विजय का महापथ

May 1944

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(प्रोफेसर रामचरण जी महेन्दु एम. ए., डी. लिट्.)

बारम्बार निष्फलता प्राप्त होने के कारण तुम निराश हो चुके हो, विपत्तियों ने तुम्हारी आशाओं पर तुषारपात किया हैं, तुम्हारी महत्वकांक्षाएं मृत प्रायः हो चुकी हैं, प्रत्येक स्थान पर तुम्हें पराजित, लज्जित और नीचा देखना पड़ा हैं, जिस कार्य को तुमने हस्तगत किया उसी में हानि हुई, तुम्हारे हौंसले चूर्ण हो चुके हैं आत्मा के चारों ओर एक दुःखद अंधकार घनीभूत है, तुम दीन हीन निकृष्ट तथा निर्मात्य स्थिति में पड़े हों, चारों ओर शून्यता ही शून्यता दृष्टिगोचर हो रही हैं, अन्त निकट प्रतीत होता हैं, ऐसी स्थिति में क्या करें?

प्रयत्न करो। पुनः पुनः कोशिश करो। निराश मत हो। जितनी बार तुम्हें ठोकर लगे पुनः नवीन उत्साह और नवीन वेग से अग्रसर हो। एक बार निष्फलता से परास्त हो जाओ तो दुबारा तिबारा कोशिश करो। कोशिश करना न छोड़ो। हजार बार प्रयत्न करना पड़े तो भी प्रयत्न में लगे रहो। निज संकल्पों को कार्य रूप से परिणत करने के नित्य नवीन प्रयत्न करना पराजित होकर भी हुई आशा, नई उमंग और दृढ़ निश्चय में प्रयत्नशील होना- विजय प्राप्ति का राज मार्ग हैं।

जिस प्रकार पंख रहित पक्षी आकाश में नहीं उड़ सकता, उसी प्रकार प्रयत्न रहित व्यक्ति विजय प्राप्ति नहीं कर सकता। वह एक दो साधारण सी प्रतिकूलताओं पर भी विजय प्राप्त नहीं कर पाता। सदैव भाग्य, उद्वेग, परिस्थितियों का दोष बना रहता हैं। उसके आदर्श संकल्प स्थिर नहीं हो पाते। वह कुकल्पना की अशुभ वृत्ति के बंधन में आबद्ध रहता हैं। जब तक मानव प्रकृति में रमे हुए अज्ञान, दुःख, स्वार्थ, और कम हिम्मती के डडडड मर्यादाओं और निर्बलताओं के प्रश्न का पूरी तरह हल नहीं किया जा सकता।

आध्यात्मिक उन्नति ही सच्ची दिशा में मानव का विकास साध सकती हैं। जिस आत्मबन्धु के हृदय में इस महा तथ्य के लिए पुकार उठ रही हैं वह अपनी कामनाओं की प्रेरणा उस चैतन्य केन्द्र की ओर कर सकता हैं जो मानव की शक्ति का केन्द्र स्थान हैं। पश्चिम के विचारक और साधारण जनता इस तत्व की ओर क्रमशः उन्मुख हो रहे हैं।

पराजय की कुत्सित भावनाएं सर्व प्रथम अन्तःकरण पर अपना अधिकार कर लेती हैं। तदन्तर यही भावना मनुष्य के बाह्य वातावरण पर अपना प्रभाव डालती हैं। अन्तःकरण की दास वृत्ति के अनुसार ही दासत्व के बंधन बढ़ते हैं। विजय के लिए विजय की भावना ही अन्तःकरण की स्थिर वृत्ति बने, वैसे ही मानस चित्र मस्तिष्क में आएं, वैसी ही साधना संकल्प इत्यादि चलते रहें तब ही विजय प्राप्ति होती हैं।

मनुष्यों का एक वृहत् भाग इस कारण विजय प्राप्ति नहीं कर सकता क्योंकि वह पराजय से डर कर कोई नया उद्योग प्रारम्भ नहीं करता। ऐसे व्यक्तियों के हृदय में एक गुप चुप पीड़ा लगी रहती हैं कि यदि मैं कोई नवीन कार्य करूंगा तो कहीं मुझे सफलता प्राप्त होगी अथवा नहीं। उसे अपनी शक्तियों पर विश्वास नहीं होता यह भूल अत्यन्त हानिकर हैं। आत्मा के विकास का सबसे बड़ा शत्रु वही हैं। उनकी आत्मा में जो स्फुरण होता हैं उसके अनुसार कार्य न कर के वे सदैव पिछड़े रहते हैं।

विजय का प्रारम्भ मानसिक स्वतंत्रता से होता हैं। सर्वप्रथम मन में छुपी संशय वृत्ति का क्षय करना चाहिए। अन्तरात्मा की शुभ प्रेरणा के अनुसार कार्य करने से उत्तरोत्तर विजय की ओर प्रवृत्ति होती हैं।

क्या तुमने कभी अपने हृदय में छिपे “(भय)” नाम के शत्रु को खोज निकालने का प्रयत्न किया हैं? पुनः 2 मन की छान बीन करो और मालूम करो कि तुम्हें निम्न स्थिति में डालने वाला यह भयानक शत्रु कहाँ बैठा हैं। त्यों 2 तुम आत्म प्रेरणा में मन लगाओगे त्यों 2 इस शत्रु का क्षय होगा और अन्त में अपनी श्रद्धा द्वारा ही तुम्हें विजय लाभ हो जायगा। मानव की गुरुतम न्यूनता यही हैं कि वह अपने आत्म विश्वास को दृढ़ नहीं करता, प्रत्युत सदैव शंकाशील भावना बनाये रहता हैं। याद रखिये मनुष्य की योग्यता चाहे कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हो फल उसे उतना ही प्राप्त होगा जितना वह स्वयं अपने आप को मानता है।

संसार में तुम कुछ भी कर सकते हो यदि तुमने आत्मश्रद्धा नामक बल संचय कर लिया हैं। हमारी श्रद्धा की शक्तियाँ उसी ओर अग्रसर होगी जिस और हम उन्हें प्रेरित करेंगे। यदि हम दृढ़ता पूर्वक उन्हें आज्ञा दें तो वे अवश्यमेव सफलता प्राप्त कराने में हमारी सहायक होंगी। श्रद्धा हमारी सबसे उत्तम प्रेरक शक्ति हैं।

अनुकरणीय सत्कर्मों के समाचार छपा करेंगे

अगले मास में “अखण्ड ज्योति परिवार के सतयुगी कार्य” शीर्षक के नीचे एक पृष्ठ में संक्षिप्त समाचार भी दिये जाया करेंगे। पाठकों से प्रार्थना हैं कि आदर्श, अनुकरणीय, सत्कार्यों की जो घटनाएं अपने यहाँ हों उनके समाचार अखण्ड ज्योति में छपने के लिए भेजते रहा करें। जिन्हें पढ़कर दूसरे लोगों को भी आचरण सुधारने, परोपकार करने, सत्य प्रेम तथा न्याय के मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन मिले। डडडड


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