भगवान का निवास स्थान

May 1944

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(तुलसी कृत रामायण से)

दोहा- जस तुम्हार मानस विमल, हंसन जीहा जासु।

मुकतादल गुन गुन चुनइ, राम बसहु उरतासु ॥

तुम्हहिं निषेदित भोजन करहीं।

प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहीं॥

शीश नबहिं सुर गुरु द्विज देखी।

प्रीति सहित करि विनय विसेखी॥

तुम ते अधिक गुरुहिं जिय जानी।

सकल भाव सेवहिं सनसानी॥

काम क्रोध मद मान न मोहा।

लोभ न छोह न राग न द्रोहा॥

जिनके कपट दंभ नहिं माया।

तिनके हृदय बसहु रघुराया॥

सबके प्रिय सब के हित कारी।

दुख सुख सरिस प्रशंसा गारी॥

कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी।

जागत सोवत सरन तुम्हारी॥

जननी सम जानहिं पर नारी।

धन पराय विषते विष भारी॥

जे हरषहिं पर संपति देखी।

दुखित होंहि पर विपति विशेखी॥

अवगुन तजि सबके गुन गह्हिं।

विप्र धेनु हित संकट सह्हिं॥

नीति निपुन जिन के जग लीका।

घर तुम्हार तिनकर मन नीका॥

जाति पाँति धन धर्म बढ़ाई।

प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥

स्वर्ग नरक अपवर्ग समाना।

तहँ तहँ देख धरे धनु बाना॥

दोहा-जेहि न चाहिए कबहु कछु तुम सन सहज सनेह।

बसहु निरंतर तासु उर, सो राउर निज गेह ॥


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