(श्री स्वामी सत्यभक्त जी महाराज, वर्धा)
अगर सफलता पा न सकूँ तो दुनिया कहती है नादान।
विजयी बनूँ सफलता पाऊं, तो कहती है धूर्त महान॥
निंदक भ्रष्ट विरोधीजन को, क्षमा करूं कहती कमजोर।
इनको अगर ठिकाने लाऊं तो कहती निष्करुण कठोर॥
अगर कष्ट कुछ सहन गुरुं तो कहती है ‘फैलाता नाम’।
बचा रहूँ यदि व्यर्थ कष्ट से कहती है करता आराम॥
दान करूं तो कहने लगती, था कैसा यह संग्रह शील।
मुँह देखी बातें करता था, करता था सत्य में ढील॥
दान न करूं बोलती दुनिया, देता है झूठा उपदेश।
त्याग सिखाता दुनिया भर को, अपने में न त्याग का लेश॥
अगर फकीर बनूँ तो कहती, पेट मूर्ति का खोला द्वार।
दुनिया से धक्के खाकर अब, बन बैठा सेवक लाचार॥
अगर रहूँ धन से स्वतन्त्र मैं, कहती है भर कर निज पेट।
त्याग त्याग चिल्लाता रहता, करता भोलों का आखेट॥
अगर प्रेम से बात करूं तो, कहती कैसा मायाचार।
अगर उपेक्षा करूं जगत से तो, कहती मद का अवतार॥
अगर युक्तियों से समझाऊँ, कहती ‘युक्ति तर्क है व्यर्थ।’
सत्य प्राप्त करने में कैसे हो सकती है, युक्ति समर्थ॥
अगर भावना ही बतलाऊँ, कहती कैसा खुद मुख्तार।
बिना युक्ति के पागल जैसे, सुन सकता है कौन विचार॥
यदि सब का मैं करूं समन्वय, कहती है कैसा बकवाद।
एक बात का नहीं ठिकाना, देता है खिचड़ी का स्वाद॥
एक बात दृढ़ता से बोलूँ, कहती ढीठ और मुँह जोर।
सुनता है न किसी की बातें, मचा रहा अपना ही शोर॥
सोचा बहुत करूं क्या जिससे, हो इस दुनिया को संतोष।
सेवा यह स्वीकार करे या नहीं करे पर करे न रोष॥
सोचा बहुत नहीं पाया पथ, समझा यह सब है बेकार।
दुनिया को खुश करने का है, यत्न मूर्खता का आगार॥
अरे जन्तु खुद को प्रसन्न कर, जिससे हो प्रसन्न सत्येश।
बकती है दुनिया बकने दे, ढ़क कर रख तू कान हमेश॥
सच्चा यश रहता है मन में, दुनिया की तब क्या परवाह।
दुनिया का यश छाया सम है, देख नहीं तू उसकी राह॥
*समाप्त*