विरह-वेदना

May 1944

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“अज्ञात”

निर्गुण-आवरणावृत्त कर, हृदय-स्पन्दन-रखा अपना,

अर्थोन्मीलित नयनों में-भर विश्व व्यथा का सपना।

है ऐसा कौन खिलाड़ी करता जो यों मन मानी?

जिसने संघर्ष दिया वह, है कौन वेदना दानी??

जब से प्रशाँत निर्गति से-गति आविर्भूत हुई है।

उस क्षण से प्रति अणु-कण में वेदना प्रसूत हुई हैं॥

अव्यक्त भाव से जग यह किस क्षण से व्यक्त हुआ है।

यह विश्व, ईश के हिय से -जिस क्षण से व्यक्त हुआ है॥

उस दिन से, उस ही क्षण से-उठती है व्यथा पुरानी।

अणु-अणु में समा गई है, यह विरह वेदना रानी॥

अक्षर से क्षर प्रकटा है, निर्गुण से सगुण हुआ है।

वह एक अनेक बना है, वह विगुण, सुनष्णा हुआ है॥

अब, सगुण अगुण होने को-यों अकुलाता है छिन-छिन।

क्षर, अक्षर में मिलने को दिन बिता रहा है गिन-गिन॥


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