(प्रो. श्री रामचरणजी महेन्द्र एम.ए.डी लिट् डी.डी.)
संसार में सबसे बहुमूल्य पदार्थ मनुष्य को अपना शरीर है। वह दिन-रात यही उपक्रम करता है कि मर न जाय, आयु क्षीण न हो जाय, मृत्यु का कटु सत्य दूर-दूर ही रहे। एक प्रकार से मृत्यु निवारण व्यापारों की समष्टि ही हमारा जीवन है।
मृत्यु के कई जासूस हमें निरन्तर घेरे रहते हैं और प्रकट अप्रकट रूप में अपना कार्य गुपचुप रीति से किया करते हैं। ये गुप्त दूत हैं हमारी शंकाएँ, चिंताएँ और अप्राकृतिक आदतें। इन तीनों कारणों से हम अपने वास्तविक जीवन से बहुत दूर जा पड़ते हैं। हम इन तीनों के गुप्त कार्य को निर्दोष समझ कर उधर से नेत्र मूँद लेते हैं और किसी प्रकार की क्षति का अनुभव नहीं करते। यह हमारी भारी भूल है।
मनुष्य अपनी आदतों का दास है। कई आदतें बाहर से देखने में बहुत साधारण एवं निर्दोष मालूम होती है किन्तु रासायनिक दृष्टि से उनका प्रभाव विष तुल्य पड़ता है। अनेक व्यक्ति श्वास क्रिया के अज्ञान के कारण अनेक यंत्रणायें सहन करते हैं, झुक कर और मेरुदंड नीचा किये रहते हैं, कितने ही व्यक्ति व्यर्थ के कार्यों में अपनी शक्ति का अपव्यय किया करते हैं। कुछ हमेशा तने रहते हैं, उन्हें सदैव क्रोध ही चढ़ा रहता है। कुछ रुपये पैसे के लोभ में पड़ सदैव कार्य में लगे रहते हैं और पेशियों को शिथिल नहीं होने देते। कुछ सदैव बेचैन रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वे किसी अव्यक्त मनुष्य की खोज में निरत हों। वे सदैव विक्षुब्ध बने रहते हैं।
उद्वेग चिंता, दौड़ धूप, शक्ति का अपव्यय, व्यर्थ की उत्तेजना मनुष्य की आयु क्षीण करते हैं। सबसे अधिक हाथ हमारे अप्राकृतिक भोजन का है। आवश्यकता से अधिक खा जाना, खाना न चबाना, गरिष्ठ पदार्थों, मादक द्रव्यों का सेवन आमाशय में कई प्रकार के भयंकर विष उत्पन्न करता है। शहर के पके हुए स्वादिष्ट पदार्थ, मिठाइयाँ, नमकीन, सोहन हलुआ इत्यादि पाचन की मशीन को अस्त-व्यस्त करते हैं। मनुष्य प्रकृति से जितना दूर हटता जा रहा है उतनी ही औसत आयु कम होती जा रही है। विलासी जीवन, मन का असंयम, श्वाँस संबंधी बुरी आदतें, उद्विग्नता हमें मृत्यु के पास खींच रही हैं। अपवित्रता, असंयम, विलास, अप्राकृतिक रहन-सहन से आयु की क्षीणता का घनिष्ठ संबंध है।
यदि हम भोजन के कुपथ्य से मुक्त रहें, जीभ पर काबू रखें, मानसिक उत्तेजनाओं, चिंताओं तथा कुकल्पनाओं से बचे रहें, फलों, शाक तरकारियों का यथाशक्ति सेवन करते रहें, उचित व्यायाम, दूध इत्यादि का प्रयोग करते रहें और उज्ज्वल भविष्य पर विश्वास रखें तो आयु हमारी मुट्ठी में रहेगी।
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पाठकों को दो सूचनाएं
जनवरी 1946 का विशेषाँक मनोविज्ञान अंक होगा। इसका संपादक पाठकों के सुपरिचित मनः शास्त्र विशेषज्ञ डॉक्टर रामचरण जी महेन्द्र कर रहे हैं। इस अंक में मनः शास्त्र संबंधी अद्भुत एवं अलभ्य सामग्री होगी। पृष्ठ संख्या साधारण अंक से दूनी के करीब होगी। डॉक्टर साहब इस अंक में गागर में सागर भरने का प्रयत्न कर रहे हैं।