दुर्भावनाओं को दूर हटाइए।

May 1944

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(श्री स्वामी शिवानन्दजी महाराज)

हमारी प्रकृति में बुरी प्रवृत्तियाँ हैं। उनको उखाड़ने के लिये बड़े साहस तथा परिश्रम की आवश्यकता है और सबसे सहज उपाय यह है कि उच्च प्रवृत्तियों को उनका स्थानापन्न बनायें। यदि स्वभाव बुरा है, तो अच्छा स्वभाव बनाने का प्रयत्न कीजिये। धीरे-धीरे बुरी प्रवृत्तियाँ दूर हो जायेगी और उनके स्थान पर अच्छी प्रवृत्तियाँ अपना अड्डा जमायेंगी। बुरे विचार अच्छे विचारों से हटाये जा सकते हैं।

प्रेम सनातन तथा स्वाभाविक है। घृणा क्षणिक है तथा इसके विकास अस्वाभाविक है। साहस अनादि तथा प्राकृतिक है। साहस धर्म है। भय क्षणिक है तथा अस्वाभाविक है। दया धर्म है यह अनादि तथा स्वाभाविक है घृणा अस्वाभाविक विकास है। घृणा के स्थान पर प्रेम लाना चाहिये। हर एक मनुष्य के गुण को देखिये। उसके अवगुणों का विचार न कीजिये। सतत् परिश्रम से धीरे धीरे मन को शिक्षा दीजिये। पचास बार यदि आप असफल होंगे, तो इक्यावनवीं बार आप अवश्य सफलता प्राप्त करेंगे। यह निश्चय है। राजसिक मन की यह स्वाभाविक वृत्ति है कि मनुष्य के अवगुणों को ही देखता है, घृणा उत्पन्न होती है, दूसरे के स्वभाव की समालोचना करता है, दूसरे की निंदा करता है, दूसरों से लड़ता झगड़ता है। सात्विक मन का यह गुण है कि वह मनुष्य के अच्छे गुणों को देखता है, अवगुणों पर विचार नहीं करता, क्षमा प्रदान करता है तथा अज्ञानियों के साथ सहानुभूति दर्शाता है।

जब कोई स्त्री अपने पति से झगड़ा करती है और उसका बच्चा गोदी से गिर पड़ता है, तो वह बच्चे को चूम लेती है और झगड़ा बन्द हो जाता है। वह खिल के हँसती है। बच्चे की उपस्थिति है। इसी प्रकार बुरी वासनायें अच्छे विचारों से दवाई जा सकती हैं। जिस प्रकार एक माली बड़े प्रयत्न तथा परिश्रम से उत्तम 2 सुगन्धित पुष्पों को वाटिका में लगाता है इसी प्रकार हमें अच्छी वृत्तियों तथा भावनाओं को अपने हृदय में लगाना चाहिये, जिससे आत्मोन्नति हो। पाँचवें या छठे मास हमें देखना चाहिये कि इसमें कहाँ तक अच्छी भावनायें तथा उच्च विचार पाये जाते हैं। पुरानी दुष्ट प्रवृत्तियाँ हृदय में अपना अड्डा जमाने के लिये सतत् प्रयत्न करेंगी तथा अच्छी भावनाओं के दबाने का प्रयत्न करेंगी। हमको सदैव सचेत रहना चाहिये। अन्त में हमारी विजय होगी विचार द्वारा बुरी वासनाओं को हटाइये। सदैव ‘शिवोऽहम्’ पर विचार कीजिये। वृथा विचार मन में न आने दीजिये। हवाई किले की गढ़न्त मस्तिष्क में न होने दीजिये। वासनाओं को स्वतंत्र न होने दीजिये। वासनाओं को नष्ट कीजिये। प्रयत्न से वे स्वयं नष्ट हो जायेगी। क्षमा द्वारा क्रोध को शान्त कीजिये। हृदय में प्रेम तथा ऐक्यभाव उत्पन्न कीजिये क्योंकि दूसरा कौन है जिस पर आप क्रोध करेंगे। सब तो आप ही हैं दूसरा कहाँ है। यह सब अविद्या है। ‘एकमेवाद्वितीयम्’ सब एक ही है दूसरा कोई नहीं है, ये विचार सदैव मनन करने योग्य है।

उदारता तथा दान द्वारा लोभ को नष्ट कीजिये। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भावना द्वारा आत्मप्रशंसा को नष्ट कीजिये। ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। नम्रता से अपने घमण्ड को दूर कीजिए। निष्काम कर्म से अभिमान को दूर कीजिए। साहस से भय को दूर कीजिए जब ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई है ही नहीं तो भय किसका, आप तो स्वयं ब्रह्म हैं। इन्द्रियों को तप से नष्ट कीजिए। मैत्री करुण तथा आर्जव से भावनाओं को स्वच्छ कीजिए। मुदित से ईर्ष्या को दूर कीजिए। वासनाओं को हटाकर इच्छा को बलवान कीजिए। सन्तोष, विचार, संन्यास, सत्संग तथा समाधि द्वारा अपने हृदय में शान्ति का राज्य स्थापन कीजिए।


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