पतिव्रत-योग

October 1945

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(राजकुमारी रत्नेश कुमारी जी-मैनपुरी स्टेट)

पतिव्रत का नाम सुनते ही आधुनिक काल के बहुत व्यक्ति व्यंगपूर्वक मुस्कराने लग जाते हैं। उनका विश्वास है कि इस सुन्दर शब्द जाल के पीछे दासता, परवशता तथा अत्याचार छिपा हुआ है। इसके विषय में मैं तो यही कहूँगी कि भले ही गृहों में उसका ऐसा विकृत स्वरूप अपने प्राचीन आदर्शों को विस्मृत कर देने से हो पर स्वभावतः उसका यह स्वरूप नहीं है। यह भी एक ईश्वरोपासना का प्रकार है।

इसका प्रधान साधक है पतिरूपी मूर्ति में ईश्वर को पूजना। यह इस विश्वास पर अवलम्बित है कि ईश्वर सर्व-व्यापक है यदि पत्थर की मूर्ति में पूजकर उससे अभिन्नता प्राप्त की जा सकती है तो चेतन में उसकी पूजा करने से उपरोक्त सिद्धि क्यों न लाभ होगी? दूसरा एक कारण और भी है कि जिसको सबसे अधिक प्यार करो उसका ही ध्यान अधिकतम काल तक किया जा सकता है।

इस साधना में यह सुगमता भी है कि ईश्वर का वैसे ध्यान करने में कल्पना कठिन हो जाती है और मूर्ति में ध्यान करने में प्रारम्भिक काल में साधक को अपना प्रेम एकाँगी सा प्रतीत होता है। दूसरी ओर से उसे प्रोत्साहन दान की अनुभूति नहीं हो पाती है पर इस पतिव्रत साधना के प्रारम्भिक काल में भी साधिका अनुभव करती है कि प्रभु पति की आँखों से मायालु भाव से उसको देख रहा है। उसके वरद हस्त उसकी रक्षा तथा कामना पूर्ति को सदैव प्रस्तुत हैं। उसको अनुराग भरी वाणी उसकी आत्म-विभोर बना डालने में सहज समर्थ है, ये भावनायें उसके प्रेमोन्माद को बढ़ाकर प्रभुमयी बना देती हैं और वह मुनि दुर्लभ सिद्धि को अनायास प्राप्त कर लेती है।

पति प्रेम यदि प्राप्त न हो तो यह साधना कुछ कठिन अवश्य हो जाती है पर निराशा का अन्धकार अभेद्य नहीं होने पाता, क्योंकि उसके पास इस विश्वास का मणि दीप रहता है कि यदि उसका प्रेम सच्चा एवं अनन्य है तो एक दिन अवश्य ही इन सभी विघ्नों पर उसको विजय प्राप्त होगी तथा भगवान उसको अभिन्नात का वर देंगे। और जीवनपथ पर वह एक त्यागवीर की भाँति सानन्द आत्मोत्सर्ग करती हुई चलती है और निस्सन्देह विजयिनी बनती है।

अब प्रश्न यह हो सकता है कि क्या पतिव्रत साधना का ध्यानयोग ही साधना है? उत्तर में निवेदन यह हैं कि ईश्वर प्राप्ति के सभी साधन इसमें सम्मिलित है कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, शरणयोग, सत्संग, तप, संन्यास इत्यादि प्रधानता किसी भी साधन की हो सकती है शेष सब अंतर्गत रहेंगे उल्लेख प्रधान का ही किया जायेगा। स्मरण रहे उपरोक्त कोई भी साधन ध्यान योग के बिना सफल नहीं हो सकते अतएव उसको प्रधान मानने को हम विवश ही हैं।

अब यह वर्णन करूंगी कि पतिव्रत साधना में इन साधनों का क्या स्वरूप रहता है? ईश्वर स्वरूप पति को मानते हुए उसके ही हित निस्वार्थ भाव से तन, मन और वाणी की प्रत्येक क्रिया ही यही कर्मयोग है। पति को ईश्वर भाव से ध्यान करते हुए एकमात्र उसी का आश्रय लिए रहना और किसी से भी किसी प्रकार की याचना का भाव मन में न रहने देना और यही मेरा सर्व प्रकार से कल्याण करने में समर्थ है यही शरण योग है। हर समय पति में ईश्वर का ध्यान करना उसमें अहं भाव को खो देना ही ज्ञान-योग है। अर्पित करके उनकी सेवा में मन वाणी तथा कर्म से संलग्न रहना ही भक्ति योग है। पतिव्रत की साधना में जो भी विघ्न स्वरूप कष्ट मनोवेदनाएं आयें उनको वीरतापूर्वक सहन करना हताश होकर प्रयत्न न छोड़ना ही तप है। सब तरफ ये आसक्ति हटा कर पति रूपी परमात्मा में ही तद्गत रहना संन्यास है। सतियों के चरित्रों का अनुशीलन तथा यदि संभव हो तो उनके दर्शन तथा उनके उपदेशों का श्रवण तथा मनन ही सत्संग है।

मेरे इस स्वल्प ज्ञान से किसी को जीवन पथ पर कुछ सहायता अथवा शंका निवारण हो सका तो इस लेख को सार्थक समझूँगी।

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रसायनें समाप्त हो गई

अखण्ड-ज्योति द्वारा जो दो रसायनें वितरित की गई थीं। उनसे आश्चर्यजनक एवं आशातीत लाभ हुआ है। ओजवर्धक रसायन से आठ पागलों के स्वस्थ हो जाने और अनेकों के अनेकों प्रकार के मानसिक रोग दूर हो जाने की सूचनायें आई हैं। सैकड़ों व्यक्तियों ने स्मरण शक्ति बढ़ने की कृतज्ञतापूर्वक सूचनायें भेजी हैं। उस औषधि की अत्यधिक माँगे आ रही हैं परन्तु खेद के साथ लिखना पड़ता है कि अब ओजवर्धक रसायन बिल्कुल ही समाप्त हो गई है। वे जड़ी-बूटियाँ फिर से आने में अभी कुछ महीने की देर है, इसलिए कोई सज्जन डाक खर्च के पैसे न भेजें, जो भेजेंगे उनके लौटा दिये जायेंगे। हाँ, गर्भपोषक रसायन थोड़ी सी बची है। उसे सिर्फ वे ही लोग मंगावें, जिन्हें तात्कालिक आवश्यक है। भविष्य की आशा के लिए कोई सज्जन न मंगावें, क्योंकि ऐसा करने से तात्कालिक आवश्यकता वालों को वंचित रहना पड़ेगा।


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