दूसरों को प्रभावित करना

March 1944

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दूसरों को प्रभावित करने का कार्य केवल जबानी जमा खर्च से नहीं हो जाता। उस के लिए कुछ ठोस तत्व पैदा करना पड़ता है जिस के आधार पर दूसरों को प्रभावित किया जा सके। इसे मानसिक आकर्षण कह सकते हैं। अपने अन्दर मानसिक आकर्षण उत्पन्न करने के लिए पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक डाक्टरों ने सात बातें निर्धारित की हैं जिनके द्वारा अपने अन्दर ऐसी शक्ति पैदा की जा सकती है जिस के बल पर अन्य व्यक्तियों को प्रभावित किया जा सकें। (1) Privacy निजपन (2) Secrecy -गुप्त मार्मिक पन (3) Mystery -भेदीपन (4) Modration - मध्यमपन (5) concentration -एकाग्रपन (6) Suggestiveness -सूचना पूर्वक (7) Fixed Gaze -एकाग्र दृष्टि।

नीचे इनका स्पष्टीकरण किया जाता है।

निजपन- अपने लिए सदैव ऊँचे विचार रखो। अपने से अधिक बल, पद, धन, या ज्ञान के किसी व्यक्ति को देखो तो अपने अन्दर हीनता के विचार मत लाओ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनका उचित आदर मत करो या अपना व्यवहार उद्धत बना लो। नम्रता और भलमनसाहत का व्यवहार मनुष्य के आवश्यक गुण हैं परन्तु अपनी योग्यता को तुच्छ और हीन समझ कर अपने को नाचीज मान लेना बहुत बुरा है। अपने को ईश्वर का राजकुमार और सर्वगुण सम्पन्न अमर आत्मा समझो किसी के सामने न तो झेंपो और न गिड़गिड़ाओ। स्वयं अपना सम्मान करो।

गुप्त मार्मिक पन- अपने इरादों को छिपा कर रखो। तुम अन्त में क्या करना चाहते हो यह प्रगट मत होने दो। जो आदमी हर किसी के सामने निष्प्रयोजन अपने मन के सारे भेद बताते फिरते हैं उनकी बात का महत्व कम हो जाता है और छिछोरों में गणना होने लगती हैं। किसी को प्रभावित तो तुम्हें दूसरे के विचार परिवर्तन के लिए ही करना है ऐसी दशा में अपना अन्तिम इरादा उस पर कदापि प्रकट मत होने दो। इनसे उसकी दूषित वृत्तियाँ सजग हो जाएँगी और अपने बचाव का प्रयत्न करेंगी। दूसरे की बातों को पूरी तरह सुनो किन्तु अपनी बातें उतनी ही कहो जितनी कहना जरूरी है। जो लोग कम बोलते हैं, सार गर्भित बोलते हैं, आवश्यकीय वार्तालाप करते हैं, उनकी गंभीरता बनी रहती है और उसका दूसरों पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

भेदीपन - दूसरों के बारे में अधिक से अधिक जानो। जिस आदमी से व्यवहार करना है उस की वर्तमान दशा, पूर्व जीवन, गुप्त बातें, मानसिक दशा, इच्छाएं, स्थिति आदि के संबंध में जितनी ज्यादा जानकारी प्राप्त कर सको, करो। जब तक किसी आदमी की स्थिति के संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त न हो तब तक उसे पूरी तरह प्रभावित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है किन्तु साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अपने भेद खास तौर से अपनी कमजोरियों के भेद ऐसी बुरी तरह किसी पर प्रगट न होने पावें जिससे तुम घृणा के पात्र बन जाओ।

मध्यमपन- अपने को बीच की स्थिति में रखो। न तो सिद्ध पुरुष बनो और न नीच होने की घोषणा करो। अपनी बल बुद्धि, विद्या की न तो शेखी मारो और न तुच्छता प्रकट करो। साधारणतः न तो इतना प्रेम प्रकट करो कि उसके गले से ही लिपट जाओ और न द्वेष, कटुता या रुखाई का ही व्यवहार करो। वस्त्र के बारे में भी यही नीति रहनी चाहिए। इतने बढ़िया और अटपटे वस्त्र नहीं होने चाहिए कि नाटक के पात्रों की सी शक्ल बन जाय और न फटी टूटी मैली एवं गंदी पोशाक हो! सादा और साफ कपड़े पहनो। मध्यम श्रेणी के भले आदमियों की तरह अपनी रहन-सहन, चाल-ढाल बनाओ।

