अमृत को प्राप्त कीजिए।

October 1945

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साधारणतः अमृत का अर्थ वह पदार्थ समझा जाता है जो समुद्र मंथन के समय निकला था। जो देवताओं के पास है और जिसे पाने वाला अमर हो जाता है-कभी मरता नहीं।

वह देवताओं का अमृत है। पर मनुष्य लोक भी अमृत से रहित नहीं है, ऐसा प्राचीन ग्रन्थों में देखने से पता चलता है। एक प्रकार के नहीं अनेकों प्रकार के अमृतों का वर्णन उपलब्ध होता है।

मेदिनी कोष में दूध को पीयूष या अमृत कहा है। “पीयूष सप्त दिवसावधि क्षीरे तथामृते” आयुर्वेद का मत भी ऐसा ही है “अमृत क्षीर भोजनम्” दूध मर्त्यलोक का अमृत है। राज निघंटु में भी दूध को ही अमृत कहा है- ‘क्षीरं पीयूषमूधस्यं दुग्धं स्तन्यं पयोऽमृतम्।”

जल को भी अमृत कहा गया है। अमर कोष में “पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं बनं” इस श्लोक में पानी का नाम अमृत बताया है।

“अमृतोपस्तरणामसि स्वाहा। अमृतापधानमसि स्वाहा।”

इन श्रुति वचनों में जल को अमृत की समता दी गई है। अथर्ववेद में पानी को सब रोगों की दवा माना है- ‘अप्सु में सामोऽब्रवीदंत विश्वानि भेषजं।”

राज निघंटु में घृत को अमृत बताया है-

“अमृतंचाभिचारश्च होम्युमायुश्चतेजसम्।”

मट्ठा या छाछ (तक्र) के लिए भी अमृत की उपमा प्रयोग की जाती है- “यथा सुराणाममृतं हिताय तथा नराणामिह तक्रमाहुः।” जैसे देवताओं के लिए अमृत है वैसे ही मनुष्यों के लिए मट्ठा हितकर है।

पौष्टिक-घृत शर्करा युक्त-भोजन भी अमृत है। भाव प्रकाश में हलुवे को अमृत कहा है।

“संयावममृतं स्वादु पित्तघ्नं मधुरं स्मृतम्।”

चरक में एक स्थान पर लिखा है- “अमृतं स्वादु भोजन्” अर्थात् स्वादिष्ट भोजन अमृत है।

कुछ औषधि द्रव्यों को भी अमृत की समता दी गई है। “अमृतं वै हिरण्यमित्युक्तं” अर्थात् स्वर्ण मिश्रित औषधि अमृत है। रस तंत्र में पारे के संयोग से बनी हुई रसायन का अमृत बताया है- “अभ्रकस्तवजीवन्तु ममवीजन्तु पारदः। अनयोर्मेलनं देवि मृत्यु दारिद्रय नाशनम्। “ इस श्लोक के अनुसार अभ्रक और पारे का संयोग मृत्यु को दूर करने वाला है। शुद्ध किए हुए विष भी अमृत कहे जाते हैं यथा- “क्ष्वेडाहेमामृतं गरदं गरलं कालकूटकम्।”

छोदोग्य उपनिषद् में मधु को अमृत कहा है-

“ता एवास्यामृतामधुनाड्यः।”

नासपाती को “अमृत फल” कहा जाता है। आँवले के भी ऐसे गुण कहे गये हैं।

मल्लि यादव ने सूर्य की किरणों को अमृत कहा है। चन्द्र किरणों को भी अमृत की तुलना में संयुक्त किया है- “चन्द्रे अमृत दीधि तिरेष विदर्भजे भजसि तापममुष्यवै।”

ब्रह्मचर्य पालन और तप करना अमृत है। “अमृत शुक्र धारणम्” देवताओं ने भी ब्रह्मचर्य रूपी अमृत से ही मृत्यु को जीता है- “ब्रह्मचर्येण तपसा” देवा मृत्यु मुपाघ्नत।”

ब्रह्मज्ञान अमृत है। कहा है- “ब्रह्मणाहि प्रतिष्ठाहममृतस्या व्ययस्यच।” समता निराकुलता, मानसिक शाँति भी अमृत है। गीता के पन्द्रहवें अध्याय में लिखा है- “सम दुःख सुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।” योगी लोग खेचरी मुद्रा के साधन में सहस्रार में से ब्रह्मरंध्र द्वारा टपकने वाले अमृत का पान करते हैं। देव मंदिरों में चरणामृत या पंचामृत तो प्राप्त होती ही है।

मधुर भाषण अमृत कहलाता है। उव्वट का मत है- “आप्यायतोऽसौ वचनामृतेन।” हितोपदेश में बालकों की मधुर बोली को अमृत कहा है- ‘अमृतं बाल भाषणम्’।

मनु भगवान की संपत्ति में भीख माँगकर लिया हुआ अन्न ‘मृत’ और बिना माँगे अपने बाहुबल से कमाकर खाया हुआ अन्न ‘अमृत’ है। यथा- ‘मृतंस्याद्याचितं भौक्ष्यममृतंस्या दयाचितं।”

आप्त वचन है- “विद्ययामृत मश्नुते” अर्थात् विद्या से अमृत प्राप्त होता है। अमर कोष का आरंभिक श्लोक- “स श्रिये चामृतायच” भी ज्ञान में अमृत की उपस्थिति का संकेत करता है।

इन ऊपर कहे हुए सब अमृतों की अपेक्षा एक अमृत सर्वोपरि है। जिसका गीता के अध्याय 4 श्लोक 31 में भगवान कृष्ण ने वर्णन किया है- “यज्ञ शिष्टा मृत भुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्” अर्थात्- “यज्ञ से बची हुई वस्तु भोगने वाले सनातन परमात्मा को प्राप्त करते हैं।” मनुस्मृति के अध्याय 3 श्लोक 285 में भी “यज्ञ शेषमथामृतम्” यही भाव प्रकट किया है। यज्ञ अर्थात् परमार्थ के लिये त्याग। जो कुछ भी हमारे पास शक्ति सामर्थ्य और संपदा है उसका अधिकाँश भाग परमार्थ के लिए लोग सेवा के लिए, आत्म कल्याण के लिए, सात्विकता की वृद्धि के लिए लगावें इन्हीं को प्रथम स्थान दें। तत्पश्चात् बची हुई शक्ति का स्वल्प भाग अपने शारीरिक भोगों में खर्च करें। इस प्रकार परमार्थ पूर्ण दृष्टिकोण रखकर जीवन का सदुपयोग करने वाला मनुष्य “अमृताशी” अर्थात् अमृत पीने वाला कहलाता है। वह जिस आनन्दमयी अमरता को प्राप्त कर लेता है वह समुद्र मंथन वाला अमृत पीकर शरीर से अमर हुए देवताओं के लिए सर्वथा दुर्लभ है।

=कोटेशन============================

यह लोहे का मोरचा (जंग) ही है जो लोहे को खा जाता है। इसी प्रकार पापी के पाप कर्म ही उसे दुर्गति तक पहुँचाते हैं।

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*समाप्त*


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