ज्ञानयोग की एक सुलभ साधना

May 1944

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“नहिं ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते”

गीता 4। 38

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा हैं कि ज्ञान के समान पवित्र और कोई वस्तु इस संसार में नहीं हैं। निस्संदेह इस भूमंडल में जितने श्रेष्ठ तम पदार्थ हैं उन में ज्ञान का स्थान सर्वोपरि हैं। मनुष्य इसीलिए सृष्टि का सर्वोच्च प्राणी हैं कि उसमें ज्ञान अधिक हैं। शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की अपेक्षा अनेक पशु आगे बढ़े हुए हैं किन्तु ज्ञान के अभाव में ही उन्हें मनुष्य का दासत्व स्वीकार करना पड़ता हैं। मनुष्यों में भी जो व्यक्ति अधिक प्रतिष्ठित हैं, अधिक सम्पन्न हैं, उच्च पदों पर हैं वे अधिक ज्ञान के कारण ही हैं। चतुर व्यक्ति साधन हीन वर में उत्पन्न होकर भी महत्व को प्राप्त करते हैं और अज्ञानी मनुष्य अपनी पैतृक संपदा तथा प्रतिष्ठा को भी खो बैठते हैं। दुनिया में लक्ष्मी, विद्या, प्रतिष्ठा, बल, पद, मैत्री, कीर्ति, भोग, ऐश्वर्य आदि को बड़ा माना जाता हैं परन्तु यह सब ज्ञान रूपी वृक्ष के फल हैं। ज्ञान के अभाव में इनमें से एक भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती, यदि पूर्वजों द्वारा ज्ञान बल से संचित वस्तुएं अज्ञानी संतान के हाथों पड़े तो वह उन्हें स्थिर नहीं रह सकता, थोड़े ही समय में वह उसके हाथ में चली जाती हैं। मुट्ठी भर अंग्रेज अपने बुद्धिबल से इतने बड़े साम्राज्य पर कब्जा किये हुए हैं जिसमें कभी सूर्य अस्त नहीं होता। विज्ञान ने जल थल और आकाश को अपने वश में कर लिया हैं। तात्पर्य यह कि दुनिया में जितना भी ऐश्वर्य हैं वह ज्ञान का प्रसाद हैं। ज्ञान का ही दूसरा नाम सुख है। “संसार में ज्ञान से बड़ी और कोई वस्तु नहीं है। डडडड हम अपनी आंखों से इस संसार में देख रहे हैं।

इस लोक के सारे सुख ज्ञान के ऊपर निर्भर हैं, परलोक का सुख भी ज्ञान द्वारा ही सम्पादित होता हैं। विवेक और विचार पूर्वक किये हुए जप, तप, व्रत, तीर्थ दान आदि सफल होते हैं, अविवेक द्वारा करने पर यह उत्तम कार्य भी निष्फल जाते हैं और कभी कभी तो उलटे हानिकारक हो जाते हैं। विवेक द्वारा ही मनुष्य आत्म ज्ञान, संयम, भक्ति, परमार्थ आदि की साधना करके जीवन मुक्त हो सकता हैं, परमात्मा को प्राप्त कर सकता हैं। आत्म कल्याण के लिए, ज्ञान की सब से अधिक आवश्यकता हैं।

परमार्थ के लिए ज्ञान से बड़ी और कोई वस्तु नहीं हैं। भूखे को दो रोज भोजन करा देने से सदा के लिए उसका भला नहीं होगा, उसे कोई ऐसी राह दिखानी होगी जिस पर चलकर वह स्वयं जीविका उपार्जन कर सके। बीमारी दवा से अच्छी भी हो जाय तो भी निरोगता के लिए स्वास्थ संबंधी ज्ञान आवश्यक हैं। दवा के आधार पर सदा के लिए किसी का रोग नहीं जा सकता पर ज्ञान के आधार पर बिना दवा के भी रोग अच्छा हो सकता हैं और सुन्दर स्वास्थ्य तथा दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता हैं। चिन्ता, तृष्णा, लोलुपता, कामुकता, उद्विग्नता, क्रोध, शोक घबराहट, निराशा सरीखी भयंकर मानसिक अशान्तियाँ जो जीवन को भार रूप और नारकीय बनाये रहती हैं ज्ञान द्वारा ही शान्त हो सकती हैं। तीनों लोकों की सामग्रियां मिलने से भी उपरोक्त अग्नियाँ बुझ नहीं सकतीं, बल्कि और उलटी बढ़ती हैं, उन्हें बुझाने वाला एक मात्र पदार्थ ज्ञान ही हैं। क्लेश को दूर करके अक्षय आनंद प्रदान करने वाला देवता ‘ज्ञान’ ही हैं। साँसारिक और पारलौकिक शान्ति की कुँजी ज्ञान ही हैं तुच्छ मनुष्य इसी के बल से ही महापुरुष और महात्मा बनते हैं। दूसरों की सेवा सहायता करने वाली इस से बड़ी और कोई वस्तु नहीं है। डडडड गुरु की गोविन्द से उपमा दी गई है। आचार्यों का मत है कि विद्या दान करने वाला दूसरे जन्म में मनुष्य शरीर तो अवश्य प्राप्त करता हैं क्योंकि अन्न आदि दानों का बदला तो दूसरी योनियों में भी मिल सकता हैं पर विद्या का बदला मनुष्य शरीर के अतिरिक्त और किसी शरीर में नहीं मिल सकता। इसलिये विद्या दान करने वालों को सुर दुर्लभ मनुष्य तन तो अवश्य ही मिलता हैं।

