विद्या बनाम सदाचार

May 1944

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री पं. विष्णुदत्त जी, पथैना, भरतपुर)

मनुष्यों का कहना है कि संसार में सब से मूल्यवान और सम्माननीय वस्तु विद्या है। जिसके पास विद्या है उसके सामने संसार सिर झुकाता है। परन्तु मैं कहता हूँ कि एक वस्तु और है-जिसके सामने विद्या को भी सिर झुकाना पड़ता है। जहाँ विद्या नाक रगड़ती है, जहाँ विद्या अपरिहार्य हो जाती है, वह वस्तु है-”सदाचार”। आप विद्वान नहीं हैं या नहीं हो सकते हैं तो इसकी कोई परवाह नहीं। यदि आप सदाचारी हैं या हो सकते हैं, तो आप सहस्र विद्वानों के बराबर शक्ति अकेले ही उत्पन्न कर सकते हैं। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं उन्होंने केवल विद्या के बल पर उच्च जीवन नहीं बनाया है। उनकी ख्याति सदाचार के बल से ही हुई है। आज के दिन लोग विद्वान बनने की आकाँक्षा रखते हैं, पर सदाचारी बनने की तरफ उनका ध्यान नहीं है। परिणाम यह होता है कि विद्वान बनने पर भी उनके जीवन कुछ विशेष मूल्यवान प्रमाणित नहीं होते।

“रावण” के विषय में कहा जाता हैं कि वह बड़ा भारी नीतिज्ञ, सब विद्याओं के जानने वाला पंडित था और धुरन्धर वीर था। उसकी सी सम्पदा, शक्ति, योग्यता, क्षमता और उसका सा पद पाने को बहुत से मनुष्य इच्छुक रहते हैं। पर उसमें एक कमी थी वह “सदाचारी” नहीं था। इसी से उसकी शक्ति, विद्या, योग्यता सब मिट्टी में मिल गई। “रोम” का प्रख्यात बादशाह “नीरो” प्रकाण्ड तत्ववेत्ता और बड़ा पण्डित था, पर आचार हीनता के कारण आज तक वह रावण ही के समान तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता हैं।

आज भारत की जनता “जगद्गुरु शंकराचार्य” स्वामी दयानन्द और लोकमान्य तिलक को आदर की दृष्टि से क्यों देखती हैं? म. टॉलस्टाय, वीरवर मेकस्वानी, ह. ईसा व ह. मूसा आज तक यूरोप निवासियों के हृदय पर राज्य क्यों कर रहे हैं? क्या उनकी विद्या के सामने संसार ने सिर नहीं झुकाया। जनता ने उनके सदाचार का महत्व माना। इसीलिये उनका पूजन कर रही हैं। जगद्गुरु शंकराचार्य, स्वामी दयानन्द एक संन्यासी थे। लो. तिलक बी. ए., ऐल. ऐल. बी. थे। इस कारण किसी ने उनका आदर नहीं किया। कितने ही बी. ए., ऐल. ऐल. बी. मारे 2 फिरते हैं। उन्हें कौन पूछता हैं। प्रत्युत ऐसा हुआ कि ज्यों−ही उनके चरित्र का विकास हुआ त्यों−ही गर्वीली डिग्रियाँ लुप्त प्रायः हो गई। सदाचार को देखते ही गर्वीली विद्या ने अपना प्रधान पद छोड़ दिया। यह मुंह छिपाकर भाग गई। आज स्व. शंकराचार्य व स्व. दयानन्द व लो. तिलक के नाम के सामने उनकी डिग्रियाँ लगाना उनका अपमान करना हैं। विद्या ने जो पद उन्हें दिया था सदाचार ने उससे अधिक पद प्रदान किया। वे पुरुष धन्य हैं जिन्हें सदाचार का ध्यान हैं। कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति महा पण्डित विद्वान और तार्किक हैं पर शराबी, वेश्यागामी, झूठा या स्वार्थी हैं। क्या वह लोगों का प्रिय बन सकता हैं? कदापि नहीं। इसके विरुद्ध कोई मनुष्य जाति के नीच और मूर्ख हैं, परन्तु सबको प्रेम करने वाला, सत्यवक्ता, धैर्यवान और छल रहित हैं क्या उसका आदर नहीं होगा? होगा अवश्य होगा। बस, इसीलिये कहता हूँ कि सदाचार के सामने विद्या कोई वस्तु नहीं। यदि आप विद्वान नहीं हैं तो निःसंदेह आप को विद्वान बनना कठिन हैं। परन्तु सदाचारी बनना सरल हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: