सहज-योग

October 1945

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महात्मा कबीर का वचन है-

तन को जोगी सब करें, मन को करे न कोय। सब सिद्धि “सहजै” पाइये, जो मन जोगी होय॥

इस दोहे में उन्होंने सहज योग से सब सिद्धियाँ पाने की ओर संकेत दिया है। यह सहज योग क्या है? इसका कुछ परिचय भी इस पद में मिल जाता है। ‘मन को योगी’ बना लेना ही सहज योग है। इस योग में तन को योगी बनाने, योगियों की सी वेषभूषा धारण करने के संबंध में उपेक्षा की गई है और इस बात पर जोर दिया गया कि मन को योगी बना लिया जाय। तन से कबीर की भाँति जुलाहे का काम करते हुए, रैदास की भाँति चर्मकार का काम करते हुए, तुलाधार की भाँति व्यापार करते हुए, जनक की भाँति राज दरबार करते हुए भी मनुष्य मन को योगी बना सकता है। साधारण वेशभूषा, पेशा एवं आहार-विहार रखता हुआ भी मनुष्य सहज योग की साधना कर सकता है।

यह साधना कुछ कठिन नहीं है। हर स्थिति के हर मनुष्य के लिए सहज है। इसी तथ्य को ध्यान रखते हुए इसको ‘सहज योग’ कहा गया है। अस्वाभाविक, अनावश्यक, असत्य, अहितकर, अनुचित बातें हमेशा कठिन, दुष्कर और अतीव काम साध्य होती हैं किन्तु जो प्राकृतिक, स्वाभाविक, आवश्यक, सत्य एवं लाभदायक होती हैं वे सहज एवं सुलभ होती हैं। जीवन की अत्यंत आवश्यकताओं में सबसे अधिक हवा, फिर पानी, फिर अन्न, फिर वस्त्र आवश्यक हैं। यह सब चीजें आवश्यकता के अनुपात से ही समुचित मात्रा में उपलब्ध होती हैं। हवा जिसके बिना कुछ मिनट भी जीवित नहीं रह सकते हर जगह प्रचुर मात्रा में भरी हुई है, इतनी सहज रीति से प्राप्त होती है कि हमें पता भी नहीं चलता और लाखों टन हवा हर रोज शरीर में पहुँचती और निकलती रहती है। इससे कुछ छोटा दर्जा पानी का है पानी के बिना एक दो दिन जीवित रह सकता है अतएव हवा की अपेक्षा पानी कुछ कठिन है। यद्यपि वह मोल नहीं बिकता तो भी उसे प्राप्त करने के लिये कुएं, तालाब आदि पर जाना पड़ता है लाने में कुछ कष्ट भी उठाना पड़ता है। अन्न का तीसरा नम्बर है, बिना अन्न के आदमी दस बीस दिन जी सकता है, इसलिए वह कुछ अधिक श्रम करने पर मिलता है तो भी संसार में उत्पन्न होने वाले अन्य सभी वस्तुओं की अपेक्षा अधिक उत्पन्न होता है और हर जगह मिल भी जाता है। वस्त्र का चौथा नम्बर है इसलिए वह अन्न की अपेक्षा अधिक महँगा है। इसी प्रकार जो चीज जीवन के लिये जितनी आवश्यक और सत्य है उसकी प्राप्ति उतनी ही सहज है। जो हानिकर है वह दुर्लभ है। गाय, भैंस, बकरी आदि दुधारू और उपयोगी पशु झुण्ड के झुण्ड मौजूद हैं किन्तु सिंह, सर्प आदि दुष्ट हिंसक जीव बहुत ही थोड़ी मात्रा में हैं और सुदूर गुप्त स्थानों में छिपे पड़े रहते हैं। उनके दर्शन हर किसी को नहीं होते, विरले शिकारी या सपेरे ही उन्हें ढूंढ़ पाते हैं। चीनी नमक, दूध, फल, शाक आदि भोज्य पदार्थ सुलभ हैं परन्तु संखिया, सिंदरफ, हलाहल, अफीम, ताड़ी, आदि हानिकारक चीजें दुर्लभ हैं। उन्हें प्राप्त करने के लिए बड़ा खतरा और कष्ट उठाना पड़ता है।