एकाग्रपन- जिस बात को सोचो, जिस चीज को हाथ में लो, जिस काम को आरंभ करो उस पर मन को पूरी तरह एकाग्र कर लो। उसके विषय में अच्छी तरह सोच विचार करो। सफलता प्राप्त करने के लिए जो-जो उपाय समझ में आते हैं उन सब को कसौटी पर कसो और यदि कोई उपयुक्त प्रतीत हो तो काम में लाओ। जो काम हाथ में लिया है उसे पूरा होने तक, अनिच्छा या उदासी मत लाओ। काम करते समय ऐसा न हो कि शरीर उसमें लग रहा हो और मन दूसरी जगह कुलांचे खा रहा हो। एकाग्रता के साथ काम करने पर कठिन काम सफल हो जाते हैं।

सूचना पूर्वक - साधारण बातचीत और सूचना पूर्वक बातचीत करने में यह अन्तर है कि मामूली बोलचाल मनोरंजन के लिए होती है या जब जैसी इच्छा उठी वैसी ही बात करने लगते हैं किन्तु सूचना पूर्वक बातचीत किसी खास उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपनी इच्छा शक्ति को सम्मिलित करके कही जाती है। मामूली तरह कोई बात कह देने और जोर देकर अपनी बात पर पूरे विश्वास की भावना के साथ- मध्यम और गंभीर वाणी में कहने के परिणाम में अद्भुत अन्तर होता है। हल्के तरीके से कुछ कह सुन देने की अपेक्षा अपनी सारी इच्छा को शामिल करते हुए भले मानसों की तरह जो बात कही जाती है वह सुनने वाले के हृदय में बहुत गहरी घुस जाती है और देर तक ठहरने वाला एवं गहरा असर करती है।

एकाग्र दृष्टि - मनुष्य के शरीर में नेत्र ही ऐसे अद्भुत दर्पण हैं। जिसमें होकर उस का सारा अन्तस्थल झलकता है। चोर, लम्पट, क्रूर मूर्ख या साधु, सदाचारी, उदार, विद्वान को उस की आँखें देख कर पहचाना जा सकता है। इधर उधर आंखें नचाने, जल्दी जल्दी पलक पीटने, या छिछोरेपन की सी आंखें बनाये रखने पर हर कोई ताड़ सकता है कि आदमी तुच्छ है। इसलिए अपनी मुख मुद्रा गंभीर रखो। आम लोगों के सामने ठठाकर मत हँसो। जहाँ प्रसन्नता की जरूरत हो थोड़ा सा मुस्करा देना काफी है। आँखों में आत्म विश्वास, गंभीरता और उच्च व्यक्तित्व की झलक होनी चाहिए। जिस आदमी से बात कर रहे हो आरंभ में उसकी निगाह से निगाह मिलाओ कुछ ही देर में वह अपनी आंखें झुका लेगा। परन्तु यह दृष्टिपात ऐसा न होना चाहिए जो असभ्यता सूचक प्रतीत हो। अपनी दृष्टि उस की नाक के अग्रभाग पर जमाये रहो और कभी कभी चेहरे के इधर उधर देखो। इस प्रकार कुछ देर चेहरे पर दृष्टि जमाये रहने से उसे आसानी से प्रभावित किया जा सकता है।

योग शास्त्र में एकाग्रता को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है क्योंकि मनुष्य की शक्तियाँ अलग अलग कार्यों में लगी रहने के कारण कोई विशेष असर नहीं होता किन्तु उन्हें यदि एक ही बात पर केन्द्र भूत कर दिया जाय तो अलग अलग दिशाओं में काम करने वाली शक्तियाँ एकत्रित होकर एक विचित्र बल धारण कर लेती है। दूसरों को प्रभावित करने के इच्छुकों को तो खास तौर से अपनी एकाग्रता बढ़ानी चाहिए। शारीरिक शक्तियों को एकाग्र करने के लिए तीन साधन आवश्यक हैं (1) शरीर की हलचलों को एकाग्र करना (2) विचारों पर काबू करना (3) किसी वस्तु पर ध्यान एकत्रित करना।

