धर्म संबंधी तीन प्रश्न

May 1944

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परलोक सुधार के लिये मनुष्य नाना प्रकार के जप, तप, ध्यान, व्रत, उपवास, दान, कथा, तीर्थ आदि का अवलम्बन करते हैं। भविष्य की चिन्ता करना मनुष्य का स्वभाव है, कल की आशा के आधार पर वह आज के कार्यों का आरंभ करता है, मृत्यु के उपरान्त जिस लोक में जाना है, उस परलोक को अच्छा बनाने के लिये प्रयत्न करना स्वाभाविक ही है। फसल की आशा में किसान अपना बीज खेत में बिखेर देता है और छः महीने तक खेतों में कठोर परिश्रम करता रहता है, इसी प्रकार मनुष्य परलोक में सुख प्राप्त करने की इच्छा से अपना बहुत सा समय और धन लगाता है, कठोर साधनायें करता है और तरह तरह के नियमों का पालन करता हुआ विविध कर्मकाण्डों में लगा रहता है। छोटे से छोटा कार्य भी त्याग और परिश्रम के बिना पूरा नहीं होता, फिर परलोक सुख तो बिना तपस्या के प्राप्त हो ही कैसे सकता है। निस्संदेह किसी वस्तु की प्राप्ति का मार्ग प्रयत्न ही है, प्रयत्न से ही परलोक में भी सुख प्राप्त हो सकता है।

भारतवर्ष एक आध्यात्मिक देश है, इसकी विचारधारा में इहलोक की अपेक्षा परलोक को अधिक महत्व प्राप्त है। असहाय, अशिक्षित, अभावग्रस्त, दीन हीन व्यक्ति भी अपने विश्वासों के आधार पर कुछ न कुछ परलोक साधना करते रहते हैं। सामूहिक रूप से हिसाब लगाया जाय तो भारत वासियों की एक पंचमाश शक्ति धर्म साधना के लिये व्यय होती है। गणितज्ञों ने हिन्दू जाति की धार्मिक अवस्था पर गहरी खोज की है और हिसाब लगाकर बताया है कि संध्या, पूजा, जप, कीर्तन, तीर्थयात्रा, कर्मकाण्ड, संस्कार, मन्दिर दर्शन, कथा श्रवण, शास्त्रपठन, धार्मिक शिक्षा के निमित्त सर्वसाधारण का जो बहुत सा समय खर्च होता है और साधु, सन्त, पुरोहित, पुजारी, उपदेशक धर्म संस्थाओं तथा धर्म स्थानों के कर्मचारी आदि का जो पूरा समय खर्च होता है इस सारे समय को जोड़ कर इसका औसत फैलाया जाय तो हर एक छोटे बड़े हिन्दू के हिस्से में पौने तीन घंटे प्रतिदिन का समय आता है। निद्रावस्था को छोड़कर शेष समय का यह करीब पाँचवाँ भाग है। इसी प्रकार उपरोक्त कार्यों एवं व्यक्तियों के ऊपर करीब 2 अरब 96 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष व्यय होता है। इसकी औसत हर हिन्दू के ऊपर 1॥ पैसा प्रतिदिन पड़ती है। देश की औसत आमदनी दो आना रोज है। इस तरह सारी आमदनी का एक पाँचवाँ भाग धर्म के लिये खर्च किया जाता है। एक शब्द में यों कह सकते हैं कि हम लोग अपनी सम्पूर्ण शक्ति का पाँचवाँ भाग धर्म के निमित्त इस समय भी लगाते हैं।

पंचमाँश शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। इतनी शक्ति जर्मनी और रूस जैसे युद्ध ग्रस्त देशों में युद्ध में भी खर्च नहीं करनी पड़ रही है, परन्तु हम लोग स्वेच्छा से खुशी खुशी धर्म के निमित्त इतना बड़ा त्याग ‘परलोक सुधार’ के लिये करते हैं। यह ठीक भी है धर्म के लिये, परमार्थ के लिये, परलोक सुख के लिये, इतना त्याग करना उचित ही है, हो सके तो इससे अधिक त्याग भी करना चाहिए।