ईमानदारी सहज है, परन्तु चोरी करने के लिए विशेष साहस चाहिये। सत्य बोलने में कुछ झंझट नहीं, परन्तु असत्य बोलने वाले को बड़ी सावधानी से बंधक बनना पड़ता है। सदाचारी में कोई चतुराई नहीं चाहिए हाँ व्यभिचार करने में सफलता प्राप्त करने के लिए असाधारण कुशलता की आवश्यकता है। लाभदायक सादा भोजन आसानी से बन जाता है पर गरिष्ठ कुपाच्य पकवानों को बनाने के लिए अधिक समय पैसा और चतुरता की आवश्यकता होती है। धूप, वर्षा, शीत के सुखद परिणाम हमें सदा मिला करते हैं पर तूफान, भूकम्प, युद्ध जैसे बवंडर कभी-कभी ही आते हैं। यह एक ठोस सत्य है कि उचित आवश्यक और लाभदायक तत्वों को परमात्मा ने सहज बनाया है, उनकी प्राप्ति दुर्लभ कर दी है।

जो योग जीवन के लिए आवश्यक है, उचित है, हितकर है वह अवश्य ही उपरोक्त स्वयं के अनुसार सहज होना चाहिये। जिसमें अनावश्यक पेचीदगी गूढ़ता, रहस्य एवं क्रान्ति हो उस योग को भी अनावश्यक एवं ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध समझना चाहिये। तत्वदर्शी कबीर ने इस महासत्य का तत्व सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट कर दिया। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि योग सहज है। इस सहज योग के साधन से साधक सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है।

‘मन को योगी बनाना’ यह सहज योग की साधना है। योग का अर्थ है जोड़ना मिलना। मन को महामन में, प्राण को महाप्राण में, आत्मा को परमात्मा में व्यष्टि को समष्टि में, स्वार्थ को परमार्थ में मिलाना, जोड़ना यही योग की प्रक्रिया है। अपने सत् चित् आनन्द स्वरूप को पहचान कर जब आत्मा अपने वास्तविक स्थिति को समझ लेता है और आध्यात्मिक भूमिका में जागृत होता है तो उसके जीवन का दृष्टि कोण ही बदल जाता है। जो अपने आपको अविनाशी आत्मभाव में जाग पड़ता है उसे अपना शरीर एक वस्त्र के समान प्रतीत होता है। जैसे हम सब कपड़े के हानि लाभ की अपेक्षा शरीर के हानि लाभ को अधिक महत्व देते हैं, उसी प्रकार आत्मभाव में जगा हुआ मनुष्य शारीरिक हानि-लाभ, सुख-दुख उन्नति-अवनति, संपत्ति-विपत्ति की परवाह न करता हुआ आत्मा के हित चिंतन में तल्लीन रहता है।

मन को हृदय से बुद्धि को अन्तःकरण से योग कर देने, जोड़ देने, मिला देने से मनुष्य की अंतःदृष्टि बदल जाती है उसका दृष्टिकोण दूसरा हो जाता है। अयोगी, मायाबद्ध, भवकूप में पड़े हुए मनुष्य शरीर के लाभ-हानि की दृष्टि से, हर बात को सोचते और कार्य करते हैं किन्तु योग बुद्धि वाला व्यक्ति आत्मा के हित अहित का ध्यान रखता हुआ अपने संपूर्ण विचार और कार्यों को करता है। शरीरवादी लोग इन्द्रिय भोगों की तृप्ति में सुख अनुभव करते हैं, उन्हें स्वादिष्ट भोजन, मनोरंजक दृश्य, नृत्य, गीत, वाद्य, काम क्रीड़ा, वस्त्र आभूषण, महल, मोटर, सेवक, धन, ऐश्वर्य आदि की आकाँक्षा रहती है, इन वस्तुओं की वृद्धि में सुख और कभी दुख अनुभव होता है। इनको प्राप्त करने में वह उचित अनुचित के विवेक को भी भूल जाता है और जैसे भी यह चीजें मिल सकें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। पर योगी का दृष्टिकोण दूसरा होता है वह इन्द्रिय भोगों को भोगने में या भौतिक सम्प्रदायें इकट्ठी कर लेने में सुख नहीं मानता क्योंकि उसने अपना वास्तविक स्वरूप शरीर नहीं माना है। “मैं अविनाशी आत्मा हूँ” ऐसा विश्वास करने वाला योगी अपने आत्मा का हित अहित जिसमें देखता है उसमें ही सुख-दुख अनुभव करता है। शरीर रजोगुण में सुख पाता है आत्मा को सतोगुण में आनन्द है। आत्म-भावी व्यक्ति के कर्मों में सतोगुण की प्रधानता रहती है। वह सद्भाव, सद्गुण और सत्कर्म अपनाता है। प्रेम दया, सहानुभूति, उदारता, नम्रता एवं मधुरता से उसकी हर एक बात सुनी हुई होती है। संयम उसका व्रत होता है। सेवा उसकी कार्य प्रणाली होती है। उसका दृष्टिकोण सेवा से परिपूर्ण रहता है। हर काम को वह सेवा वृत्ति से, कर्त्तव्य बुद्धि से, यज्ञ भावना से करता है। भावना के अनुसार ही हर काम का मूल्य निर्धारित होता है। यज्ञ भावना से जो काम किये जाते हैं उनका रूप बाह्य दृष्टि से कैसा ही क्यों न हो पर उनका फल यज्ञ रूप ही होता है, सेवा भावना से किया हुआ छोटा कार्य भी महान पुण्य फल को देने वाला होता है। इसी प्रकार दुर्भावना से किये हुए उत्तम दीखने वाले काम भी पाप रूप हो जाते हैं।