संसार में सुख शान्ति तब होगी जब मनुष्य अशक्ति, अन्याय, आलस्य आपापूती और असत्य को छोड़ देगा। इन शत्रुओं को ज्ञान के हथियार से ही मार भगाया जा सकता हैं। अधर्म के चंगुल में से छुड़ाकर धर्मात्मा बनाने की, अशान्ति को मिटाकर शान्ति स्थापित करने की, शक्ति केवल ज्ञान में ही है। जिस महातत्व के ऊपर विश्व की सारी समस्याएं निर्भर हैं उस ज्ञान रूप परमात्मा को उपासना करना ही संसार का सबसे बड़ा उपकार हैं। ज्ञान साधना से बढ़कर और कोई पुण्य कर्म इस संसार में नहीं हैं। भगवान ने कहा-’ज्ञान ज्ञानवतामहम्’ अर्थात् ज्ञानवानों में जो ज्ञान हैं वह मैं ही हूँ। निःसंदेह ज्ञान ईश्वरीय दिव्य शक्ति ही हैं। सर्वश्रेष्ठ यज्ञ भी यही हैं। गीता कहती हैं- “श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञान यज्ञः परंतप।” अर्थात्-हे अर्जुन ! साँसारिक पदार्थों द्वारा होने वाले यज्ञों की अपेक्षा “ज्ञान यज्ञ” श्रेष्ठ हैं। यज्ञ को उच्चकोटि का पुण्य माना गया हैं, उनमें भी ज्ञान यज्ञ सबसे ऊंचा हैं। तात्पर्य यही हैं कि ज्ञान साधना से बढ़कर और कोई पुण्य कर्म इस विश्व में नहीं हैं।

‘अखण्ड ज्योति’ अपने पाठकों को इसी महानतम पुण्य कर्म में प्रवृत्त कराने के लिए सतत प्रयत्नशील रही हैं। हमारी आन्तरिक इच्छा यही हैं कि पाठकों का मानसिक और आध्यात्मिक विकास हो, क्योंकि लौकिक और पारलौकिक सुख किसी की कृपा से नहीं मिलते वरन् मनोबल द्वारा पुरुषार्थ पूर्वक डडडड सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। यह मनोबल जो उन्नति एवं आनन्द का प्रधान साधन हैं, ज्ञान के बिना प्राप्त नहीं होता। हमारे पाठक अपना जीवन आनन्द एवं उन्नति के साथ बितावें अपनी इस इच्छा को हम ज्ञान द्वारा ही पूरा होने की आशा करते हैं इसलिए सदैव ही मनुष्य की विवेक बुद्धि को जागृत करने का हमारा प्रयत्न रहता हैं। अखंड ज्योति का सारा कार्यक्रम इस एक ही मध्य बिन्दु के द्वारा संचालित होता हैं। इस कार्यक्रम को और आगे बढ़ाने के लिए एक व्यवहारिक योजना पाठकों के सामने उपस्थित की जा रही हैं।

“ज्ञान मंदिर” योजना

(1) दुख रूप अज्ञान को मिटाने और सुख रूप ज्ञान का प्रसार करने के लिए स्थान स्थान पर केन्द्र स्थापित किये जाय जिनका नाम “ज्ञान मन्दिर” रहे।