परन्तु इतना बड़ा व्यापार जिसमें पंचमाश शक्ति व्यय होती है-करने के साथ साथ हमें यह भी विचार करना होगा कि जिस कार्य के लिये यह शक्ति खर्च की जा रही है वह पूरा हो रहा है या नहीं? रोज एक दीवार को चिनता है साथ साथ वह इस बात की परीक्षा भी करता जाता है कि दीवार कहीं टेढ़ी मेढ़ी तो नहीं हो रही है। व्यापारी लोग चिट्ठे बना कर हिसाब देखते रहते हैं कि व्यापार में लगाई हुई पूँजी सुरक्षित है या नहीं, उससे उचित लाभ मिल रहा है या नहीं? यदि व्यापारी को लाभ नजर नहीं आता बल्कि पूँजी डूबती दिखाई देती है तो वह तुरन्त ही सावधान हो जाता है और अपनी गतिविधि बदल देता है। हम लोग जो धर्म के कष्ट साध्य मार्ग पर चलने का साहस करते हैं, उस व्यापारी की बराबर तो बुद्धिमान अवश्य ही होने चाहिए। किन्तु कितने दुख की बात है कि हम पूँजी तो बराबर लगाते जाते हैं परन्तु यह विचार नहीं करते कि यह डूब रही है या इसका कुछ फल भी प्राप्त हो रहा है।

हर काम में सफलता असफलता की कसौटियाँ हैं जिनके द्वारा यह जाना जाता है कि लाभ हो रहा है या घाटा पड़ रहा है। परलोक सुधार की भी एक कसौटी है वह यह कि “यह लोक सुधार रहा है या नहीं?” जिन कर्मों से यह लोक सुखमय बनता है निस्संदेह उनसे परलोक भी सुधरेगा। जिन व्यक्तियों का यह जीवन अशान्ति, बेचैनी, अभाव की नरक यातनाओं में बीत रहा है, उसके लिये परलोक में स्वर्ग सुख की आशा करना बेकार है। जीवन एक वृक्ष है जिसका फल परलोक कह सकते हैं। आम के वृक्ष पर ही आम के फल लगेंगे इसी प्रकार परलोक में वे ही आनन्द भोगेंगे जिनका यह लोक आनन्द मय है। सुख, शाँति, सन्तोष, प्रसन्नता और उल्लास के जो संस्कार मनुष्य इस जीवन में इकट्ठे करता है वे ही परलोक में प्रस्फुटित होकर स्वर्ग सुख का आनन्द अनुभव कराते हैं। दिन भर मनुष्य जैसे काम करता है रात को वैसे ही स्वप्न देखता है जिसका जीवन आनन्द में बीता है उसे स्वर्ग का आनन्द मिलेगा, जिसके अन्तःकरण में अभाव, चिन्ता, तृष्णा, क्रोध की आग सुलगती रही है, जो तिरस्कार, अपमान, दीनता, दरिद्रता और दासता की चक्की में जीवन भर पिसता रहा है उसको इस लोक में भी नरक है और परलोक में भी वही मिलेगा। जिसके घर खीर है उसे ही बाहर भी खीर खाने को मिलेगी। जिसको घर में अन्न के लाले हैं उसे बाहर भी उपवास करने पड़ेंगे। जो इस जीवन में नरक भोग रहा है उसका परलोक में स्वर्ग की आशा करना शेखचिल्ली के झूँठे सपने देखने के समान है।

