ईश्वर का भजन

October 1945

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गरुण पुरुष अध्याय 23 का एक श्लोक है-

भज इत्येव वै धातुः सेवायाँ परिकीर्तिता। तस्मात्सेवाबुधै प्रौक्ता भक्तिः साधन भूयसी॥

श्लोक का तात्पर्य है कि-’भज’ धातु का अर्थ सेवा है। (भज्-सेवायाँ) इसलिये बुध जनों ने भक्ति का साधन सेवा कहा है। ‘भजन’ शब्द भज धातु से बना है जिसका स्पष्ट अर्थ सेवा है। ‘ईश्वर का भजन करना चाहिए’ जिन शास्त्रों ने इस महामंत्र का मनुष्य को उपदेश दिया है उनका तात्पर्य ईश्वर की सेवा में मनुष्य को प्रवृत्त करा देना था। जिस विधि व्यवस्था से मनुष्य प्राणी ईश्वर की सेवा में तल्लीन हो जाय वही भजन है। इस भजन के अनेक मार्ग हैं। अध्यात्म मार्ग के आचार्य ने देश काल और पात्र के भेद को ध्यान में रख कर भजन के अनेकों कार्यक्रम बनाये और बताये हैं। विश्व के इतिहास में जो जो अमर विभूतियाँ, महान आत्मायें, संत, सिद्धि, जीवन मुक्त, ऋषि एवं अवतार हुए हैं उन सभी ने भजन किये हैं और कराये हैं। पर उन सबको भजनों की प्रणाली एक दूसरे के समान नहीं है। देश काल और परिस्थिति के अनुसार उन्हें भेद करना पड़ा है, यह भेद होते हुए भी मूलतः भजन के आदि भूत तथ्य में किसी ने अन्तर नहीं आने दिया है।

भजन (ईश्वर की सेवा) करने का तरीका ईश्वर की इच्छा और आज्ञा का पालन करना है। सेवक लोग अपने मालिकों की सेवा इसी प्रकार किया करते हैं। एक राजा के शासन तंत्र में हजारों कर्मचारी काम करते हैं। इन सबके जिम्मे काम बँटे होते हैं। हर एक कर्मचारी अपना-अपना नियत काम करता है। अपने नियम कार्य को उचित रीति से करने वालों की राजा की कृपा पात्र होती है, उसके वेतन तथा पद में वृद्धि होती है, पुरस्कार मिलता है, खिताब आदि दिये जाते हैं। जो कर्म अपने नियम कार्य में प्रसाद करता है वह राजा का कोप भाजन बनता है, जुर्माना, मौत्तिल्ली, तनख़्वाह में तनज्जुली, बर्खास्तगी या अन्य प्रकार की सजायें पाता है। इन नियुक्त कर्मचारियों की सेवा का उचित स्थान उन्हीं कार्यों में है जो उनके लिए नियम हैं। रसोइये, मेहतर, पंखा झलने वाले कहार, धोबी, चौकीदार, चारण, नाई आदि सेवक भी राजा के यहाँ रहते हैं वे भी अपना नियम काम करते हैं। परन्तु इन छोटे कर्मचारियों में से कोई ऐसा नहीं सोचा कि राजा की सर्वोपरि कृपा हमारे ही ऊपर है। बात ठीक भी है राजा के अभीष्ट उद्देश्य को सुव्यवस्थित रखने वाले राज मंत्री, सेनापति, अर्थमंत्री, व्यवस्थापक न्यायाध्यक्ष आदि उच्च कर्मचारी जितना आदर, वेतन, और आत्मभाव प्राप्त करते हैं, बेचारे मेहतर, रसोइये आदि को वह जीवन भर स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता।

राज्य के समस्त कर्मचारी आदि अपने नियम कार्यों में अरुचि प्रकट करते हुए राजा के रसोइये, मेहतर, कहार, धोबी, चारण आदि बनने के लिए दौड़ पड़े तो राजा को इससे तनिक भी प्रसन्नता और सुविधा न होगी। हजारों लाखों रसोइयों द्वारा पकाया और परोसा हुआ भोजन अपने सामने देख कर राजा को भला क्या प्रसन्नता हो सकती है? यद्यपि इन सभी कर्मचारियों का राजा के प्रति अगाध प्रेम है और प्रेम से प्रेरित होकर ही उन्होंने व्यक्तिगत शरीर सेवा की ओर दौड़ लगाई है, पर ऐसा विवेक रहित प्रेम करीब-करीब द्वेष जैसा ही हानि कर पड़ता है। राज्य के आवश्यक कार्य में हर्ज और अनावश्यक कार्य की वृद्धि यह कार्य प्रणाली किसी बुद्धिमान राजा को प्रिय नहीं हो सकती।