(2) स्वाध्याय और सत्संग द्वारा अपने तथा दूसरों के ज्ञान को बढ़ाना मंदिरों का उद्देश्य होगा। इनको मन द्वारा अन्तःकरण में धारण करने और शरीर द्वारा कार्य रूप में परिणत करने का प्रयत्न किया जायगा।

(3) बुद्धि संगत, समय के अनुकूल, प्रत्यक्ष, अन्तःकरण में पवित्रता उत्पन्न करने वाले, उन्नति की ओर अग्रसर करने वाले, उदार, लोकहितकारी एवं उचित, सिद्धान्तों को ज्ञान समझना चाहिए इसके अतिरिक्त और बातें अज्ञान समझना चाहिए।

(4) ज्ञान मंदिर के सदस्य बनने वाले की निम्न बातें स्वीकार करनी चाहिये।

(अ) वह अपने को ज्ञान रूपी परमात्मा का अनन्य भक्त समझे। और अपने आराध्य देव की पूजा के लिए सतत प्रयत्न करता रहें।

(ब) अपने को अज्ञान रूपी असुर का घोर शत्रु समझे और एक वीर योद्धा की तरह उसको

(स) स्वाध्याय और सत्संग उसके नित्य कर्म होंगे। स्वाध्याय का तात्पर्य-(1) सद्ग्रन्थों का पढ़ना, (2) मनन करना, (3) आत्मचिन्तन करना हैं। और सत्संग का अर्थ-(1) श्रेष्ठ पुरुषों के विचारों को ग्रहण करना, (2) अच्छे विचार दूसरों को देना (3) सेवा या श्रेष्ठ कर्मों में सहयोग करना हैं।

इन तीन कार्यों में से ज्ञान भक्ति को योग। स्वाध्याय सत्संग को-यज्ञ। और अज्ञान विरोधी युद्ध को तप समझना चाहिए और इस योग, यज्ञ, तप को-सत्य, प्रेम, न्याय को अपनी सुविधा और परिस्थिति के अनुसार कार्यक्रम बनाकर नित्य कार्य रूप में परिणित करना चाहिए।

(5) ज्ञान मन्दिर दो प्रकार के होंगे (1) सामूहिक (2) व्यक्तिगत जहाँ एक ही व्यक्ति तीन नियमों को यथा शक्ति पालन करने की प्रतिज्ञा करने वाला हो वहाँ उस व्यक्ति का शरीर ही ज्ञान मन्दिर होगा। जहाँ एक से अधिक व्यक्ति उपरोक्त बातों को स्वीकार करें वहाँ सामूहिक ज्ञान मन्दिर की स्थापना करनी चाहिए।

(6) सामूहिक ज्ञान मन्दिर के लिये किसी स्थान की व्यवस्था करनी चाहिये। जहाँ सामूहिक स्वाध्याय सत्संग की सुविधा हो। इस कमरे में आदर्श वाक्य लिखने चाहिये, महापुरुषों के चित्र टाँगने चाहिये और साफ सुथरा रखना चाहिये जिससे वहाँ आने वालों के मन पर अच्छी छाप पड़े। यहाँ एक पुस्तकालय होना चाहिये। अच्छी अच्छी चुनी हुई, ज्ञानवर्धक पुस्तकें ही यहाँ रहें। दैनिक एवं साप्ताहिक अखबारों की व्यवस्था रहनी चाहिये। कुछ विवेक संगत मासिक पत्र भी मंगाये जा सकते हैं। दैनिक या साप्ताहिक सत्संग की, विचार विनियम की योजना बननी चाहिये। व्यायामशालाएं, रात्रि पाठशालाएं, मंदिर के द्वारा आयोजित हो सकती हैं। अच्छी पुस्तकें सुनाने के लिये कथा कहने का ढंग अपनाना चाहिये। विचार द्वारा संकीर्तन हो सकते हैं। हस्तलिखित मासिक पत्र चलाये जा सकते हैं दीवारों पर अच्छे वाक्य लिखने की पद्धति भी अच्छी हैं। इसी प्रकार विचार करने पर स्थिति के अनुसार जो ज्ञान वर्धक कार्य हो सकें इस मंदिर के द्वारा आयोजित किये जावें।

(7) जहाँ एक ही व्यक्ति हो वह अपने शरीर को ज्ञान मंदिर समझे। उपरोक्त कार्यक्रमों में से जो कार्य जितनी मात्रा में हो सके स्वयं करे तथा दूसरों को वैसा करने के लिये प्रोत्साहित करे।