धर्म कार्यों में अपनी पंचमाश शक्ति को व्यय करने के साथ साथ हमें यह भी देखना होगा कि इस महान त्याग का हमारे लौकिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? किस सीमा तक हमारी शारीरिक मानसिक और सामाजिक शक्तियाँ विकसित होती है? हमारे आनन्द और सुख संतोष में कितनी वृद्धि होती है? इन कसौटियों पर कस कर ही यह परीक्षा कि जा सकती है कि हमारी परलोक साधना सच्ची है या झूठी है। जिस बाग के पौधे सूख सूख कर मुरझाये जा रहे हैं उससे फलों की भारी फसल प्राप्त होने की आशा कोई मूर्ख ही कर सकता है। इसी प्रकार जिन लोगों की शारीरिक मानसिक और सामाजिक दशा छिन्न भिन्न हो रही है उनके लिए कोई पागल ही ऐसी आशा करेगा कि इनके लिए इन्द्र का सिंहासन खाली पड़ा होगा। धर्म कोई अन्धा कुआँ नहीं है जिसमें चाहे जितना डालते जाओ पर कुछ फल ही दृष्टि गोचर न हो। धर्म प्रयत्न को ऐसा फिक्स डिपॉजिट या सेविंग सार्टीफिकेट समझा जाता हैं जिसका भुगतान मृत्यु के उपरान्त होगा, परन्तु यह ठीक नहीं असल में धर्म प्रयत्न एक व्यापार हैं जिसमें उसी दिन से लाभ होना आरम्भ हो जाता हैं। धर्म एक खेती हैं जिसके दिन दिन बढ़ते हुए हरे भरे पौधों को हर कोई नित्य आंखों से देखता रह सकता हैं। सच्चा धर्म-नकद धर्म-हैं। उसमें “इस हाथ दे उस हाथ ले” की कहावत अक्षरशः चरितार्थ होती हैं। जो बन्दूक एक मील तक गोली फेंक सकती हैं वह दस गज के निशाने को क्यों न मारेगी? जिस बत्ती से पाँच सौ कदम तक प्रकाश होता हैं उससे बीस कदम पर प्रकाश क्यों न होगा? जो धर्मसाधना परलोक तक में सुख दे सकती हैं वह इस लोक में संतोष जनक परिस्थितियाँ उत्पन्न क्यों न करेगी? वह करेगी और अवश्य करेगी। यदि न करे तो समझना चाहिए यहाँ असत्य हैं, पाखंड हैं, भ्रम हैं, अज्ञान हैं। सत्य ऐसा सुगंधित पुष्प हैं जिसकी गंध दूर दूर तक फैलती हैं, पर पास में तो और भी अधिक रहती हैं। धर्म से परलोक सुधरता हैं पर यह लोक तो निश्चय ही सुधरता हैं। यदि न सुधरे तो उस कार्य प्रणाली को चाहें कुछ भी क्यों न कहा जाय पर उसे धर्म तो निश्चय ही नहीं कहा जा सकता।

हम देखते हैं कि पंचमाश शक्ति का व्यय करते हुए भी हम लोग सब प्रकार दीन हीन हो रहे हैं, लाखों की संख्या में हम भूख से तड़प तड़प कर मरते हैं, बीमारियाँ हमें चबैने की तरह चबाये जा रही हैं, गरीबी में इस संसार भर से बढ़े चढ़े हैं, शिक्षा दस प्रतिशत भी नहीं, वैयक्तिक जीवनों में कलह और क्लेश की प्रधानता हैं, भ्रम और अज्ञान के भूत हमारे कंठ से चिपट गये हैं। चाहे वैयक्तिक दृष्टि से विचार कीजिए चाहे सामूहिक दृष्टि से, चाहे औसत हिन्दू को देखिए या सारी हिन्दू जाति पर दृष्टिपात कीजिए, उसका लौकिक जीवन बहुत ही पिछड़ा हुआ दुखी और दीन हीन दिखाई देगा। क्या इन्हें स्वर्ग प्राप्त होगा? मुक्ति मिलेगी? डडडड क्या होगा कि रोटी के प्रश्न को न सुलझा सकने वाले लोग कुबेर की समता प्राप्त करने का स्वप्न देखें? सामाजिक और राजनैतिक दासताओं से भी जो छुटकारा न पा सके वे मुक्ति पद पाने की कल्पना में मस्त रहें? यह कल्पनाएं जिस कार्य प्रणाली के आधार पर कर रहे हैं वह ऐसी हैं कि उसके द्वारा हमारी गरीबी-बेकारी, अशिक्षा बीमारी, अल्पायु, दुर्बलता, कलह, क्लेश, कटुता कायरता तक न हट सकीं, फिर कैसे आशा की जाय कि इन धार्मिक क्रिया पद्धतियों द्वारा हमारा परलोक सुधर जायगा?