ईश्वर राजाओं का महाराज है। हम सब उसके कर्मचारी है, सबके लिए नियम कर्म उपस्थित हैं। अपने-अपने उत्तरदायित्व की उचित रीति में पालन करते हुए हम ईश्वर की इच्छा और आज्ञा को पूरा करते हैं और इस प्रकार सच्ची सेवा करते हुए स्वभावतः उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं। राजाओं को व्यक्तिगत सेवा की आवश्यकता भी है परन्तु परमात्मा को रसोइये, मेहतर कहार, चारण, चौकीदार आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। वह सर्वव्यापक है, वासना और विकारों से रहित है, ऐसी दशा में उसके लिए भोजन, कपड़ा, पंखा, रोशनी आदि का कुछ उपयोग भी नहीं है।

ध्यान, जप, स्मरण, कीर्तन, व्रत पूजन-अर्चन, वन्दन, यह सब आध्यात्मिक व्यायाम है। इनके करने से आत्मा का बल और सतोगुण बढ़ता है। आत्मोन्नति के लिए इन सबका करना आवश्यक और उपयोगी भी है। परन्तु इतना मात्र ही ईश्वर भजन या ईश्वर भक्ति नहीं है। यह भजन का एक बहुत छोटा अंश मात्र है। सच्ची ईश्वर सेवा उसकी इच्छा और आज्ञाओं को पूरा करने में है, उसकी फुलवारी को अधिक हरा-भरा फला-फूला बनाने में है। अपने नियम कर्त्तव्य करते हुए अपनी और दूसरों की सात्विक उन्नति में लगे रहना प्रभु को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम उपाय हो सकता है।

इस्लामी धर्म पुस्तकों में एक कथा मिलती है कि एक इस्लाम प्रचारक ऋषि के आगे से देवता निकला। उसके हाथ में एक बहुत बड़ी पुस्तक थी। ऋषि ने पूछा-भाई देवदूत, यह पुस्तक कैसी है? उसने उत्तर दिया-इसमें दुनिया भर के ईश्वर भक्तों के नाम लिखे हैं। ऋषि ने पूछा-क्या इसमें मेरा नाम है। देवदूत ने सारी पुस्तक खोल डाली पर कहीं भी उनका नाम न मिला। इस प्रकार ऋषि को बड़ा दुख हुआ कि मैंने खुदा की आज्ञा पालन करने में सारा जीवन लगा दिया पर मेरा नाम भक्तों की सूची में शामिल न हो पाया। कुछ दिन बाद एक दूसरा देवदूत एक छोटी पुस्तक लिए हुए उधर से निकला। ऋषि ने पूछा-इसमें क्या लिखा है? देवदूत ने उन्हें बताया कि इसमें कुछ ऐसे आदमियों के नाम हैं, जिनकी भक्ति स्वयं ईश्वर करता है। ऋषि के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि-क्या ऐसे भी लोग हैं, जिनकी भक्ति ईश्वर को करनी पड़ती है। पुस्तक पढ़ी गई उसमें सबसे ऊपर उन्हीं ऋषि का नाम लिखा हुआ था। महात्मा कबीर ने भी ऐसा ही कहा है-

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे लागे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर॥ कबीर माला ना जपों, जिह्वा कहों न राम। सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पावों विश्राम॥

ईश्वर को प्रसन्न करने की इच्छा से भगवान भजन करने वालों को भजन का वास्तविक तात्पर्य समझना चाहिए। भजन सेवा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा की सेवा उसकी चलती फिरती प्रतिमाओं की सेवा में है। उसके बगीचे-को संसार को अधिक सुन्दर सुख शान्तिमय बनाने का प्रयत्न करने में है। अपने कर्त्तव्य धर्म को उत्तरदायित्व को एक ईमानदार और सच्चे मनुष्य की तरह पालन करने में है। ईश्वर की इच्छा और आज्ञा है कि ‘अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की जाय” अपने भीतर, बाहर और सर्वत्र जो इस तथ्य को ध्यान में रखकर कार्य करता है उसी का भजन सच्चा है। लोक कल्याण की दृष्टि से जो अपने और दूसरों के जीवन को उत्तम बनाने के प्रयत्न में तत्परतापूर्वक जुटे हुए हैं वे ही सच्चे भजनानन्दी हैं।

अखण्ड-ज्योति के पाठको! आत्म वंचना में मत भटको, दंभ का आश्रय मत लो, केवल अपने ही स्वर्ग या मुक्ति सुख के स्वार्थ में मत डूबो वरन् प्रभु के सच्चे भजन का, सच्ची सेवा का मार्ग तलाश करो, प्रभु के पुत्रों को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने वाले लोक कल्याण कारी सत्कार्यों में लग जाओ।


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