मोक्ष की ओर

October 1945

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(ले.- श्री स्वामी शिवानन्द जी सरस्वती)

परमात्मा तुम्हारे भीतर है। वह सब के हृदय-मन्दिर में विराजमान है। जो कुछ तुम देखते, स्पर्श करते अथवा अनुभव करते हो वह सब परमात्मा ही है। इसीलिए किसी से घृणा मत करो, किसी को धोखा मत दो, किसी को नुकसान मत पहुँचाओ। सबसे प्रेम करो और सबके साथ एकता का अनुभव करो। तुम्हें शीघ्र ही शाश्वत आनन्द और अनन्त उल्लास की प्राप्ति होगी।

तुम आत्म नियन्त्रण रखो, स्वयं अनुशासन में रहो। विचारों और अनुभूतियों एवं आहार परिधान में सादगी और समरसता रखो। सबके साथ प्रेम करो। किसी से डरो नहीं। तन्द्रा आलस्य और भय को उखाड़ फेंको। दैवी जीवनयापन करो। सत्य अथवा वास्तविकता की खोज करो। नियम और धर्म को समझो। जागरुक और सचेत रहो। दुःख और अन्तर्द्वन्द्वों पर आत्मनिरीक्षण विचार विवेक द्वारा विजय प्राप्त करो। प्रतिक्षण स्वतंत्रता पूर्णता और शाश्वत आनन्द की ओर बढ़ो।

क्या तुममें से ऐसा एक भी आदमी है जो बलपूर्वक कह सके कि मैं इस समय योग जिज्ञासु हूँ। मैं मोक्ष के लिए प्रयत्नशील हूँ। मैंने अपने को चतुः साधनों से सुसज्जित कर लिया है। मैंने अपना हृदय निःस्वार्थ सेवा, तप और त्याग द्वारा विशुद्ध बना लिया है। मैंने अपने गुरु देव की विश्वास और भक्ति से सेवा की है और उनसे शुभाशीर्वाद और शुभकामना प्राप्त कर ली है। वही मनुष्य संसार को बचा सकता है। वह शीघ्र ही विश्व का प्रकाश स्तम्भ अद्वितीय ज्ञान ज्योतिधारी और सफल योगी होगा।

सेवा के लिए सदैव तत्पर रहो। विशुद्ध प्रेम, दया और सौजन्य के साथ सेवा करो। सेवा काल में कभी भी किच-किच मत करो। सेवा के समय अपने चेहरे पर मायूसी और उदासी कभी न आने दो। जिस आदमी की तुम सेवा करते हो वह तुम्हारी सेवा स्वीकार करने से इन्कार कर देगा। तुम को सुअवसर से हाथ धोना पड़ेगा। सेवा के सुअवसरों की ताक में रहा करो। अवसरों को उत्पन्न करो। सत् सेवा के लिए सत् क्षेत्र तैयार करो। कार्य की सृष्टि करो।

सेवा के लिए तुम्हारा जीवनपूर्ण भक्तिमय होना चाहिए। तुम्हारे हृदय में उसके लिए पूर्ण उमंग-उत्साह होना चाहिए। दूसरों के लिए तुम्हारा जीवन आशीर्वाद स्वरूप हो जाना चाहिए। यदि तुम इसे प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें अपने दिमाग को ठीक करना होगा। तुम्हें अपना चरित्र निर्मल करना होगा, तुम्हें अपना चरित्र बनाना होगा। तुम्हें सहानुभूति, स्नेह, परोपकार, सहिष्णुता और दया दाक्षिण्य का विकास करना होगा। यदि तुम्हारे विचारों से दूसरों को मतभेद हो तो भी उनसे लड़ो मत। दिमाग अनेक किस्म के हैं। विचार करने की कई शैलियाँ हैं। अभिमतों में भिन्नता होती है। हर एक आदमी अपने दृष्टिकोण से ठीक होता है। सबके विचारों से समन्वय करो। दूसरों के विचारों को भी सहानुभूति और ध्यान से सुनो और उन्हें स्थान दो अपने शुद्ध हृदय में और संकीर्ण दायरे से बाहर निकल आओ। दृष्टि को विशाल बनाओ। सर्वप्रिय या उदार विचार के बनो। सबके विचारों का आदर करो। तब और केवल तभी तुम्हारा जीवन सुविशाल होगा और हृदय भी महान। तुम्हें भद्रता के साथ मधुरता-पूर्वक सौजन्य से बोलना चाहिये। तुम्हें बहुत कम बात करनी चाहिये। तुम्हें अवाँछनीय विचारों और भावनाओं की जड़ को उखाड़ फेंकना चाहिए। तुम्हारे भीतर अभिमान और चिड़चिड़ापन का लेश भी नहीं होना चाहिये। तुम्हें अपने आपको एकदम भूला देना चाहिये। तुम्हें व्यक्तिगत भाव नहीं रखना चाहिये। सदैव सेवा के लिए यदि तुम पूर्वोक्त गुणों से विभूषित हो जाते हो तो तुम सचमुच प्रकाश और तेज के पुँज बन जाते हो। विनम्र, दयालु, सहायक बनो। यदा-कदा नहीं, किन्तु सदा के लिए, सारे जीवन के प्रत्येक क्षण के लिए। ऐसा एक शब्द भी मत बोलो जिससे दूसरों का दिल दुखे। बोलने से पहले सोच कर देख लो कि जो कुछ तुम बोलने जा रहे हो उससे दूसरों का दिल तो नहीं दुखेगा, दूसरों की भावनाओं पर चोट तो नहीं पहुँचेगी। इस बात का विचार कर लो कि यह समझदारी से भरी हुई मधुर, सत्य और सुकोमल है।

ऐ मनुष्य! अब तैयार हो जाओ। यह शर्म की बात है कि अब तक तुम अपना जीवन केवल खाने पीने, सोने, गप्प लड़ाने और निरर्थक कामों के पीछे व्यर्थ बिताते रहे। अब समय निकट आता जा रहा है। तुमने अब तक कोई विशिष्ट काम नहीं किया। अब भी अधिक विलम्ब नहीं हुआ है। इसी समय से भगवान नाम स्मरण शुरू कर दो। निष्कपट और सच्चाई धारण करो। सबकी सेवा करो। इस प्रकार तुम अपने को भगवान का कृपा पात्र बना लोगे।


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