योगियों! कृतघ्न मत बनो!

May 1944

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(द्रोणागिर के महात्मा सन्त शरणदासजी का योगियों को संदेश)

परंपरा प्राप्त योग वृत्ति में असंख्य योगीजन संलग्न हैं। पूरा ही योग्यराज्य उनके आधीन हैं। वास्तव में योगमाया, योग लक्ष्मी, योग बल, योग चमत्कार अपने व्यक्तिगत कल्याण के लिए नहीं वरन् जातीय कल्याण के लिए हैं।

जिस गृहस्थाश्रम ने अनेकों कष्ट सहकर योगाश्रम की, योगी की, योगविद्या की सर्वथा रक्षा की हैं वही गृहस्थाश्रम आज अनेक प्रकार के दुःखों में ग्रसित दीन हीन पड़ा हुआ हैं। क्या ऐसे समय में योगी वृन्द अपने ऊपर हुए उपकारों का स्मरण न करेंगे? क्या स्वर्गीय मुक्ति साधन रूप अपने निजी स्वार्थ का त्याग न करेंगे? अथवा योग सिद्धियों के द्वारा धन, मान, यश का अर्जन कर समाधि के साथ ही गठरी बाँधकर ले चलेंगे?

आज इस अवसर पर सब योग शक्तियों को उचित हैं कि वे एकत्रित हों और योग निद्रा एवं योगैश्वर्य की सम्पत्ति को अकेले ही भोगने की भावना को छोड़कर भारत के प्राचीन ऋषि मुनियों का मार्ग अपनावें। लोक कल्याण में जुट जावें। उनके प्रण पूर्वक प्रयत्न से संसार की काया पलट हो सकती हैं। आध्यात्म शक्तियों के तेज से संसार का अन्धकार दूर होकर सर्वत्र निर्मल प्रकाश की ज्योति छिटक सकती हैं।

आज सारा संसार आधि व्याधियों से ग्रसित होकर किंकर्तव्य विमूढ़ हो रहा हैं। ऐसी दशा में ज्ञानी सन्तों का ज्ञान द्वारा, धनी साधुओं को धन द्वारा, योगीजनों को योग द्वारा, सिद्धों को सिद्ध द्वारा, तत्व दर्शियों को तत्व ज्ञान द्वारा, लोक सेवी महात्माओं को लोक सेवा द्वारा, गृहस्थाश्रम को विपत्तियों में से निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। डडडड


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