‘सहज योग’ सचमुच बड़ा सहज है। इसमें व्रत, उपवास, नोति, धोति, वस्ति, न्योली, कपाल भाँति, आसन, प्राणायाम आदि किसी प्रकार की खटखट नहीं है। केवल अपने मन को हृदय से जोड़ देना है। कबीर साहब ने एक स्थान पर लिखा है कि जीव से परमात्मा चौबीस अंगुल दूर है। मस्तिष्क से परमात्मा चौबीस अंगुल है। इस दूरी को पार करते ही इस यात्रा को पूरी करते ही स्वर्ग के द्वार में पदार्पण हो जाता है। हृदय की अन्तःकरण की जैसी पुकार हो, आज्ञा हो उसी के अनुसार मन एवं बुद्धि आचरण करे हृदय और मन की इच्छायें पृथक-पृथक न रह कर एक हो जायं। मनुष्य जो भी कार्य करें उसमें अन्तःकरण का आत्मा का स्वार्थ हित, पसंदगी का चुनाव प्रधान हो तो वह कार्य यज्ञमय होगा, ऐसे यज्ञमय कार्यों की हर एक क्रिया योग साधना के समान है। उसे करते-करते मनुष्य अभीष्ट सिद्धि को ब्राह्मी स्थिति को, प्राप्त कर लेता है।

इस सहज योग की प्रधान प्रक्रिया ‘मन को योगी’ करने की है। इसकी साधना विधि यह है कि अपने आप में जागरुक रहने का हर घड़ी प्रयत्न करना चाहिए। “मैं अविनाशी आत्मा हूँ। शरीर मेरा वस्त्र मात्र है, मैं जो कुछ करूंगा वह आत्मा के हित की दृष्टि से करूंगा” इस भावना मंत्र को सदा मन में दुहराते रहना चाहिये और बार-बार तीक्ष्ण दृष्टि से यह निरीक्षण करते रहना चाहिये कि हमारे विचार और कार्य नियत भावना के अनुकूल हैं या नहीं। यदि उसमें त्रुटि या प्रतिकूलता प्रतीत हो तो सावधान होकर तुरन्त उसे सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार नियमपूर्वक निरन्तर आत्म निरीक्षण करते रहने और सद्भाव, सद्गुण, सहकार्यों को अधिकाधिक मात्रा में धारण करते रहने से धीरे-धीरे कुछ ही समय में यह वृत्ति स्थायी होकर आदत में सम्मिलित हो जाती है। जब मनुष्य को अपना सहजयोग ऐसा ही साधारण मालूम पड़ता है जैसा कि दुनियादार आदमी को अपने दैनिक कार्य साधारण मालूम पड़ते हैं।

सच्चे हृदय से मन को जोगी करने वाला, बुद्धि को आत्मा से जोड़ देने वाला सच्चा सहज योगी महात्मा एवं तपस्वी है। वही प्रभु को प्यारा लगता है और प्रभु को प्राप्त करता है। भले ही उसका वेश और पेशा साधारण मनुष्यों का सा बना रहे। महात्मा कबीर कहते हैं-

साँई सों साँचा रहो, साँई साँच सुहाय। भावे लम्बे केश रखि, कावै मूँड़ मुड़ाय॥

=कोटेशन============================

गृहस्थ के परिमित व्यय पर उतनी ही बुद्धि से काम लेना चाहिये, जितना किसी साम्राज्य पर राज्य करने में।

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थोड़े भी अपरिमित व्यय से सावधान रहो, जरा सा छिद्र होने से ही बड़े-बड़े जहाज डूब जाते हैं।

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सबसे बहुमूल्य और सुरक्षित धन अपनी सम्पत्ति से, चाहे वह कितना ही थोड़ा क्यों न हो, संतुष्ट रहना है।

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