हमें बुद्धिवान व्यापारी की तरह विचार करना होगा कि जिस धर्म के नाम पर हम अपनी शक्ति का, समय और धन का, पाँचवाँ हिस्सा खर्च कर रहे हैं वह वास्तव में धर्म हैं भी या नहीं? शक्ति कहते हैं कि “धर्मेरक्षति रक्षतः” जो धर्म की रचना करता हैं, धर्म उसकी रक्षा करता हैं। हम पंचम शक्ति द्वारा धर्म की रक्षा कर रहे हैं इतनी बड़ी शक्ति इस धरती माता पर किसी भी देश या जनता द्वारा धर्म के लिए खर्च नहीं की जा रही हैं। अपना प्रतिदिन की औसत आमदनी के जमाने में भी हम लोग जितना त्यागा करते हैं उतना ही सम्पन्न देश भी नहीं कर पाता। इतना होते भी संसार की अन्य जातियाँ इस पृथ्वी पर स्वर्ग भोग रही हैं और हम लोगों के सामने जिस पर भगवान के दस अवतार हुए उस परम पवित्र रत्नगर्भा, शस्य श्यामला भूमि में भी नरक उपस्थित हैं। हम धर्म के लिये बहुत कुछ कर रहे हैं, नाम अखंड कीर्तन, संकीर्तन, यज्ञ, हवन, कथा, व व्रत, उपवास, पूजा−पत्री, दान दक्षिणा, साधु से ब्रह्मभोज, श्राद्ध, तर्पण, तिलक छाप, कंठों जाती गौ ग्रास, तीर्थ यात्रा, प्रार्थना, प्रदक्षिणा कुछ तो जारी हैं, फिर भी धर्म हमारे लिए कुछ नहीं करता। छप्पन लाख पेशेवर और उससे चौगुने अर्ध पेशेवर व्यक्ति धर्म के नाम पर डडडड देता। ईश्वर के रहने के लिये आलीशान राजमहलों को माल देने वाले मन्दिर बनवाये गये हैं, भोग के लिए लाखों रुपया प्रतिदिन के भोग लगाये जाते हैं, टहल चाकरी की राजा महाराजाओं से भी बढ़िया व्यवस्था हैं, इस पर भी ईश्वर हमारी ओर कुछ ध्यान नहीं देता, उल्टी अनेकानेक आधि व्याधियों का प्रकोप बढ़ता जाता हैं। यह समस्या ऐसी कठोर और कर्कश हैं कि बलात् हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती हैं और इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की चुनौती देती हैं कि हम बुद्धिमान व्यापारी की तरह सोचे कि जिस उद्देश्य के लिए अपनी शक्ति का सर्वोत्तम अंश खर्च किया जा रहा हैं वह पूरा होता हैं या नहीं? जिस व्यापार में पूँजी लगाई जा रही हैं उसमें सफलता मिलती हैं या नहीं?

अखण्ड ज्योति अपने पाठकों से विशेष बल पूर्वक कहती हैं कि वे इस प्रश्न पर गंभीरता के साथ विचार करें। धर्म जीवन का मेरुदंड हैं, खासतौर से हिन्दू जाति का तो वह प्राण ही हैं। यदि धर्म के स्थान पर हम अधर्म की पूजा कर रहे हैं तो समझना चाहिए कि अपनी रक्त दाहिनी धमनियों का मुँह खोलकर शरीर का सारा रक्त निष्प्रयोजन और अनुचित स्थान पर बहाये दे रहे हैं। यह स्थिति घातक हैं, खासतौर से आज की दीन हीन दशा में तो और भी अधिक प्राण घातक हैं। यदि हमारी वैयक्तिक और सामूहिक शक्तियों का व्यय अनुचित एवं अनावश्यक मार्ग में हो रहा हैं तो हम में से हर एक का कर्तव्य हैं कि उपेक्षा एवं अधूरे मन के साथ नहीं वरन् पूरी पूरी जिम्मेदारी, गंभीरता, और विवेकशीलता के साथ यह विचार करे कि क्या धर्म का यही वास्तविक रूप हैं जिसके लिए हिन्दू जाति आज अपनी पंचमाँश शक्ति व्यय कर रही हैं? यदि यह नहीं हैं तो धर्म का वह सच्चा स्वरूप क्या हैं? जिसको अपनाने से तुरंत ही धर्म सेवी शारीरिक मानसिक और सामाजिक उन्नति दृष्टिगोचर हो? डडडड


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