ब्रह्मचर्य और उपवास

October 1945

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(महात्मा गाँधी)

ब्रह्मचर्य साधन के लिए बाहरी उपचारों की भाँति जैसे खुराक की किस्म और उसकी मिकदार की मर्यादा की जरूरत है वैसी ही उपवास की भी समझनी चाहिए। इंद्रियाँ ऐसी बलवान हैं कि उन्हें चारों ओर से, ऊपर से, नीचे से, यानी दशों दिशाओं से घेरने पर ही वे वश में रहती हैं। यह सब जानते हैं कि बिना भोजन पाये वे काम नहीं कर सकतीं। मैं निःशंक भाव से कह सकता हूँ कि इन्द्रिय-दमन के निमित्त इच्छापूर्वक किये गये उपवास से इंद्रियों को वश करने में बड़ी मदद मिलती है।

कितने ही लोग उपवास करते हुए भी जो नाकामयाब रहते हैं उसकी वजह यह मानकर चलना है कि उपवास ही सब कुछ कर देगा- सिर्फ स्थूल उपवास करना और मन से छप्पन भोगों का मजा लूटना है। वे उपवास काल में इन विचारों का मजा लूटते रहते हैं कि जब उपवास तोड़ेंगे तो क्या-क्या खायेंगे और फिर शिकायत करते हैं कि स्वादेन्द्रिय (जिह्वा) और जननेंद्रिय का संयम नहीं हुआ। उपवास की सच्ची उपयोगिता वहीं होती है जहाँ मनुष्य का मन भी देह-दमन का साथ देता है। मतलब हुआ कि मन में विषयभोग के प्रति वैराग्य होना जरूरी है।

विषयों की जड़ें मन में रहती हैं। उपवास आदि साधनों की मदद तो काफी मिलती है तथापि अनुपात में वह कम ही होती हैं। उपवास करते हुए भी मनुष्य का विषयासक्त रहना संभव है, लेकिन उपवास के बिना विषयासक्ति का जड़ मूल से नाश संभव नहीं है, इसलिए ब्रह्मचर्य के पालन में उपवास अनिवार्य अंग-स्वरूप है।


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