(योगी अरविन्द घोष)
अब पुनर्संगठन का योग आ गया है। भारत की उन्नति का आरंभ हो गया हैं। नवीन युग के प्रारम्भिक के उपलक्ष में धर्म, नीति, विद्या, ज्ञान इत्यादि अनेक प्रकार के आन्दोलन मनुष्य समाजों में अवतीर हुए देखे जा रहे हैं।
संसार में जिस नये युग का आविर्भाव होगा जिस सत्य, प्रेम तथा न्याय की भगवान ने इस पृथ्वी पर प्रतिष्ठा करने की इच्छा की हैं वह मनुष्य चरित्र में आँशिक परिवर्तन से संभव नहीं, एक बार कार्य पलट करनी होगी। बाह्य जीवन में थोड़ा सा परिवर्तन लाने मात्र से यह नहीं हो सकता।
आवश्यकता इस बात की हैं कि यह नवनिर्माण भीतर से आरंभ होना चाहिए। मानव अन्तःकरण को एक दम से नया आकर प्रकार धारण करता होगा। मन प्राण और चित्त की वृत्तियों में पूर्ण रूप से परिवर्तन करना होगा। इसका कारण यह हैं कि मानव समाज एवं जगत की सम्पूर्ण वस्तुओं का स्वभाव ही विचित्रता पूर्ण हो गया हैं, एकता का भाव बदल कर उसमें अनेकता का भाव आ गया हैं। समता का सिद्धान्त लुप्त होकर विषमता दृष्टि गोचर हो रही हैं। इसी स्वभाव के परिवर्तन के लिए योग का आश्रय लेना होगा।
राजनीतिक अथवा सामाजिक संघ की स्थापना से अथवा किसी आदर्शवाद, दर्शन शास्त्र, इत्यादि के द्वारा समूल परिवर्तन होना संभव नहीं हैं। योग के द्वारा अपने में भगवान को प्राप्त करना होगा, अपने जीवन को भगवद्भाव से ही पुनर्संगठित करना होगा। पूर्णयोग द्वारा ही यह सब संभव हैं। उसी पूर्ण योग की साधना से सिद्ध होकर भारतवर्ष नवयुग की स्थापना करेगा।