(महात्मा गाँधी)
सर्वत्र अच्छे स्वास्थ्य की आवश्यकता अनुभव की जाती हैं, सभी इसके लिए चिन्तित रहते हैं परन्तु कितने हैं जो “स्वास्थ्य क्या हैं” इस प्रश्न पर गहराई से विचार करते हैं? यदि घमंड करने अकड़ने, सताने या ऐश आराम करने के लिए ही स्वास्थ्य की आवश्यकता हो तो इसकी अपेक्षा यह अच्छा हैं कि हम रोग शय्या पर पड़े रहें।
सभी धर्म वाले इस बात को मानते हैं कि हम लोगों का शरीर ईश्वर का वास−स्थान हैं, तथा इसी के द्वारा हम उसे प्राप्त कर सकते हैं। अतः हमारा कर्तव्य हैं कि जहाँ तक हो सके इसे बाहर तथा भीतर से स्वच्छ एवं कलंक रहित रखा जाय ताकि समय आने पर हम इसे उसी पवित्र अवस्था में ईश्वर को सौंप सकें जिस अवस्था में हमने इसे प्राप्त किया था। यदि हम इस विनय को भली भाँति पालन करें तो ईश्वर प्रसन्न होकर अवश्य ही हमें इसका प्रतिफल देगा और हमें अपना सच्चा पुत्र समझेगा।
हमारा शरीर तभी सार्थक हो सकता हैं जब कि हम इसे ईश्वर का मन्दिर मानेंगे एवं उसी की आराधना के लिए इसे अर्पित कर देंगे। यह रक्त, माँस और हड्डियों के अलावा और कुछ भी नहीं हैं और इससे जो मलमूत्र निकलता हैं सिवाय विष के और कुछ नहीं हैं। जो गंदगी हमारे शरीर से निकलती हैं, उसे छूना तो दूर रहा हम उसे ध्यान में भी नहीं लाते। इस शरीर का पालन करने के लिए हम झूठ बोलते हैं विश्वासघात करते हैं एवं इससे भी अधिक बुरे कर्म करते हैं। यह कैसी लज्जा की बात हैं कि हम इन कुकर्मों को करके इस नश्वर शरीर की रक्षा करते हैं।
हम लोगों के शरीर में अन्तरात्मा (पुण्य) और कुवृत्ति (पाप) में सदैव संघर्ष हुआ करता हैं। इधर अन्तरात्मा शरीर पर अपना अधिकार जमाना चाहता हैं उधर पाप रूपी शैतान उसे अपने वंश में करना चाहता हैं। यदि अन्तरात्मा की विजय हुई तब तो यह शरीर दिव्य होकर रत्नों की एक खान बन जाता हैं और यदि शैतान की विजय हुई तो यह महापापों का घर बन जाता हैं। ऐसा शरीर साक्षात नरक के समान हैं, उसमें सड़ने गलने वाले पदार्थ भर जाते हैं, जिससे दुर्गन्ध पैदा होती हैं। उसके हाथ पाँव बुरे कर्मों को करते हैं, जिह्वा ऐसे पदार्थों का स्वाद चाहती है जिसे नहीं खाना चाहिए और ऐसी वाणी बोलती हैं जिसे नहीं बोलना चाहिए। उसकी आंखें न देखने योग्य वस्तुओं को देखना चाहती हैं, कान न सुनने योग्य शब्दों को सुनना चाहते हैं। ऐसा शरीर साक्षात नरक ही हैं। ऐसे शरीर का रहना और न रहना, स्वस्थ या रोगी रहना एक समान हैं।
आरोग्य के संबंध में मैं सदा से यही कहता आया हूँ कि वास्तविक स्वास्थ्य हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब हम लोग उसके नियमों का सच्चे रूप में पालन करेंगे बिना स्वास्थ्य के सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता, किन्तु स्वस्थ हम तभी हो सके हैं कि जब अपनी जिह्वा को वंश में रखें। स्वादेंद्रिय पर काबू रखने से अन्य इन्द्रियों को अपने आप वश में कर लिया उसने वास्तव में सारे संसार को वश में कर लिया और ईश्वर का सच्चा अंश हो गया, रामायण पढ़ने से राम, गीता पढ़ने से कृष्ण, कुरान से खुदा और बाइबिल से ईसा मसीह प्राप्त नहीं हो सकते वे तो तभी मिलेंगे जब हम अपने आचरणों को पवित्र बनावें।
सच्चरित्रता, सत्कर्मों पर अवलम्बित हैं और सत्कर्म सत्य विश्वासों पर निर्भर हैं। सत्यता ही सबका मूल हैं। यही सफलता की कुँजी और सुन्दर स्वास्थ्य प्राप्त करने की आधार शिला हैं।