(आचार्य)
(1) जब तू दूसरों के मनोभावों को झट से समझ जाता है तो क्या तुझे विश्वास है कि दूसरे लोग तेरे मनोगत भावों को न समझ सकेंगे? यदि ऐसी ही बात है तो तू दूसरों से लाग लपेट की बातें क्यों करता है? स्पष्ट क्यों नहीं अपने मनोगत भावों को प्रकट करता?
(2) दूसरों में तू जिन गुणों को देखकर प्रसन्न होता है, यदि वे ही गुण तेरे नित्य नैमित्तिक जीवन के साथी बन जायें तो फिर तेरी प्रसन्नता का क्या ठिकाना रहेगा?
(3) तूने यदि, कर्म, उपासना, ध्यान, जप तप, संयम, तीर्थ, व्रत, या अन्य उपायों द्वारा अपने को अखिलेश के पाद पद्मों के पास पहुँचने का अधिकार नहीं बना लिया, तो साक्षात् ब्रह्मा से भी तेरी भेंट हो जाय तो उससे भी तेरा उपकार नहीं होने का। यदि उपरोक्त किन्हीं उपायों से तूने अपने को अधिकारी बना लिया तो रास्ता चलता गड़रिया भी तुझे ऊँचा उपदेश देने के लिए पर्याप्त होगा।
(4) तू दूसरों से क्या पूछता है कि-मेरे संबंध में आपकी क्या राय है? अपने को सदा ही पूछता रह कि-मैं क्या कर रहा हूँ बस, हो गया, इसके सदृश परखने वाला संसार में दूसरा कोई नहीं है।
(5) कोकिल घोर जंगल में सुमधुर स्वर क्यों बोलती है? मालती का पुष्प अरण्य में किसे रिझाने को खिलता है? वृक्ष सुस्वादु फल किस लालच से देते है? नीम खाकर भी गौएं मीठा दूध किसके भय से देती हैं? ऐसा करना इन सबका स्वभाव ही है। इसी प्रकार सत् पुरुष किसी को दिखाने के लिए कोई उत्तम कार्य नहीं करते, उत्तम कार्य करना और सबके साथ सद्व्यवहार करना उनका स्वाभाविक गुण ही है।