(काका कालेलकर)
मनुष्य दुःख नहीं चाहता, फिर भी जीवन में दुःख तो है ही। और दुःख ही नहीं, उसका उपभोग भी है। दुःख से अनुभव-समृद्ध बन जाते हैं, हमारा व्यक्तित्व या गीता की परिभाषा में कहें, तो हमारा ‘अध्यात्म’ बढ़ता है। (गीता में ‘स्वभावी अध्यात्म उच्यते’ व्याख्या की गई है। वहाँ स्वभाव से मनुष्य के कर्त्तव्य का मतलब निकलता है और इसी को अध्यात्म भी कहा जाता है।) हमदर्दी के कारण हमारा व्यक्तित्व हमारे शरीर से अलहदा होकर, इन्द्रियों का बंधन तोड़कर और संकुचितता से निकल कर विकसित है और हमारी देह से भिन्न व्यक्तियों, मूर्तियों, घटनाओं और तंत्रों के साथ एकरूप हो जाता है। व्यक्तित्व का यह विकास ही आनन्द है। साधारण तौर पर अस्वस्थ या स्वस्थ दशा में मनुष्य को अपनी शक्ति का भान नहीं रहता। दुःख या संकट के मौके पर उसकी शक्ति प्रकट होती है। शक्ति का यह जन्म कुछ कष्टदायक भले ही हो, फिर भी अनुभव लेने की अपनी शक्ति का ज्ञान हो जाना तो मनुष्य के लिए कम संतोष देने वाला नहीं होता। विज्ञान के प्रयोग, युद्ध के पराक्रम और जीवन के तजुर्बे, ये सभी हमें अपने अध्यात्म के विकास का आनन्द प्रदान करते हैं। जिस व्यक्तित्व के विकास की जो कला या कौशल है वही योग है। शिक्षा का उद्देश्य भी अध्यात्म का विकास ही है।
व्यक्तित्व का विकास या तादात्म्य होना ही आनन्द का स्वरूप है। पर, जब यह आनन्द भूल से इन्द्रियों को तृप्त करने की कोशिश करता है तब इस रस की धारा आत्मा को संकुचित कर डालती है। इसके अन्त में विरसता, ग्लानि, दुःख और पछतावा ही हाथ लगता है।