस अन्धे पुरुष को जरा भी रस नहीं मिल सकता। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के अभाव में अन्य प्रकार के सौंदर्य भी अनुभव के अस्तित्व में प्रकट नहीं हो सकते। वे प्रकृति निर्मित सुन्दर पदार्थ वैसे ही अप्रकट रहेंगे जैसे कि सूक्ष्म परमाणुओं की नानाविधि हलचलें सृष्टि में निरन्तर अपनी विचित्र शोभा के साथ जारी रहती हैं। पर हम उनका न तो कुछ प्रकट अनुभव कर पाते हैं और न उनसे कुछ विशेष रस ले पाते हैं। इसी प्रकार इन्द्रिय शक्ति के अभाव में वह सब भी अदृश्य रहेगा, जिसे हम प्राकृतिक सौंदर्य कहते हैं।

निस्संदेह सौंदर्य का मूलभूत स्थान आत्मा है। उसका अस्तित्व, स्थिति एवं इच्छा ही सौंदर्य की जननी है। जब कोई प्राणी जीवित रहता है तो अपने ढंग से सुन्दर लगता है, जब किसी प्राणी की चतुरता, स्फूर्ति, चैतन्यता, विवेक एवं अनुभवशीलता अधिक होती है तो इन भावों के कारण ही अपने क्षेत्र में सुन्दर दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार रुचि, इच्छा और आकाँक्षा के अनुसार भी वस्तुओं का सौंदर्य घटता बढ़ता है। एक के लिए मद्य अत्यन्त घृणित अस्पर्श्य है, पर दूसरा उस पर सब कुछ न्यौछावर किये बैठा है। एक व्यक्ति वेश्या में घृणित कुरूपता देखता है, दूसरे के लिए वही स्वर्ग की अप्सरा है। पत्नी को अपना पति, माता को अपना पुत्र, अत्यन्त ही मनोरम लगता है भले ही वह दूसरों की दृष्टि में कुरूप हो। आत्मा का प्रकाश जिस पर पड़ता है वही सुन्दर हो जाता है। यह संसार घनघोर अन्धकार के समान है। इसमें अनेकों प्रकार की वस्तुएं रखी हुई हैं, पर प्रकट वे ही होती है जिन पर आत्मा रूपी दीपक का प्रकाश पड़ता है। यह प्रकाश जितना अधिक पड़ता है उतनी ही वे झिलमिलाती हैं, सुन्दर लगती हैं। यह दीपक जितना ही धुँधला या मन्द होगा वस्तुओं की जगमगाहट भी उतनी ही फीकी हो जायेगी।

यदि आप सौंदर्य प्रिय हैं, सुन्दरता को पसन्द करते हैं मनोरम चीजों में दिलचस्पी रखते हैं, खूबसूरती के उपासक हैं, सजावट, सफाई और खुशनुमाई के शौकीन हैं तो सौंदर्य की जड़ को सींचिए। पत्तों के छिड़कने से काम न चलेगा, जड़ में पानी देना पड़ेगा। शरीर, वस्त्र, घर आदि को सुन्दर बनाना आवश्यक है पर इससे भी अधिक आवश्यक जीवन को सुन्दर बनाना है। अग्नि में जितना ईंधन पड़ता है उतनी ही वह अधिक प्रज्ज्वलित और प्रकाशमान होती है। इसी प्रकार अन्तःचेतना को सात्विकता से जितना समन्वित किया जाता है, उतना ही सच्चे सौंदर्य का प्रकाश प्रस्फुटित होने लगता है। दीवार को पोतने और रंगने से वह अच्छी दीखने लगती है पर मनुष्य दीवार से अधिक है वह शृंगारदान की सजावटी पेटी के आधार पर ही सुन्दर नहीं बन सकता। भीतरी सजावट से मनुष्य शोभा को प्राप्त होता है। ज्ञान से, विद्या से, ब्रह्मचर्य से, संयम से, व्यायाम से, पुरुषार्थ से मनुष्य स्वर्ण के समान कान्तिमय बनता है पर उस कान्ति में भी तब चार चाँद लग जाते हैं जब सद्गुण, सद्विचार, सद्भाव और सत्कर्मों द्वारा आत्मा की दिव्य चेतना को प्रदीप्त किया जाता है। आत्मा की सतोगुणी उन्नति में जो सौंदर्य का दर्शन करता है यथार्थ में वही सुन्दरता का सच्चा पारखी है।

सौंदर्य के उपासक का सूक्ष्मदर्शी होना चाहिये। किसी के शरीर को जब सुन्दर देखा जाय तो उस बीज भूत आत्मा की महिमा का आनन्द अनुभव करना चाहिये कि सत्ता कैसी महान है, जिसके स्पर्श से हाड़-माँस जैसे घृणित वस्तुएं ऐसी जगमगा रहीं हैं। जब प्रकृति के सौंदर्य को देखें तो अनुभव करना चाहिये कि परमात्मा कितना सुन्दर है, जिसकी कारीगरी में ऐसी अद्भुत छटा छहर रही है। सृष्टि के सभी पदार्थ अपने-अपने ढंग से सुन्दर हैं। कुरूपों में भी एक विशेष प्रकार का, अपने ढंग का सौंदर्य है। सजीव सृष्टि में सर्वत्र सौंदर्य ही भरा पड़ा है। इस सुन्दरता का उद्गम आत्मा है, परमात्मा है, उसी तत्व को यदि हम देखें हुए स्पर्श और आलिंगन करें तो-जो सुख इंद्रियों को सुन्दर चीजों द्वारा मिलता है। उससे असंख्यों गुना आनन्द उपलब्ध कर सकते हैं। सौंदर्य की मूल सत्ता का रसास्वादन करने वाले आत्मा का सान्निध्य रखने वाले ही अगाध सुन्दरता को देखते हैं और परमानंद को प्राप्त करते हैं।


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