(1) शरीर की एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए किसी ऐसे एकान्त स्थान में नित्य जाना चाहिए जहाँ बहुत से दृश्यों और शोर गुलों की बाधा न हो। इस साफ -सुथरे स्थान में शरीर को ढीला छोड़ने के लिए किसी आसन या आराम कुर्सी पर बैठो। शरीर को रुई के गद्दे की तरह बिलकुल ढीला छोड़ दो। बैठने लेटने और पड़े रहने में जैसे तुम्हें सुविधा दिखाई दे उसी तरह आराम के साथ स्थित हो जाओ। दाहिने हाथ का अंगूठा कुछ आगे की ओर बढ़ा कर रखो और उस के नाखून पर ध्यान जमाओ। भावना करो कि मेरे शरीर में यह अँगूठा ही एक अंग है और बाकी अंगों से कोई संबंध नहीं। शेष अंगों को ध्यान में मन में मत आने दो और और केवल अंगूठे के नाखून को देखो और उसी पर चित्त स्थित करो। ऐसा करने से शरीर के विभिन्न स्थानों पर काम करने वाली शक्तियाँ कुछ ही देर में एकत्रित हो जाएँगी और अंगूठे में गर्मी, सनसनाहट, खुजली फड़कन या जलन सी मालूम होने लगेगी। बस, पहले दिन का अभ्यास, यहीं बन्द कर दो। क्योंकि शक्तियों को यकायक एक स्थान पर अधिक देर तक एकत्रित करने से उस स्थान को तथा शरीर के अन्य अवयवों को झटका लगने के कारण कुछ विकार पैदा होने की संभावना रहती है। पहले दिन जितनी देर में गर्मी मालूम हुई थी उस से एक एक मिनट आगे बढ़ते चलो। कई बार अधूरे मन या अवस्थित चित्त से अभ्यास करने पर अंगूठे में शक्ति प्रवाह देर से आता है ऐसी दशा में प्रारंभिक अभ्यास का समय वह मानना चाहिए जिस में सनसनाहट पैदा हो उससे आगे के समय में आधी आधी मिनट प्रतिदिन वृद्धि करनी चाहिए। कई बार जब चित्त बहुत डाँवाडोल होता है तो आरंभिक गर्मी लाने में भी बहुत समय लग जाता है और मन उचटने लगता है। यदि पन्द्रह मिनट में भी शक्ति प्रवाह संचालित न हो तो उस समय को अभ्यास स्थगित करके फिर किसी समय करना चाहिए। आरंभिक शक्ति प्रवाह जारी होने के चार पाँच मिनट बाद अंगूठे के रंग बदलते हुए मालूम देते हैं कभी वह पीले, कभी नीले, कभी गुलाबी, और कभी कई रंगों से मिश्रित मालूम पड़ने लगता है। यह अवस्था बताती है कि अभ्यास बढ़ रहा है। प्रवाह जारी होने के बाद अधिक से अधिक बीस पच्चीस मिनट तक धीर धीरे अभ्यास बढ़ाया जा सकता है। प्रतिदिन एक मिनट से अधिक समय न बढ़ाया जाय इस प्रकार जब अभ्यास सफलता के निकट पहुँच जाता है तो नाखून गहरे लाल या नारंगी रंग का आग के जलते हुए गोले की तरह दिखाई देने लगता है। बस इससे आगे मत बढ़ो। अभ्यास पर से उठ कर अंगूठे को खुली हवा में थोड़ी देर पड़ा रहने दो। इस के उपरान्त कच्चे दूध में उसे दो तीन मिनट पड़ा रहने दो। दूध न मिल सके तो पानी से काम निकला जा सकता है। इस दूध या पानी को कहीं जमीन में गाड़ देना चाहिए जिससे कोई उस छुए न। यह एक प्रकार का विष होगा जिसके स्पर्श से रोग उत्पन्न हो सकते हैं। अंगूठे को शीतल करना भूलना न चाहिए अन्यथा वह विष रुककर कोई उत्पात खड़ा कर सकता है।

यह अभ्यास करने के लिए प्रातः काल का समय उत्तम है।

दैनिक व्यवसाय में भी शरीर की एकाग्रता बनाये रखने का प्रयत्न करना चाहिए।


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