महापुरुष बनने का मार्ग

September 1944

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सुकरात से लेकर ईसामसीह तक और ईसा मसीह से लेकर आज जितने भी महात्मा, महापुरुष हुए हैं उनने एक काम निश्चित रूप से किया है। वह कार्य है “अपने सिद्धान्तों के लिए आत्म बलिदान।” जो व्यक्ति अपने अन्तःकरण की पुकार के साथ अपने शरीर और मन को सुनिश्चित रूप से लगा देता है वही ‘सफल जीवन’ कहा जाता है। महापुरुषों की दिवंगत आत्माएं आज भी पुकार पुकार कर अपने अनुभव हमें सुनाती है। वे कहती है कि “हम भी अपने जीवन को प्यार करते थे, हमें भी अपने बाल बच्चों और कुटुम्बियों का मोह था। हमें भी इन्द्रिय वासनाएँ सताती थी, लोभ और लालच हमारे सामने भी थे, पग पग पर संकल्प विकल्प हमारे मन में भी उठते थे, परन्तु इन सब बाधाओं का हमने दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया। अपने अन्तःकरण की पुकार के सामने हमने किसी भी अन्य वस्तु की परवाह नहीं की। एक से एक बड़ी कठिनाई को यहाँ तक कि मृत्यु को भी अपनी अन्तः प्रेरणा के सामने तुच्छ समझा।” यह महापुरुषों की विचारधारा है। जिसने इस रीति का अवलम्बन किया है इस दुनिया में वही महापुरुष बना है।

आसान जीवन को ही मामूली तौर से सब लोग पसंद करते हैं। अच्छा खाना और मौज से रहना यह किसी को बुरा नहीं लगता। मामूली प्रलोभनों में भी इतना आकर्षण होता है कि उन्हें छोड़ने की मनुष्य को हिम्मत नहीं पड़ती। लाखों करोड़ों आदमी ऐसा ही आसान जीवन बिताने की इच्छा करते हैं। फिर भी यह ध्यान रखना चाहिए कि यह आसान कहा जाने वाला जीवन वास्तव में आसान नहीं है। यह भी उतना ही कठिन और कष्टमय है, जितना कि महापुरुषों का जीवन। अकाल, बीमारी, चोट, दुर्घटना, विरह, बिछोह, घाटा, चोरी, आदि नाना प्रकार के कष्ट इस आसान जीवन में भी आते हैं। न चाहते हुए भी यह विपत्तियाँ सिर के ऊपर आ ही धमकती हैं।

मौज करने की लालसा से जीवन को कीट पतंगों की भाँति निरुद्देश्य जीवन बिताना, कर्त्तव्य अकर्त्तव्य का विचार छोड़ देना अनुचित है। क्योंकि तुच्छता और उद्देश्यहीनता के साथ जीवन बिताने के लिए तैयार हो जाने पर भी इस बात की कोई निश्चितता नहीं है कि कोई विपत्ति न आवेगी और मन माने भोग ऐश्वर्य प्राप्त होते रहेंगे। इसलिए इन सब बातों पर विचार करते हुए हमें चाहिए कि कायरता, भीरुता, तृष्णा, संकीर्णता और तुच्छता के क्षुद्र प्रलोभनों को छोड़कर कर्त्तव्य पथ की ओर बढ़ें, जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करें, आत्मा को परमात्मा बना देने की दिशा में प्रगति करें।

यह मार्ग देखने में कुछ कठिन मालूम देता है। कष्ट और अभावों की संभावना अधिक दिखाई देती है परन्तु यह केवल भ्रम है। कर्त्तव्य पालन में, धर्म साधना में, सेवा पथ में, यदि आनन्द कम और कष्ट अधिक होता तो कोई भी बुद्धिमान और विवेकवान व्यक्ति इस पथ पर चलने को तत्पर न होता। भगवान रामचन्द्र, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, सुकरात आदि की समझदारी कम न थी। यदि वे देखते कि धर्म का मार्ग आनन्द रहित और दुखदायी है तो वे कदापि उस ओर कदम न बढ़ाते। जीवन का वास्तविक सुख, वास्तविक आनन्द, वास्तविक साफल्य, परमार्थ में है इस बात को हर एक महापुरुष ने पहचाना है, समझा है और अनुभव किया है, परन्तु हममें से कितने ही मनुष्य उस ध्रुव सत्य पर विश्वास करते हुए हिचकते हैं, उस राजमार्ग पर कदम रखते हुए डरते हैं।

जो तुच्छ प्रलोभन हमें ललचाते हैं, जो जो भय और संदेह हमें डराते हैं वे महापुरुषों और महात्माओं को भी ऐसे ही ललचाते और डराते थे, परन्तु उनने साहस से काम लिया, दृढ़ता को अपनाया। इन दोनों मानसिक शत्रुओं को उन्होंने घृणापूर्वक ललकारा और सदैव उनसे संघर्ष किया। जब भी लोभ और भय ने आक्रमण किया तभी उनने अपने को संभाल लिया और सत्य के पथ पर अविचल भाव से मजबूती के साथ पैर रखते हुए आगे बढ़ते गये। आज वे महापुरुष हैं संसार उनके चरणों पर अपना मस्तक झुकाये खड़ा है। कहने को वे मर गये परन्तु वास्तव में वे अमर हैं, जब तक यह संसार कायम रहेगा तब तक वे भी जीवित रहेंगे।

कर्त्तव्य पालन में इतना आन्तरिक आनन्द छिपा हुआ है जिसकी तुलना संसार का कोई भी आनन्द नहीं कर सकता। धर्म के साथ साँसारिक सुख भी लिपटा हुआ है पर यदि कारणवश कष्ट भी उठाना पड़े तो उससे डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि यह कष्ट उस आनन्द की तुलना में न कुछ के बराबर है। महापुरुषों ने इस सचाई को भली भाँति समझा है इसलिए उन्होंने धर्म को अपनाया है और उसके लिए सब प्रकार के भय और प्रलोभनों के ऊपर विजय प्राप्त की है। अपने सिद्धान्तों के लिए आत्म बलिदान किया है। यही महापुरुष बनने का, महानता प्राप्त करने का मार्ग है। यह देखने में जितना कठिन मालूम पड़ता है अनुभव में उतना ही सरल और सुखदायक है। हम महापुरुष बन सकते हैं बशर्ते कि लोभ और आशंकाओं से लड़ते हुए धर्म पालन के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक कदम बढ़ावें।


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