(8) यदि कहीं एक ही सदस्य हो तो उसे उपरोक्त तीन प्रतिज्ञाएं किसी दिन पवित्र होकर, उपवास के साथ, ईश्वर को साक्षी देकर करनी चाहिये। जहाँ कई व्यक्ति हों वे इकट्ठे होकर एक दूसरे के सामने प्रतिज्ञाएं करें। यह प्रतिज्ञाएं अपनी भाषा में, अपने भावों के अनुसार दो कागजों पर लिखनी चाहिये। उसमें नीचे (1) प्रतिज्ञा की तिथि, (2) पूरा नाम व पता (3) वर्ण (4) जन्म तिथि संवत् भी लिखना चाहिए।

(9) सदस्यों को अपनी जन्म तिथि के दिन हर मास उपवास करना चाहिए और बचा हुआ अन्न पैसों के रूप में अपने यहाँ के ज्ञान मंदिर को ज्ञान प्रचार के लिए दे देना चाहिए। वार्षिक जन्म तिथि के दिन कुछ विशेष दान करना चाहिए। इस दान से स्थानीय ज्ञान मंदिर का खर्च चलने में सहायता मिलेगी। चन्दे द्वारा भी इस कार्य के लिए पैसा इकट्ठा करना चाहिए।

(10) प्रतिज्ञा करने वाले सदस्य जब तक अपनी प्रतिज्ञा वापिस न लें या दुराचरण के कारण बहिष्कृत न कर दिये जायं तब तक वे बराबर ज्ञान मंदिर के सदस्य बने रहेंगे। सदस्य प्रतिवर्ष अपने में से एक ‘कुलपति’ चुनेंगे। अन्य कोई पदाधिकारी न चुना जायगा। यह ‘कुलपति’ ही सदस्यों डडडड

(11) व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान मंदिर अखंडज्योति से संबंधित होने चाहिए। संबंध स्थापना के लिए मंदिर के सदस्य या सदस्यों को एक प्रथक प्रतिज्ञा पत्र भेजना चाहिए जिसमें लिखा हो कि “मैं या हम अखण्डज्योति के हर एक उचित आदेश का यथाशक्ति पालन करने का सदा प्रयत्न किया करेंगे।” मथुरा से सम्बन्ध की स्वीकृति पहुँच जाने पर सम्बन्ध स्थापना मानी जायगी। सम्बन्धित सामूहिक तथा व्यक्तिगत ज्ञान मंदिरों की सूची तथा उनके कार्यक्रम की रिपोर्ट अखंडज्योति में प्रकाशित होती रहेंगी।

(12) ज्ञान मंदिरों को समय समय पर अपनी योजना और कार्य प्रणाली की सूचना देकर तत्सम्बन्धी सलाह मशविरा मथुरा से प्राप्त करते रहना चाहिए। उत्तर के लिये जवाबी कार्ड या लिफाफा भेजना आवश्यक समझना चाहिये।

उपरोक्त विधि व्यवस्था के अनुसार जगह जगह ज्ञान मंदिरों की स्थापना होनी चाहिये। आरम्भ में इनके द्वारा थोड़ा थोड़ा कार्य होगा परन्तु कल्याण पथ की ओर थोड़ा सा कदम उठाना भी व्यर्थ नहीं जाता। गीता का कथन हैं कि “नेहाभिक्रम ताशोअस्ति प्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य आयते महतो भयात्।” अर्थात्-शुभ कर्म के आरम्भ का कभी नाश नहीं होता, उलटा फल भी नहीं होता, इस धर्म का थोड़ा भी साधन महान भय से रक्षा करता हैं। यह प्रयत्न बीज रूप में छोटा हो तो भी इससे उत्पन्न होने वाले पौधे, वृक्ष और फूल फलों की संभावना महान हैं। विवेक के यह संस्कार किसी अच्छे क्षेत्र में पड़ जाय तो ऐसे महापुरुषों का निर्माण हो सकता हैं जो जनता जनार्दन की बहुत बड़ी सेवा करके दिखला सकें। ज्ञान मंदिरों की स्थापना का उपरोक्त कार्यक्रम बहुत ही सरल और साधारण हैं जिसे साधारण स्थिति के पाठक भी पूरा कर सकते हैं। अखंडज्योति द्वारा पूरा सहयोग और पथ प्रदर्शन उन्हें प्राप्त होगा।


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